भोपाल/ कोविड काल के दौरान स्कूलों के बंद रहने के कारण बच्चों पर शारीरिक और मानसिक दोनों तरह का असर हुआ है। करीब दो सालों के इस अंतराल से उनकी शिक्षा और सीखने की प्रवृत्ति दोनों प्रभावित हुई हैं। बच्चों के भविष्य पर इसका गंभीर असर होगा। ऐसे में जरूरत इस बात की है कि इस क्षति की भरपाई और बच्चों को इस संकट से उबारने के लिए सरकार और समाज मिलकर काम करें। कोविड संबंधी पूरी सावधानी बरतते हुए स्कूलों को खोलने के साथ ही बच्चों के लिए ऐसा पाठक्रम तैयार किया जाए ताकि वे वर्तमान कक्षा में पढ़ने के साथ साथ उस पढ़ाई की भरपाई भी कर सकें जिससे स्कूल न खुल पाने के कारण वे वंचित हो गए हैं।
ये विचार बुधवार को भोपाल में यूनीसेफ और चाइल्ड राइट्स ऑब्जर्वेटरी मध्यप्रदेश के सहयोग से, कोविड काल के दौरान बच्चों के सामने आई सीखने सिखाने की चुनौतियां विषय पर आयोजित कार्यशाला में व्यक्त किए गए। वक्ताओं ने कहा कि सोशल डिस्टेंसिंग का सबसे ज्यादा असर समाज पर पड़ा है और इससे बच्चे सर्वाधिक प्रभावित हुए हैं। कोविड के कारण स्कूल बंद होने और सामाजिक गतिविधियां खत्म हो जाने से बच्चे शारीरिक और मनोवैज्ञानिक दोनों तरह से शिकार हुए हैं। उन्हें फिर से स्कूल तक लाना बहुत बड़ी चुनौती है।
कई स्कूलों में पढ़ने वाले कमजोर वर्ग के बच्चों में से 50 से 60 फीसदी तक बच्चे पढ़ाई छोड़ गए हैं। परिवार की कमजोर आर्थिक स्थिति के चलते उन्हें भी किसी न किसी काम में लगा दिया गया है और अब ऐसे बच्चों का फिर से स्कूल लौटना मुश्किल है। इसी तरह स्कूल जाने वाली कई बच्चियों की शादी कर दी गई है, ऐसी बच्चियां भी शायद ही पढ़ाई की दुनिया में फिर लौट पाएं।
कोविड के दौरान डिजिटल माध्यम से नियमित पढ़ाई की क्षतिपूर्ति करने के प्रयास हुए, लेकिन इस माध्यम की पहुंच भी सिर्फ 40 फीसदी छात्रों तक ही हो पाई। बाकी 60 प्रतिशत बच्चे पढ़ाई से वंचित ही रहे। इसमें भी ग्रामीण और खासकर आदिवासी इलाकों के बच्चों की हालत और अधिक खराब रही।
कार्यशाला के दौरान सुझाव दिया गया कि बच्चों की पढ़ाई के लगभग दो साल खराब होने के कारण उसकी भरपाई के लिए इन दो सालों के पाठ्यक्रम को उनके ताजा पाठ्क्रम के साथ जोड़कर नए सिरे से इस तरह तैयार किया जाए कि पिछले दो सालों की प्रमुख बातें उनकी पढ़ाई लिखाई से न छूटें। बच्चों के साथ साथ शिक्षकों और अभिभावकों को भी मनोवैज्ञानिक रूप से मजबूत बनाने के लिए स्कूलों में मनोचिकित्सकों की सेवाएं लेने या फिर शिक्षकों को इसकी ट्रेनिंग देने का भी सुझाव दिया गया।
वक्ताओं ने कहा कि स्कूल की भरपाई कोई नहीं कर सकता इसलिए कोविड सावधानियों का ध्यान रखते हुए स्कूल खोलने पर विचार होना चाहिए। इसके साथ ही समाज को भी अपनी जिम्मेदारी निभाते हुए जनभागीदारी के साथ मोहल्ला स्कूलों का इंतजाम कर युवाओं को ऐसे स्कूलों से जोड़ना चाहिए। चर्चा के दौरान शिक्षा का राष्ट्रीयकरण करने, शिक्षा को निशुल्क बनाने और शिक्षकों के खाली पद तत्काल भरे जाने, स्कूल न खुलने के कारण मध्याह्न भोजन से वंचित रहने वाले बच्चों के लिए घर तक भोजन पहुंचाने, टीकाकरण की गति तेज करने पर भी जोर दिया गया।
यूनीसेफ मध्यप्रदेश के शिक्षा विशेषज्ञ एफ.ए. जामी ने कहा कि स्कूल बच्चों के लिए सिर्फ पढ़ाई का केंद्र ही नहीं बल्कि उनकी सामाजिक दुनिया और अन्य गतिविधियों का भी केंद्र होते हैं। इसलिए प्राइमरी और मिडल स्कूलों को खोले जाने पर विचार होना चाहिए। बच्चों की पढ़ाई का जो नुकसान हुआ है उसके लिए 12 से 18 माह का एक ब्रिज कोर्स तैयार किया जाना चाहिए।
राज्य शिक्षा केंद्र के निदेशक धनराजू एस. ने कहा कि कोविड में बच्चों की शिक्षा और उनके सीखने की प्रक्रिया पर सबसे बुरा असर पड़ा है। सरकार तो अपनी ओर से प्रयास कर ही रही है लेकिन पूरे समाज को इसके लिए आगे आना होगा। लोग स्वेच्छा से बच्चों को पढ़ाने और सिखाने के काम के लिए आगे आएं।
कार्यशाला में भाजपा के प्रवक्ता डॉ. हितेष वाजपेयी, नेहा बग्गा, कांग्रेस के प्रवक्ता भूपेंद्र गुप्ता, अजिता वाजपेयी पांडे, सीपीआई के शैलेंद्र शैली, बाल आयोग के सदस्य ब्रजेश चौहान, बाल कल्याण समिति की जाग्रति सिंह, बेरसिया के विधायक विष्णु खत्री, अंकुर स्कूल की प्राचार्य प्रतीक्षा गुरु, वरिष्ठ पत्रकार गिरीश उपाध्याय, सुनील शुक्ला, रूबी सरकार आदि ने अपने विचार रखे। चाइल्ड राइट्स ऑब्जर्वेटरी की अध्यक्ष निर्मला बुच और रघुराजसिंह ने कार्यशाला की रूपरेखा प्रस्तुत की। कार्यक्रम का संचालन वरिष्ठ पत्रकार शरद द्विवेदी ने किया। यूनीसेफ के मीडिया विशेषज्ञ अनिल गुलाटी ने आभार व्यक्त किया।