गिरीश उपाध्याय
संसद के दोनों सदनों में पावस सत्र हंगामे की भेंट चढ़ जाने और समय से पूर्व ही समाप्त कर दिए जाने के बाद से ही राजनीतिक सरगर्मी चरम पर है। राज्यसभा में 11 अगस्त को हुए घटनाक्रम को लेकर सत्ता पक्ष और विपक्ष आमने सामने हैं। दोनों एक दूसरे पर संसद की गरिमा को तार तार करने के आरोप लगा रहे हैं, लेकिन इस बीच घटे एक बहुत महत्वपूर्ण घटनाक्रम पर उतना ध्यान नहीं जा पा रहा है जितना जाना चाहिए। हंगामे की स्थायी होती जा रही परंपरा के बीच सदन में यह घटना बहुत शांति और सौहार्दपूर्ण माहौल में घटी लेकिन भविष्य में विनाशकारी तूफान के संकेत देने वाली इस घटना का भारतीय लोकतंत्र पर दूरगामी असर होने वाला है।
बहुत अजीब बात है कि किसान आंदोलन और किसान बिल के अलावा पेगासस जासूसी कांड जैसे मसले को लेकर संसद की कार्यवाही भारी हंगामे के चलते ठप रहती है लेकिन उसी बीच ओबीसी की पहचान का अधिकार राज्यों को दिए जाने वाले संविधान संशोधन बिल पर संसद एकराय होकर बहुत शांति से फैसला कर लेती है। यह संविधान संशोधन बिल मत विभाजन के जरिये मंजूर किए जाने के बावजूद इसके विरोध में एक भी वोट नहीं पड़ता। संसद में सत्ता पक्ष और विपक्ष की एकराय या सदन में सर्वानुमति के इसी सिरे को पकड़ते हुए जरा पीछे जाएं तो हम पाएंगे कि इससे पहले 2019 में भी ऐसा ही एक मौका आया था जब संसद ने अनुसूचित जाति व जनजाति के आरक्षण की अवधि 10 साल और बढ़ाने के संविधान संशोधन बिल को भी बगैर किसी ना नुकुर के सर्वानुमति से पास कर दिया था।
यानी मामला यदि वोट की राजनीति से जुड़ा है तो सारा विरोध और सारी असहमति दरकिनार हो जाती है, लेकिन यदि कोई और बात हुई तो वह कितनी दूर तक जाएगी कोई नहीं कह सकता। संसद का यह रुख बताता है कि हम किस तरह वर्ग चेतना से अलग होकर एक बार फिर जाति चेतना की तरफ बढ़ रहे हैं। किसानों के मसले पर संसद एक राय नहीं होती लेकिन ओबीसी की पहचान या आरक्षण की अवधि बढ़ाने जैसे मुद्दों पर वह एकदम से सर्वानुमति तक पहुंच जाती है। यानी हमारे लिए करोड़ों लोगों की आजीविका से संबंध रखने वाले खेती किसानी के मुद्दे से भी अधिक महत्वपूर्ण है जातिगत पहचान का मुद्दा।
देश में जातीय राजनीति कितनी घर कर गई है इसका एक प्रमाण हाल ही में फिर से जोर पकड़ रही जातीय जनगणना की मांग है। कई राज्यों और कई दलों ने जातीय जनगणना को लेकर आवाज बुलंद की है और कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए अगर 75 साल का होने जा रहा आजाद भारत एक बार फिर उसी जातीय परिदृश्य में लौटता हुआ नजर आए जो आजादी के पूर्व और उसके बाद भी कई वर्षों तक हमारे सामाजिक जीवन में मौजूद था। यानी हम पीछे देखते हुए आगे बढ़ रहे हैं। याद कीजिये जाति को हमारी सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था से अलग करने के कितने प्रयास हुए थे। डॉ. भीमराव आंबेडकर और राममनोहर लोहिया ने तो इसके खिलाफ बाकायदा पूरा आंदोलन ही छेड़ा था। लेकिन 75 साल का होने जा रहा भारत अब उसी दौर में फिर लौट जाना चाहता है।
आजादी के संघर्ष से लेकर आजाद भारत के शुरुआती सालों में भारत की राजनीतिक विचारधारा पर बात होती थी लेकिन अब ऐसा लगता है कि राजनीतिक विचारधारा को त्याग कर राजनीति को ही विचार मान लिया गया है। इस मामले में पश्चिम बंगाल में पिछले दिनों हुई हिंसा को लेकर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की उस टिप्पणी पर भी गौर किया जाना चाहिए जिसमें उसने कहा है कि इन दिनों ‘कानून के शासन’ के बजाय ‘शासक के कानून’ की अवधारणा स्थापित हो रही है। आयोग की यह टिप्पणी सिर्फ पश्चिम बंगाल के संदर्भ में नहीं बल्कि पूरे देश के संदर्भ में ही देखी जानी चाहिए। कानून या विधि के शासन के बजाय अब चारों ओर शासन या शासक की मर्जी ही कानून होती जा रही है।
ऐसा इसलिए भी हो रहा है क्योंकि संसद और विधानसभाओं जैसी नीति निर्धारण की हमारी सर्वोच्च लोकतांत्रिक संस्थाएं अपना महत्व ही खोती जा रही हैं। एक समय कानूनों, विधियों, नीतियों और योजनाओं पर सदन में व्यापक बहस होती थी और उस मंथन से निकले तत्व ही अंतिम रूप ले पाते थे। लेकिन अब शोर शराबे और हंगामे के बीच धड़ाधड़ बिल पास होते रहते हैं। कहीं कोई बात नहीं, कहीं कोई चर्चा नहीं, कहीं कोई सवाल नहीं…और जब बहस ही नहीं होगी या सवाल उठेंगे ही नहीं तो उनके जवाब की उम्मीद तो छोड़ ही दीजिये।
पिछले दिनों तृणमूल कांग्रेस के सांसद डेरेक ओ ब्रॉयन ने इस तरह धड़ाधड़ बिल पास किए जाने की प्रक्रिया पर तंज करते हुए पूछा था कि हम कानून बना रहे हैं या पापड़ी चाट? हालांकि उनकी उस बात को संसद का अपमान तक माना गया लेकिन यदि बात को केवल शब्दों तक सीमित न रखते हुए उसके भाव पर जाएं तो ब्रॉयन के सवाल को दरकिनार नहीं किया जा सकता। किसान बिल का विवाद खड़ा ही नहीं होता यदि सदन में उस पर कायदे से बहस करवा ली जाती। लेकिन वे बिल हड़बड़ी में पास हुए और बहुत बड़ी गडबड़ी का कारण बन गए।
इसी तरह ओबीसी की पहचान वाला संशोधन भी देश के सामाजिक ढांचे पर गंभीर असर डालने वाला है। इसके बाद ओबीसी की सूची में शामिल होने के लिए जातिगत समूहों का दबाव लगातार राजनीतिक दलों और सरकारों पर पड़ेगा और संबंधित सूची और लंबी होती चली जाएगी। आरक्षण की मूल कल्पना हमारे यहां उन वर्गों को अन्य वर्गों के समकक्ष लाने के प्रयास के रूप में की गई थी जो सदियों से हमारी सामाजिक व्यवस्था की विसंगतियों और विरोधाभासों के चलते अपने सामान्य मानवाधिकारों तक से वंचित रहे हैं। लेकिन अब यह मसला उस विसंगति को दूर करने का नहीं बल्कि उसे सीढ़ी बनाकर सत्ता हासिल करने का है।
जातियों की पहचान का हक मिल जाने के बाद अब अगला राजनीतिक टारगेट आरक्षण की सीमा बढ़वाने का होगा। और संसद से ही इसकी शुरुआत हो भी चुकी है। 127 वां संविधान संशोधन पारित किए जाने से पूर्व सदन में हुई बहस के दौरान अनेक सांसदों ने दो ही मांगे प्रमुख रूप से रखीं। इनमें से एक थी जातिगत जनगणना की और दूसरी आरक्षण की सीमा बढ़ाने की। सदस्यों का कहना था कि ओबीसी की पहचान भर कर लेने से ही काम नहीं चलने वाला, जब तक आरक्षण की सीमा नहीं बढ़ेगी इस समुदाय के लोगों को उनका वाजिब हक नहीं मिल सकेगा। यानी आने वाले दिनों में ओबीसी में शामिल होने और अपने लिए आरक्षण की सीमा बढ़ावाने वाले दोनों ही तरह के आंदोलन सड़कों पर दिखेंगे। और विडंबना यह होगी कि ऐसे आंदोलनों का लक्ष्य ओबीसी या किसी वंचित समूह को उसका हक दिलाना नहीं बल्कि उनके जरिये सत्ता की राजनीति करना या सत्ता हासिल करना होगा।
कहने को हम आजाद भारत के 75वें वर्ष में प्रवेश कर रहे हैं। परंतु आजादी के इस अमृत महोत्सव वर्ष की पूर्व संध्या पर संसदीय लोकतंत्र के नाते हमारी संसद और विधानसभाओं में होने वाली घटनाएं बताती हैं कि इन 75 सालों में हम संसदीय व्यवहार को लेकर परिवपक्व और प्रौढ़ नहीं हुए हैं बल्कि बचकानेपन की तरफ ही जा रहे हैं। यह विडंबना ही है कि हमारी आजादी तो उम्रदराज हो रही है लेकिन हमारा संसदीय लोकतंत्र शैशव अवस्था की तरफ बढ़ रहा है। बालहठ की तरह ही संसद में अजीब अजीब किस्म की राजहठ या संसदीय हठ देखने को मिल रही है। ऐसी हठ जो हमारे लोकतंत्र को मजबूत तो कतई नहीं कर रही…(मध्यमत)
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