गिरीश उपाध्याय
मध्यप्रदेश की राजनीति में ओबीसी (अन्य पिछड़ा वर्ग) के आरक्षण का मुद्दा एक बार फिर गरमा गया है। इस मुद्दे की आग तो कई सालों से सुलग रही है लेकिन उसमें ज्यादातर लपटें तभी उठती हैं जब इस मुद्दे को लेकर राजनीतिक दलों को कोई चुनावी फायदा नजर आता हो। इस बार भी यही हुआ है। फौरी तौर पर इसे आने वाले समय में प्रदेश में होने वाले विधानसभा के तीन उपचुनावों और केंद्रीय मंत्री थावरचंद गहलोत के इस्तीफे से खाली होने वाली राज्यसभा सीट के उपुचनाव से जोड़कर देखा जा रहा है, लेकिन असलियत में यह 2023 में होने वाले विधानसभा चुनावों की तैयारी से जुड़ा मामला भी है। और यही कारण है कि सत्तारूढ़ भाजपा और मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस इस मुद्दे पर एक दूसरे को राजनीतिक लाभ न लेने देने की रणनीति पर काम कर रहे हैं।
दरअसल यह मुद्दा दो तीन और कारणों से भी उठा। इसमें पहला कारण यह था कि मोदी मंत्रिमंडल के पुनर्गठन को लेकर भाजपा ने यह प्रचारित किया कि उसने इसमें आरक्षित वर्ग और अन्य पिछड़ा वर्ग का खास ध्यान रखा है। मध्यप्रदेश से आने वाले केंद्रीय मंत्रिमंडल के महत्वपूर्ण सदस्य और देश के सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्री थावरचंद गेहलोत को मंत्रिमंडल पुनर्गठन से 24 घंटे पहले कर्नाटक का राज्यपाल बना देने के फैसले से कई लोग चौंके थे। लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मध्यप्रदेश के ही सांसद और पूर्व केंद्रीय मंत्री वीरेंद्र खटीक को मंत्रिमंडल में लेकर और केबिनेट मंत्री के रूप में उन्हें सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय देकर इस आरोप को हवा देने की गुंजाइश खत्म कर दी कि मध्यप्रदेश से एक महत्वपूर्ण विभाग छिन गया है।
दूसरा एंगल राज्य सरकार द्वारा मध्यप्रदेश हाईकोर्ट में दायर एक हलफनामे से जुड़ा है। हाईकोर्ट पिछले करीब दो साल से राज्य में ओबीसी आरक्षण की सीमा बढ़ाए जाने के मामले की सुनवाई कर रहा है। सरकार ने हाल ही में कोर्ट में जो हलफनामा दायर किया उसमें कहा गया है मध्यप्रदेश में ओबीसी की आबादी 50.09 प्रतिशत है। ओबीसी की आबादी के ये जिलेवार आंकड़े आधिकारिक रूप से पहली बार ऑन रिकार्ड सामने लाए गए हैं। जैसे ही इस हलफनामे की बात बाहर आई कांग्रेस को इस मामले को हवा देने का मौका मिल गया।
कांग्रेस इस मामले में क्यों कूदी इसके पीछे भी कारण है। 2018 में कमलनाथ के नेतृत्व में बनी कांग्रेस की सरकार ने 2019 में केबिनेट में एक प्रस्ताव पारित कर राज्य में ओबीसी का आरक्षण 14 फीसदी से बढ़ाकर 27 फीसदी करने का फैसला किया था। बाद में राज्य विधानसभा ने इसे सर्वानुमति से मंजूरी भी दे दी थी। वह मामला आगे बढ़ता उससे पहले ही मध्यप्रदेश लोकसेवा आयोग की परीक्षा में बैठने वाले कुछ छात्रों ने फैसले को हाईकोर्ट में चुनौती दे दी और कोर्ट ने मामले पर स्टे दे दिया। तब से ही मामला न्यायालय के विचाराधीन है। हाईकोर्ट से फैसला कब आएगा और फैसला आने के बाद क्या वह सुप्रीम कोर्ट की दहलीज तक भी जाएगा यह सब भविष्य की बात है। लेकिन फिलहाल प्रदेश के दोनों ही दलों खासकर कांग्रेस को इस मामले पर राजनीति करने का अच्छा अवसर मिल गया है और उसने इसे लपकने में कोई कसर छोड़ी भी नहीं है।
मध्यप्रदेश में नए राज्यपाल मंगूभाई पटेल की नियुक्ति होने के बाद प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष और विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष कमलनाथ हाल ही में उनसे मिलने गए और मुलाकात के बाद राजभवन के बाहर आकर उन्होंने मीडिया से कहा कि मैंने राज्यपाल को अवगत कराया है कि प्रदेश में आरक्षित और कमजोर वर्गों के साथ बहुत अन्याय हो रहा है। इसीके साथ कमलनाथ ने प्रदेश की शिवराज सरकार से ओबीसी को 27 प्रतिशत आरक्षण का मसला जल्दी हल करवाने की मांग करते हुए आरोप लगाया कि सरकार पिछड़े वर्ग को उसके हक से वंचित कर रही है।
कमलनाथ का बयान सामने आते ही राजनीति गरमाई और भाजपा ने पलटवार करते हुए कहा कि कमलनाथ यदि अपनी सरकार के समय इस मामले को ठीक से हैंडल करते और कोर्ट में पुख्ता तरीके से दलील देते तो यह नौबत नहीं आती। भाजपा के इस आरोप का जवाब देते हुए कांग्रेस ने कहा कि अब तो वह सरकार में नहीं है, भाजपा ही कोर्ट में इस मामले पर पूरी ताकत से अपना पक्ष रख दे और ओबीसी को उसका वाजिब हक दिलाए। निश्चित रूप से ताजा हालात में इस मामले में कांग्रेस के बजाय भाजपा पर दबाव ज्यादा है।
ओबीसी का मामला एक और दृष्टि से भाजपा के लिए विचार का विषय है क्योंकि अगले साल उत्तरप्रदेश में विधानसभा के चुनाव होने वाले हैं। मध्यप्रदेश की जो सीमा उत्तरप्रदेश से लगती है वहां ओबीसी की जनसंख्या काफी है। चंबल से लेकर बुंदेलखंड और विंध्य क्षेत्र तक फैली इस पट्टी में 13 जिले मुरैना, भिंड, दतिया, शिवपुरी, अशोक नगर, सागर, छतरपुर, टीकमगढ़, निवाड़ी, पन्ना, सतना, रीवा और सिंगरौली आते हैं। इन जिलों के लोगों का न सिर्फ उत्तरप्रदेश में लगातार आना जाना होता है बल्कि वहां उनके पारिवारिक रिश्ते वाले भी बहुत से लोग हैं। ऐसे में चुनाव के समय इन लोगों की भूमिका अहम हो जाती है और भाजपा नहीं चाहेगी कि उत्तरप्रदेश जैसे राजनीतिक रूप से संवेदनशील और अहम राज्य के चुनाव के वक्त वह ऐसा कोई जोखिम मोल ले जिससे उसे चुनावी खमियाजा उठाना पड़े।
यही कारण है कि मध्यप्रदेश भाजपा ने ओबीसी के मामले में कांग्रेस को कठघरे में खड़ा करते हुए आरोप लगाया है कि उसने इस वर्ग के लिए सिर्फ जबानी जमाखर्च किया है। मैदानी स्तर पर ओबीसी की हालत सुधारने वाला कोई काम नहीं किया। भाजपा अपने तर्क के समर्थन में इस बात को भी बता रही है कि उसके शासनकाल में ओबीसी वर्ग से तीन मुख्यमंत्री हुए। इनमें दो पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल गौर और उमा भारती के अलावा वर्तमान मुख्यमंत्री शिवराजसिंह शामिल हैं। जबकि कांग्रेस के कई दशक के शासनकाल में ओबीसी के किसी व्यक्ति को मुख्यमंत्री बनने का अवसर नहीं मिला।
मध्यप्रदेश की राजनीति से वाकिफ लोग जानते हैं कि एक समय कांग्रेस के राज में सहकारिता क्षेत्र के दिग्गज नेता सुभाष यादव का नाम मुख्यमंत्री पद के लिए बहुत तेजी से चला था लेकिन उन्हें उप मुख्यमंत्री पद से ही संतोष करना पड़ा था। अब हालत यह है कि भाजपा के आरोपों के जवाब में कांग्रेस तर्क दे रही है कि उसने अरुण यादव (सुभाष यादव के बेटे) को प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बनाया। इस पर भाजपा की ओर से कहा जा रहा है कि यदि कमलनाथ को ओबीसी के प्रति इतना ही प्रेम है तो वे खुद जो प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष और नेता प्रतिपक्ष दोनों पदों पर जमे हुए हैं उनमें से एक पद किसी ओबीसी नेता को क्यों नहीं सौंप देते। जाहिर है ओबीसी को लेकर होने वाली यह राजनीति थमने वाली नहीं है, कोर्ट का फैसला आने के बाद भी…(मध्यमत)
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