राकेश अचल
देर-सवेर ही सही लेकिन भाजपा के खिलाफ देश के विपक्षी दलों में एक मंच पर खड़े होकर संघर्ष करने की सुगबुगाहट शुरू हो गयी है। धीरे-धीरे हाशिये पर जा रहे देश के पूर्व कृषि मंत्री और एनसीपी के नेता शरद पवार के घर 8 विपक्षी दलों की पहली औपचारिक बैठक तो हो गयी लेकिन इस बैठक का कोई नतीजा नहीं निकलना था, सो नहीं निकला। भाजपा की आक्रामक राजनीति के सामने टिकने में असुविधा अनुभव करने वाली कांग्रेस समेत अनेक राजनितिक दल एक मंच पर आने के लिए लालायित हैं। कांग्रेस समेत कोई दूसरा राष्ट्रीय या क्षेत्रीय दल भाजपा की बराबरी नहीं कर पा रहा है, ऐसे में विपक्ष के पास विपक्षी एकता ही पहला और आखरी विकल्प है।
विपक्षी एकता की वास्तविकता से सब वाकिफ हैं लेकिन सरकार ने विपक्ष की बैठक के पहले ही अपनी चालें चलना शुरू कर दीं। विपक्ष संख्या बल के आधार सत्ता पक्ष को घेरने की स्थिति में नहीं है, न सड़क पर और न सदन में। इस समय कांग्रेस के साथ एनसीपी महाराष्ट्र में दोस्ती निभा रही है। एनसीपी कांग्रेस की स्वाभाविक सहयोगी है। टीएमसी, माकपा, भाकपा, समाजवादी पार्टी और रालोद की दोस्ती काफी पुरानी है।
सत्तारूढ़ भाजपा का मुकाबला करने के लिए कांग्रेस के अलावा बिहार, उत्तर प्रदेश सहित कुछ राज्यों में क्षेत्रीय दल मौजूद हैं, सबकी अपनी-अपनी ताकत है, किन्तु राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस को छोड़ किसी पार्टी के पास कोई ऐसा नेता नहीं है जो राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा का मुकाबला कर सके। शरद पवार अब महाराष्ट्र और श्रीमती प्रियंका गांधी उत्तर प्रदेश पर केंद्रित होकर रह गई हैं। ममता बनर्जी अपने राज्य तक सीमित हैं। समाजवादी पार्टी भी उत्तर प्रदेश के बाहर जड़ें नहीं जमा पायी। राष्ट्रीय दल के रूप में बसपा की बहन मायावती भी देश में कुछ खास नहीं कर सकीं। आम आदमी पार्टी का भी कमोबेश यही हाल है। एक दशक बाद भी उसकी छवि राष्ट्रीय राजनीतिक दल की नहीं बन पायी। वामपंथी दल राष्ट्रीय राजनीतिक दल की अपनी हैसियत पहले ही गंवा चुके हैं जबकि वे कैडर वाले दल हैं।
भाजपा के अश्वमेघ यज्ञ के सामने खड़े होने के लिए जिस शक्ति की जरूत है वो अभी कहीं दिखाई नहीं देती। कहने को भाजपा के नेतृत्व वाले गठबंधन जैसा गठजोड़ कांग्रेस के पास भी है, लेकिन इसका असर कहीं दिखाई नहीं दे रहा। विपक्षी एकता के लिए सिर्फ नेता ही नहीं अपितु जावेद अख्तर जैसे गीतकार, सेवानिवृत्त हो चुके जज और सेना के अधिकारी भी सक्रिय नजर आये हैं, लेकिन फिलवक्त ये कोशिशें ‘चूं-चूं के मुरब्बे से ज्यादा कुछ नहीं है। हाल ही में बंगाल विधानसभा चुनाव में आये नतीजे विपक्षी एकता के लिए प्रेरित जरूर करते हैं लेकिन इससे विपक्षी एकता की कोई ठोस जमीन नहीं बनती।
दरअसल विपक्षी एकता सत्तापक्ष के बढ़ते आतंक से बचने का एक तरीका भर है। आपातकाल के बाद देश में विपक्ष एकजुट हुआ और कांग्रेस का सफाया हो गया, किन्तु विपक्षी एकता मात्र ढाई साल ही ठहर पायी और कांग्रेस दोबारा सत्ता में लौट आई, और पूरी ताकत से लौटी। कांग्रेस के बढ़ते साम्राज्य से आतंकित भाजपा ने भी विपक्षी एकता का रास्ता चुना। 2014 में दूसरी बार गठबंधन की सरकार बनाई, लेकिन दूसरी बार जब भाजपा की अपनी ताकत में इजाफा हो गया तो उसने सहयोगी दलों को आँखें दिखाना शुरू कर दिया। आज केंद्र में कहने को भाजपा के नेतृत्व वाली गठबंधन की सरकार है लेकिन अपवाद को छोड़ सभी सहयोगी दलों को सत्ता में भागीदार नहीं किया गया, अंतत: यहां भी बिखराव शुरू हुआ और देश के सामने एक विशाल किसान आंदोलन की शक्ल में सामने आया।
मेरी अपनी मान्यता है कि विपक्षी एकता का खाका तभी बन सकता है जब सभी विपक्षी दल अपनी-अपनी स्वतंत्र पहचान बनाये रखने के साथ ही कांग्रेस के नेतृत्व में एक साथ खड़े हों, लेकिन सवाल ये है कि कांग्रेस के पास अभी खुद नेतृत्व का संकट है। विपक्ष में कांग्रेस को छोड़ ऐसा कोई दल या नेता नहीं है जो भाजपा को उखाड़ फेंकने के लिए सभी को एकजुट कर सके। यहां तक की भाजपा को हाल ही में बंगाल में धूल चटा चुकी ममता बनर्जी भी नहीं।
विपक्ष में इस समय जो बड़े नेता हैं वे उम्रदराज हो चुके हैं, स्वास्थ्य की दृष्टि से भी वे इस लायक नहीं हैं कि अपेक्षित श्रम कर सकें। बहरहाल हम बहुत आगे की बात करने लगे हैं। अभी जरूरत है कि विपक्ष एकजुट होने से पहले किसी एक बिंदु पर एकजुट होकर अपनी ताकत का अहसास कराये ताकि जनता में उसके प्रति उम्मीद जाग सके। किसान आंदोलन एक मुदा है, दूसरा मुद्दा बेलगाम मंहगाई और बेरोजगारी है, अराजकता है। ये सभी तमाम मुद्दे ढंग से रेखांकित नहीं हो पाए हैं। विपक्ष को ट्विटर पर जंग छोड़कर मैदान में हाथ बंटाना होगा।
भाजपा रहे या जाये इसका फैसला तो अंतत: जनता को ही करना है लेकिन जनता को भरोसा दिलाने वाला कोई भरोसेमंद चेहरा तो सामने आये! गठबंधन का स्वर्णयुग बीत चुका है। अब सिर्फ उसकी यादें हैं, इन्हीं के सहारे एक बार फिर विपक्ष एकजुट हो सकता है। आने वाले दिन विपक्षी एकता की बुनियाद, शक्ल, सूरत के बारे में संकेत देने लगेंगे। विपक्ष को एकजुट करने के लिए अनेक व्यावसायिक रणनीतिकार भी सक्रिय हैं, विपक्ष को इन्हें दूर रखना चाहिए। ये रणनीतिकार भरोसे के नहीं हैं। मैं जानबूझकर इनका नाम नहीं ले रहा, क्योंकि पब्लिक जब सब कुछ जानती है तो विपक्ष के नेता तो जानते ही होंगे।
विपक्षी एकता के लिए तथाकथित राष्ट्रमंच द्वारा आयोजित इस पहली बैठक में चूंकि कांग्रेस थी ही नहीं इसलिए इस बैठक का कोई महत्व नहीं है। बिना कांग्रेस के विपक्षी एकता की कल्पना करने वाले लोग भोले हैं या मूर्ख। इन लोगों को समझना चाहिए कि मरा हुआ हाथी भी सवा लाख का होता है। कांग्रेस तो अभी अधमरा हाथी है। कांग्रेस की अभी भी अनेक राज्यों में सरकारें हैं हालांकि उसकी आक्रामकता भी सवालों के घेरे में है। 52 साल के राहुल गांधी यदि इस बार भी विपक्ष को एकजुट न कर पाए तो उन्हें 2024 के बाद हिमालय की किसी कंदरा में ध्यानमग्न होना पड़ सकता है। विपक्षी एकता कोई आसान काम नहीं है। इसे हमेशा से ‘केर-बेर का संग’ कहा जाता है।
एनसीपी नेता शरद पवार के साथ विपक्षी पार्टियों के नेताओं की बैठक पर बीजेपी सांसद मीनाक्षी लेखी ने कहा कि इस तरह के घटनाक्रम हर उन नेताओं के द्वारा किए जाते हैं जिनको जनता ने बार बार नकारा है। ये कोई नई बात नहीं है। ये 2014 से पहले भी हुए हैं उसके बाद भी हुए हैं। 2019 के बाद भी हुए हैं। लेखी ने कहा कि आजकल चुनाव पार्टियों के बस का नहीं रहा क्योंकि वे बपौती वाली राजनीति करते हैं। कुछ कंपनियां हैं जो चुनाव लड़ने में मदद करने का काम करती हैं। उनको अपना बिजनेस चलाना है। वे सबको प्रधानमंत्री बनाने का कार्यक्रम चलाएंगे तभी पैसा कमाएंगे, नहीं तो पैसा कैसे कमाएंगे। (मध्यमत)
डिस्क्लेमर- ये लेखक के निजी विचार हैं।
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