राकेश अचल
खाली दिमाग शैतान का घर होता है, ये कहावत मैंने पहले सुनी भर थी, लेकिन अब देख भी ली है। ग्वालियर के लोग ही ये तय नहीं कर पा रहे हैं कि इस शहर के साथ मजाक कब तक किया जाता रहेगा? इस शहर का भविष्य तय करने में लगातार गलतियां की जा रही हैं। ग्वालियर भारत का एक प्रमुख शहर है जो आजादी से पहले भारत की मजबूत रियासत का मुख्यालय रहा है। इसका एक स्वर्णिम इतिहास है और उज्ज्वल भविष्य भी था जिसे चौपट कर दिया गया।
ग्वालियर में पिछले दिनों कुछ सिरफिरों ने इस शहर का नाम बदलने की मांग कर डाली। ग्वालियर का नाम बदलने वाले स्वतंत्रता संग्राम की एक ऐसी नायिका के नाम पर इस शहर का नाम रखवाना चाहते हैं जिसका ग्वालियर में न मायका है और न ससुराल। ग्वालियर उक्त वीरांगना की सिर्फ शहीद स्थली है। ग्वालियर वीरांगना लक्ष्मीबाई के शहीद होने से पहले भी था और उनकी शाहदत के 150 साल बाद भी है और कयामत तक रहेगा। इसे बदलने की कोई जरूरत नहीं है।
ग्वालियर के लोगों को जानना चाहिए कि ग्वालियर का विकास न शकों ने किया, न हूणों ने, मुगलों ने किया न अंग्रेजों ने। ग्वालियर को ग्वालियर बनाया यहाँ के स्थानीय शासकों ने, ग्वालियर के लिए स्वर्णयुग या तो तोमरों का शासनकाल था या सिंधियाओं का शासनकाल। ग्वालियर के पास जो कुछ धरोहर कहने लायक था या है वो इन्हीं दो सल्तनतों की देन है। इससे पहले और इसके बाद ग्वालियर सिर्फ ग्वालियर था। आजादी के चार दशकों तक इस शहर की ओर किसी का कोई ध्यान नहीं गया। आजादी के बाद ग्वालियर केवल और केवल एक सांसद और कुछ विधायक चुनकर देता रहा।
बहुत कड़वी हकीकत है कि इस शहर के विकास का सपना एक स्वर्गीय माधवराव सिंधिया और एक स्वर्गीय शीतला सहाय के अलावा किसी ने देखा ही नहीं। लोगों को बुरा लग सकता है लेकिन ये एक हकीकत है। हमारे सांसद ग्वालियर को नए सिरे से विकसित करना तो दूर उसके पास जो कुछ पहचान लायक था उसे भी महफूज नहीं रख पाए, न कल-कारखाने और न दीगर विरासतें। सब एक-एक कर न सिर्फ बंद हुए बल्कि उनका नामो-निशाँ तक मिट गया। आजादी के बाद ग्वालियर के हिस्से में एक महाराजपुरा वायुसेना क्षेत्र आया जिसके लिए 180 गांवों की बलि दी गयी और दूसरा एक कैंसर अस्पताल बना।
ग्वालियर में मसीहाई करने वाले लोगों ने ग्वालियर को जो दिया वो सब 1984 के बाद दिया और जो लिया सो सब आज भी जारी है। ग्वालियर के चतुर्दिक विकास का खाका न पहले कभी बना और न आज कोई इस बारे में सोच रहा है। माधवराव सिंधिया के शासनकाल में रेल, मानव संसाधन के क्षेत्र में जो हो सकता था सो हुआ। उनके पहले केंद्र सरकार में ग्वालियर का कोई प्रतिनिधि शामिल ही नहीं किया जाता था। सिंधिया के बाद ये मौक़ा नरेंद्र सिंह तोमर को मिला लेकिन वे भी केंद्र से ग्वालियर के लिए जितना लाया जाना चाहिए था नहीं ला पाए। प्रदेश की सरकार से दो विश्वविद्यालय और कुछ कागजी पार्क जरूर उनकी उपलब्धियों में दर्ज हैं। ग्वालियर के आसपास भी जो कुछ हुआ वो सब इसी काल की उपलब्धियां हैं।
सिंधिया और सहाय ने ग्वालियर के विकास का एकांगी सपना देखा लेकिन दुर्भाग्य से वो भी पूरा नहीं हो पाया। नया ग्वालियर नहीं बनना था सो नहीं बना, आज भी इस परियोजना के खण्डहर ग्वालियर को चिढ़ाते हैं। ग्वालियर का विकास करने के लिए चौतरफा सोचा ही नहीं गया, जबकि शहरों के विकास के लिए चारों दिशाओं में एक साथ प्रयास करना पड़ते हैं। ग्वालियर के इर्दगिर्द नग्न पहाड़ थे उनमें से केवल कुछ का इस्तेमाल सही प्रयोजनों के लिए हो पाया, शेष को भूमाफिया निगल गए। ग्वालियर को स्मार्ट सिटी परियोजना का भी कोई लाभ नहीं मिला क्योंकि सारा पैसा पुराने ग्वालियर को ही सजाने-संवारने के नाम पर बर्बाद कर दिया गया।
ग्वालियर के विकास के लिए हमेशा आधा-अधूरा सोचा गया। सरकार ने शहरों के पुनर्घनत्वीकरण की योजना बनाई लेकिन इस योजना पर राजधानी भोपाल में ही सही तरीके से अमल नहीं हो पाया। ग्वालियर में इस योजना के तहत चयनित परियोजनाएं दो दशकों से कागजों में सिमटी हैं और इन पर दोबारा काम करने की भी ऐसी हड़बड़ी है कि हंसी आती है। जो शहर अपने यहां से दो जीवित पौधों को अतीत में विस्थापित नहीं कर सका, वो ही शहर पुनर्घनत्वीकरण योजना के तहत 328 पेड़ स्थानांतरित करने का सपना देख रहा है।
आपने कभी सोचा कि ग्वालियर में एक फूलबाग के बाद कभी दूसरा फूलबाग क्यों नहीं बनाया गया? दूसरा महाराजबाड़ा क्यों नहीं बन पाया? लोहिया बाजार शहर के बाहर क्यों नहीं जा पाया, प्राणी उद्यान को समय के अनुरूप विकसित कर भोपाल के वनबिहार जैसा क्यों नहीं बनाया गया? एक तरणताल के बाद दूसरा तरणताल क्यों नहीं बनाया गया? ग्वालियर के इतिहास का हिस्सा रहे दो स्टेडियम कैसे कंडम कर दिए गए? ग्वालियर के मेला मैदान को कैसे खुर्दबुर्द किया जा रहा है?
ग्वालियर में गोला का मंदिर के पास तीन दशक से ज्यादा समय से एक अस्पताल का खंडहर क्यों चिढ़ाता दिखाई देता है? जेसी मिल और उसी के साथ बंद किये गए एक दर्जन कल-कारखानों के स्थान पर एक भी नया कल कारखाना क्यों नहीं लाया गया? ग्वालियर में एक हजार बिस्तर का अस्पताल आज तक बार-बार के शिलान्यास के बाद भी क्यों नहीं बना? ग्वालियर में एक रोप-वे चार दशकों से क्यों आधर में है? ग्वालियर में नागरिक हवाई अड्डा क्यों नहीं है? ग्वालियर की शहरी परिवहन सेवा दशकों से ठप्प क्यों पड़ी है? ग्वालियर की पहचान रहे स्थापत्य की सुरक्षा क्यों नहीं हो पा रही है? ग्वालियर का हाउसिंग बोर्ड, नगर निगम, विकास प्राधिकरण इंदौर के हाउसिंग बोर्ड, नगर निगम और विकास प्राधिकरण की तरह काम क्यों नहीं कर पा रहे?
ऐसे सैकड़ों सवाल हैं जो ग्वालियर का नाम बदलने या ग्वालियर की मसीहाई का स्वांग करने वालों से पूछे जा सकते हैं, लेकिन सवाल पूछे कौन? जवाब दे कौन? दोनों ही तरफ मौन है? क्योंकि अपने शहर से कोई लगाव जैसे है ही नहीं और अगर है भी, तो आभासी है। आज भी समय है कि ग्वालियर के चतुर्दिक विकास की योजनाएं बनाकर उन पर अमल किया जाये। विकास को राजनीति से अलग रखा जाये। ग्वालियर को जब तक ईस्ट, वेस्ट, साऊथ और नार्थ यानि पूरब, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण दिशाओं में समान रूप से विकसित नहीं किया जाएगा, असली विकास नहीं होगा। और जो होगा वो समस्याएं पैदा करने वाला होगा।
ग्वालियर में मेरी गर्भनाल नहीं है लेकिन बीते पचास साल से ग्वालियर के साथ मेरा जो रिश्ता है वो मुझे विवश करता है कि मैं खरी-खरी यानी करेले से भी ज्यादा कड़वी बातें कहूँ। कुरेदूँ, ताकि कहीं न कहीं कोईं कोई हलचल तो हो। हमारे चैंबर आफ कॉमर्स को नेताओं और अफसरों के जयकारे लगाने के बजाय ग्वालियर के विकास और ग्वालियर के गौरव को अक्षुण्ण रखने की दिशा में निष्ठापूर्वक काम करना चाहिए। तभी कल का ग्वालियर आज और कल के ग्वालियर पर गर्व कर पायेगा। (मध्यमत)
डिस्क्लेमर- ये लेखक के निजी विचार हैं।
—————-
नोट- मध्यमत में प्रकाशित आलेखों का आप उपयोग कर सकते हैं। आग्रह यही है कि प्रकाशन के दौरान लेखक का नाम और अंत में मध्यमत की क्रेडिट लाइन अवश्य दें और प्रकाशित सामग्री की एक प्रति/लिंक हमें [email protected] पर प्रेषित कर दें।– संपादक