राजनीति का खूंटा, विचार है या सुविधा?

राकेश अचल

राजनीति के चरित्र पर विचार करना केवल राजनीति में काम करने वालों की ड्यूटी नहीं है। जनता को भी देश की राजनीति और राजनेताओं के चरित्र पर विचार करते रहना चाहिए। आज के विषाक्त वातावरण में ये बहुत जरूरी हो गया है कि हम तय करें कि आखिर राजनीति का खूंटा विचारधार है या नेताओं की अपनी सुविधा?

पिछले 72 साल में भारतीय राजनीति का चरित्र लगातार बदला है। 1947 में भारतीय राजनीति नैतिकता और विचारधारा के जिस अनमोल लबादे के साथ प्रकट हुई थी वो 2021 आते-आते सुविधा की राजनीति में बदल गयी है। नैतिकता और विचारधाराओं के लबादे सभी ने उतार फेंके हैं। विचारधारा के खूंटे से (अपवादों को छोड़कर) कोई बंधा नहीं रहना चाहता। जो बंधे रहना चाहते हैं उन्हें भी अब अपने-अपने दल में घुटन महसूस होने लगी है। राजनीति में सक्रिय तमाम नेता और खासकर नयी पीढ़ी के नेता सुविधाएं कम या समाप्त होते ही विचारधार का खूंटा तोड़कर भाग निकलते हैं।

विचारधार के खूंटे को तोड़कर भागना राजनीति के व्याकरण में ‘दलबदल’ माना जाता है। कानूनन दल-बदल एक राजनीतिक अपराध है लेकिन क़ानून ने ही इसे अपने ढंग से मान्यता भी दे रखी है। क़ानून के चोर दरवाजे हर राजनेता के लिए खुल जाते हैं। राजनीति में दलबदल यदि कानूनन अपराध है तो नैतिक रूप से इसे घृणित समझा जाता है, दुर्भाग्य ये है कि राजनीति को सींचने वाली जनता विचारधारा का खूंटा तोड़कर भागने वालों का बाल-बांका भी नहीं कर पाती।

हाल के दिनों में राजनीति में विचारधारा और सुविधा का विषय तेजी से उभरा है। नैतिकता की दुहाई देने वाले राष्ट्रीय दल अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए पहले दलबदल कराते हैं और फिर उसका महिमामंडन भी करते हैं। बंगाल विधानसभा चुनाव के ठीक पहले भाजपा ने अपने तमाम दरवाजे-खिड़कियाँ तृणमूल कांग्रेस और कांग्रेस की विचारधारा से जुड़े खूंटातोड़कों के लिए खोल दिए थे, ताकि भाजपा बंगाल विधानसभा पर कब्जा कर सके। लेकिन ऐसा हो नहीं पाया। मुकुल राय सरीखे लोग पांच साल बाद भाजपा पर शोषण का आरोप लगाते हुए वापस तृणमूल कांग्रेस में लौट गए।

विचार का मुद्दा यही है कि राय ब्रांड नेता क्या किसी विचारधारा से सचमुच जुड़े हैं या इस ब्रांड के नेताओं का असली मकसद सुविधा और सत्ता ही होती है? मुकुल राय दलबदलुओं का नया प्रतीक भर हैं। देश में उनके जैसे नेताओं की कमी नहीं है। एक खोजिये हजार मिल जाएंगे। पिछले साल मध्यप्रदेश में जो दल-बदल हुआ वो विचारधारा के खूंटे की कमजोरी का सबसे बड़ा प्रतीक है। कांग्रेस में दो दशक तक हर तरह की सुविधा, सम्मान पाने वाले युवा नेता एक झटके में सुविधाओं और सम्मान में कमी आते ही उस विचारधारा के साथ खड़े हो गए जिसे उन्होंने सारी उम्र गालियां दी थीं।

हाल ही में रायब्रांड कांग्रेस के एक और पूर्व केंद्रीय मंत्री जितेन प्रसाद भी अपनी विचारधार का खूंटा तोड़कर उस पार्टी में शामिल हो गए जिसे वे दो हफ्ते पहले तक पानी पी-पीकर कोसते थे। जितेन प्रसाद हों या ज्योतिरादित्य सिंधिया ये विचारधारा को विरासत में लेकर आये थे। ये कभी संस्कार हासिल करने संघ की शाखाओं में नहीं गए थे। राय ब्रांड नेताओं के लिए विचारधारा किसी ‘टीशर्ट’ से ज्यादा महत्व नहीं रखती। इस ब्रांड के नेताओं को जिस दिन सुविधा और सत्ता का सुख मिलना बंद हो जाएगा उस दिन ये फिर से अपना दंड-कमण्डल उठाकर दूसरे दल के साथ या अपने पुराने दल के सामने करबद्ध मुद्रा में खड़े नजर आएंगे। राय ब्रांड नेता मेरी नजर में नेता नहीं ‘राजनीति उठाईगीर’ हैं।

सवाल ये है कि राय जैसे नेता किस मुंह से अपनी पार्टी छोड़कर दूसरे दल में शामिल हुए, वहां रहे और फिर किस मुंह से अपनी पुरानी पार्टी में लौट आये। राजनीति में इसे ‘घर वापसी’ कहते हैं। कहते हैं कि दल बदलने वाला शाम का भूला था, सुबह होते ही वापस अपने घर लौट आया। दरअसल ये जुमला उस जनता को मूर्ख बनाने के लिए गढ़ा जाता है जो अपना अमूल्य वोट इन रायब्रांड दलबदलुओं को देने के लिए मजबूर की जाती है। कायदे से चुनाव आयोग को ऐसे लोगों को चुनाव लड़ने की अनुमति ही नहीं देना चाहिए। यदि ये दलबदलू सचमुच विचारधारा बदलकर नए दल में आये हैं तो इन्हें ताउम्र नए संगठन में काम करना चाहिए। लेकिन ऐसा होता नहीं है।

ममता बनर्जी भी ये सब नहीं कर सकतीं। आखिर वे भी तो भारतीय राजनीति की उपज है। उनके मूल में भी दलबदल कहीं न कहीं है। वे न कांग्रेसी हैं और न वामपंथी। न दक्षिण पंथी। सत्ता की गणेश परिक्रमा करना राय ब्रांड नेताओं को खूब आता है। जितने बेशर्म ये दलबदलू होते हैं उससे कहीं ज्यादा वे लोग बेशर्म होते हैं जो राजनीतिक दलों के मुखिया हैं, हाईकमान हैं। पता नहीं वे क्या खाकर दलबदल करने वाले के गले में अपनी पार्टी का दुपट्टा डाल देते हैं।

दलबदल की मीमांसा करें तो आप पाएंगे कि दलबदल करने वाला नेता रत्ती भर नहीं बदलता, उसकी विचारधारा भी कतई नहीं बदलती। बदलता है तो सिर्फ गले में पड़ा दुपट्टा। मुश्किल ये है कि हमारी समझदार जनता गले में पड़े दुपट्टों के आधार पर ही अपना वोट देती है। उसे किसी विचारधारा से शायद कोई ख़ास मतलब नहीं होता। जबकि पट्टे-दुपट्टे से आप जानवरों की पहचान कर सकते हैं, इंसानों की नहीं। नेताओं की तो बिलकुल नहीं।

कायदे से जनता का भी अपना राजनीतिक विचार होना चाहिए। उसे डंडा, झंडा और नेता की सूरत देखकर वोट देने की आदत पड़ी हुई है और इसी कमजोरी का फायदा ये घाघ राजनीति वाले उठाते हैं। राजनीति में राष्ट्रवाद की बात करने वाले लोग किसी भी समय अपने धुर विरोधी को अपने कन्धों पर बैठा सकते हैं। कांग्रेसी के लिए भाजपाई अछूत नहीं है, सपाई के लिए बसपाई। छुआछूत की बीमारी तो जनता के बीच है। जनता को इसीलिए राजनीति से कुछ सीखना चाहिए। लेकिन जनता तो बेचारी थी। उसके पास कोई खूंटा नहीं है। बेचारी जनता ज्यादा से ज्यादा तवे पर पड़ी रोटी की तरह किसी पार्टी को पलट सकती है, लेकिन अपना स्वाद बदलने से ज्यादा उसके हाथ में कुछ नहीं है। यानि नागनाथ जाते हैं तो सांपनाथ आ जाते हैं।

दलबदल और मूल्‍यहीनता की राजनीति से निपटने का एकमात्र रास्ता यही है कि जनता दलबदल को स्वीकार करने वाले दल का ही बहिष्कार करे। दल बदलने वाले को तो किसी भी कीमत पर स्वीकार करे ही न। ऐसा इसलिए जरूरी है क्योंकि देश में दलबदल रोकने के लिए बनाये गए तमाम क़ानून बेअसर साबित हुए हैं। क़ानून बनाकर न दलबदल रोकने की किसी की नीयत है और न ऐसा हो सकता है। सो दलबदलुओं को सजा सीधे जनता दे। रायब्रांड नेताओं को किसी भी सूरत में, किसी भी कीमत पर चुनने की जरूरत नहीं है।

देश का दुर्भाग्य ये है कि कोई भी इस मुद्दे पर ‘मन की बात’ नहीं करता। कर भी नहीं सकता, क्योंकि मन की बात करने वाले लोग ही इस महापाप में सहभागी हैं। उन्होंने कभी सार्वजनिक रूप से नहीं कहा कि वे दलबदल को मान्यता नहीं देते। किसी ने कभी नहीं कहा कि दलबदल राजनीतिक वैश्यावृत्ति है। कोई कहे तो कैसे कहे? राजनीति में जब विचारों के लिए स्थान ही नहीं बचा है तो सुविधा और सत्ता ही सबसे बड़ी चीज हो गयी न! आओ! जागो!! वरना ये देश नर्क हो जाएगा। (मध्‍यमत)
डिस्‍क्‍लेमर- ये लेखक के निजी विचार हैं।
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