राकेश अचल
मैं दुनिया के किसी भी हिस्से में रहूँ मुझे अपने शहर की फ़िक्र बराबर रहती है, क्योंकि मेरे शहर का एक शानदार अतीत है, बेहतरीन भविष्य भी था, लेकिन उसे धीरे-धीरे चौपट कर दिया गया। ये सिलसिला पिछले अनेक दशकों से मुसलसल जारी है। अब इस ऐतिहासिक शहर में स्मार्ट सिटी परियोजना वाले चौपाटी को नया रूप देने के नाम पर डेढ़ करोड़ रूपये मिट्टी में मिलाने जा रहे हैं और कोई इसे रोकने वाला नहीं है।
यह बात कहने-सुनने में अटपटी लग सकती है कि जबसे विकास कार्यों का काम नौकरशाहों के हाथ में आया है तब से विकास कार्यों के नाम पर जन-धन की बर्बादी का अजीब सा सिलसिला चल पड़ा है। दुर्भाग्य ये है कि इस लूट-खसोट में जन प्रतिनिधि भी शामिल हैं। ग्वालियर में बीते तीन साल में स्मार्ट सिटी परियोजना के नाम पर जितने भी प्रोजेक्ट हाथ में लिए गए उनमें जन-धन तो पानी की तरह बहाया गया लेकिन इन परियोजनाओं का लाभ न शहर को मिला और न शहर की जनता को।
स्मार्ट सिटी परियोजना के तहत 1.52 करोड़ की लागत से जिस चौपाटी को नया स्वरूप दिया जाना है वो पहले से एक वैकल्पिक व्यवस्था के तहत नियम विरुद्ध अस्थायी तौर पर बनाई गयी थी। वर्षों पहले नगर निगम के एक आयुक्त डॉ. कोमल सिंह ने फूलबाग मैदान में ये चौपाटी बनाई थी। उनके उत्तराधिकारियों ने इस चौपाटी को बाद में चौपट कर संग्रहालय के पास नाले के किनारे स्थानांतरित कर दिया। यहां भी कोई एक दशक से ये चौपाटी उसी अस्थायी व्यवस्था के तहत चल रही है जैसे कि विक्टोरिया मार्केट। विक्टोरिया मार्केट मूलत: महाराज बाड़ा पर था, लेकिन डेढ़ दशक पहले हुए एक अग्निकांड के बाद उसे फूलबाग परिसर के मौजूदा हिस्से में स्थानांतरित कर दिया।
स्मार्ट सिटी परियोजना की मुख्य कार्यपालन अधिकारी श्रीमती जयति सिंह की स्मार्टनेस पर किसी को कोई संदेह नहीं है। वे भी अपने पूर्व के अधिकारियों द्वारा लहरें गिनकर कमाई करने के रास्ते पर चल रही हैं। चौपाटी को नया स्वरूप देने की योजना बनाते समय किसी ने शायद उन्हें नहीं बतया कि मौजूदा चौपाटी जिस जगह है वो जगह ‘ग्रीनबेल्ट’ है और वहां कोई स्थायी निर्माण नहीं हो सकता। यदि हो सकता तो सबसे पहले यहां नगर निगम का वो प्रशासनिक कार्यालय बनता जो अब कैप्टन रूपसिंह स्टेडियम के पास बना हुआ है। यदि कुछ बन सकता तो विक्टोरिया मार्केट बनता, यदि कुछ बन सकता तो एक सहकारिता भवन बनता, लेकिन कुछ नहीं बना।
जयति सिंह की ही तरह एक स्वप्न देखने वाले प्रशासनिक अधिकारी ने ‘ग्रीनबेल्ट’ की अनदेखी कर वहां जिला पंचायत के मद से एक ग्रामीण हाट-बाजार बना दिया, अपनी जेबें भरीं और चलते बने, ये हाट-बाजार आज तक वीरान पड़ा है, यहां जबरन हाटें लगती हैं लेकिन कोई कामयाब नहीं होती। इसी परिसर में बारादरी के जीर्णोद्धार के नाम पर मोटी रकम बर्बाद की गयी लेकिन वहां भी कोई हाट-बाजार कामयाब नहीं हो सका। यहाँ के रंग शिविर की स्मृति में बनी एक मूर्ति के लिए नेतागीरी करने वाले आजतक वहां नयी मूर्ति नहीं बनवा सके।
चौपाटी को बनाने के लिए वर्कआर्डर जारी किये जाने के बाद दो माह में बनाये जाने की योजना इसलिए है ताकि काम फटाफट पूरा हो और जो बंदरबांट होना है वो आनन-फानन में हो जाये ताकि बाद में कोई कुछ कर ही न पाए। शहर को स्मार्ट बनाने के लिए एक रोप-वे की जरूरत है लेकिन स्मार्ट सिटी परियोजना इसमें नगर निगम के साथ खड़ी नहीं हो सकती। स्मार्ट सिटी परियोजना के तहत बैजाताल के सौंदर्यीकरण पर मोटी रकम खर्च कर दी जाती है लेकिन बैजाताल आज भी सुंदर नहीं हो पाया। बैजाताल के निकट केंद्र की मदद से बनाये गए एक मूर्तिकला के वर्कशाप को तोड़-ताड़ कर वहां कॉफी हाउस बनाने की योजना पर भी बहुत रुपया खर्च हुआ लेकिन कॉफी शॉप नहीं बन पाई।
आपको बता दें कि इसी ग्रीन बेल्ट में गुरुद्वारा परिसर को दी गयी जमीन पर एक दर्जन से अधिक दुकानों पर अवैध रूप से एक चाट मार्केट पहले से मौजूद है। ये दुकाने कैसे बनीं, और इन्हें किन शर्तों पर दिया जाना था इसकी एक अलग कहानी है। कहने का मतलब ग्वालियर को फिलहाल किसी चौपाटी की जरूरत है ही नहीं। खासतौर पर ग्रीन बेल्ट में तो बिलकुल नहीं क्योंकि पूरे शहर में केवल यही एक जगह है जहाँ थोड़ी बहुत हरियाली बची है।
नगर को स्मार्ट बनाने के लिए जितनी भी योजनाएं हाथ में ली गयीं हैं उनमें कोई बाधा इसलिए नहीं खड़ी हुई क्योंकि उन्हें स्थानीय भाग्यविधाताओं का पूरा आशीर्वाद प्राप्त है। संचालक मंडल देखने के लिए है। संचालक मंडल के सदस्यों की आव-भगत करने भर से हर बाधा दूर की जा सकती है। राज्य सभा सदस्य ज्योतिरादित्य सिंधिया से लेकर मुख्यमंत्री तक स्मार्ट सिटी परियोजना की छद्म योजनाओं से खुश हैं, फिर कोई महापौर, कोई विधायक, कोई मंत्री इसमें कैसे बाधा डाल सकता है? स्मार्ट सिटी परियोजना के बजट से स्थानीय विघ्नसंतोषी नेताओं को कैसे खुश किया जा सकता है, इसका रास्ता यहां के पूर्व सीईओ पहले से खोल गए हैं। आम बोलचाल की भाषा में कहूँ तो स्मार्ट सिटी परियोजना अफसरों से लेकर नेताओं तक के लिए कामधेनु गाय है। जो चाहे इसे, जब चाहे दुह सकता है।
ग्वालियर शहर को स्मार्ट सिटी परियोजना में दूसरे चरण में तमाम नेतागीरी के बाद शामिल किया जा सका था। उम्मीद थी कि इस परियोजना में शामिल होने के बाद ग्वालियर थोड़ा-बहुत स्मार्ट तो होगा लेकिन कुछ हुआ नहीं। स्मार्ट सिटी द्वारा हाथ में ली गयी तमाम परियोजनाएं या तो कागजों में सीमित रह गयीं, या आधी-अधूरी पड़ीं है या फिर उन्हें जैसे-तैसे पूरा कर दिया गया है। लेकिन उनका रत्ती भर लाभ शहर की जनता को नहीं मिला है। शहर में रंग-बिरंगी लाइटें लगाने, बिना जरूरत बस स्टापेज बनाने, स्मार्ट साइन बोर्ड लगाने जैसे अद्भुत काम किये गए लेकिन अधिकांश का मकसद कमीशन वसूल कर बजट ठिकाने लगाना था। न शहर में पर्यावरण सुधार के लिए शुरू की गयी साइकलें नजर आ रही हैं और न इलेक्ट्रानिक सूचना पट अपना काम कर पा रहे हैं।
शहर में वर्षों पहले एक मछलीघर (एक्वेरियम) बनाया गया, उसका आज तक कोई अतापता नहीं है। रोप-वे का सपना तो अब चालीस साल का हो चुका है। शहर का प्राणी उद्यान विस्तार तीन दशक से फ़ाइल-फ़ाइल खेल रहा है। लेकिन किसी को कोई फ़िक्र नहीं। फ़िक्र है तो कैसे परियोजना का बजट साफ़ हो। उपनगर मुरार और ग्वालियर को नए फूलबाग चाहिए लेकिन आजतक किसी ने इस बारे में सोचा तक नहीं, जबकि इन दोनों इलाकों में एक छोड़ दो-दो नए सिटी सेंटर बन चुके हैं।
ग्वालियर शहर में कांग्रेस के दो विधायक है लेकिन बेचारों की कोई सुनता नहीं। कायदे से यदि स्मार्ट सिटी परियोजना के कामकाज का लोकलेखा परीक्षण करा लिया जाए तो सारी हकीकत सामने आ सकती है। मुझे उम्मीद है कि स्मार्ट सिटी परियोजना की अनुभवी और ईमानदार मुख्य कार्यपालन अधिकारी अब तक हुई गलतियों को सुधारने के साथ ही चौपाटी के नाम पर होने वाले खेल को भी तत्काल रोकेंगी। बाकी ‘समरथ को नहीं दोष गुसाईं’ तो है ही। (मध्यमत)
डिस्क्लेमर- ये लेखक के निजी विचार हैं।
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