गिरीश उपाध्याय
छत्तीसगढ़ के बस्तर इलाके में बीजापुर क्षेत्र में शनिवार को हुई सीआरपीएफ के 22 जवानों की शहादत के बाद नक्सली/माओवादी हिंसा में मारे जाने वाले सुरक्षा बलों का मुद्दा एक बार फिर गरमाया हुआ है। देश भर में इस घटना की निंदा हुई है और गृह मंत्री अमित शाह ने मौके पर पहुंच कर दिवंगत जवानों को श्रद्धांजलि अर्पित की है। इसके साथ ही एक बार फिर वैसे ही बयान सामने आ रहे हैं जो इससे पहले हुई दर्जनों घटनाओं में सुरक्षा बलों और पुलिस के जवानों के मारे जाने के बाद आते रहे हैं। जैसे- जवानों का बलिदान व्यर्थ नहीं जाएगा, नक्सलियों पर सख्त कार्रवाई की जाएगी, इस बार उनकी कमर तोड़ दी जाएगी वगैरह…
लेकिन जरा अतीत पर नजर घुमाएं तो नवंबर 2000 में मध्यप्रदेश से छत्तीसगढ़ के अलग होने के बाद अकेले बस्तर इलाके में 2007 से अब तक, इस तरह के हमलों की दस बड़ी घटनाएं हो चुकी हैं जिनमें सुरक्षा बलों और पुलिस को मिलाकर कुल 275 जवानों की शहादत देनी पड़ी है। नागरिकों के मारे जाने का आंकड़ा तो अलग ही है। यह कोई छोटा मोटा आंकड़ा नहीं है। जब जब भी ऐसी घटनाएं होती हैं, शहीद जवानों के पार्थिक शरीर पर पुष्प अर्पित करते हुए और विलाप करतीं उनके परिवार की महिलाओं को सांत्वना देते फोटो के साथ ये बयान छप जाते हैं कि सरकार सख्त कार्रवाई करेगी और जवानों का बलिदान व्यर्थ नहीं जाएगा। लेकिन असलियत में यह वादा हर बार व्यर्थ ही जाता है और ऐसी किसी अगली घटना के होने का इंतजार होता रहता है।
सवाल यह उठता है कि आखिर करीब चार दशक पुरानी हो चली इस समस्या का अभी तक कोई हल क्यों नहीं निकल पाया है। हर बार हमारे सुरक्षा बल आखिर क्यों अपने जवानों की बारूद से छलनी लाशें देखने को और हर बार सरकारें कड़ी कार्रवाई करने जैसे खोखले बयान देने को मजबूर हैं। दरअसल इसके पीछे प्रमुख रूप से दो कारण हैं। एक कारण सुरक्षा बलों से जुड़ा है तो दूसरा राजनीतिक दलों से। और दोनों ही मोर्चों पर करीब करीब एक जैसी ही स्थिति है।
जहां तक सुरक्षा बलों का सवाल है, सीआरपीएफ के पूर्व महानिदेशक एन.के. त्रिपाठी कहते हैं कि चाहे सुरक्षा बल हों या फिर पुलिस, उनके हर ऑपरेशन में सूचना तंत्र की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। और अब तक की घटनाएं बताती हैं कि सुरक्षा बलों का सूचना तंत्र हर बार या तो कमजोर साबित हुआ है या फिर उसे बहुत धुंधली सी सूचनाएं मिलती रही हैं जिनके आधार पर कार्रवाई करने का खमियाजा उन्हें भुगतना पड़ा है।
वे कहते हैं कि- दरअसल बस्तर जैसे इलाके में पुख्ता सूचना तंत्र तैयार करना आसान भी नहीं है। स्थानीय लोगों में यह विश्वास अभी तक पैदा नहीं किया जा सका है कि यदि पुलिस या सुरक्षा बलों को सूचना देने पर नक्सली/माओवादी बदले की कार्रवाई करते हैं तो सूचना देने वालों को पूरी सुरक्षा मिलेगी। ऐसी अनेक घटनाएं हुई हैं जिनमें माओवादियों ने जरा सा भी शक होने पर मुखबिरों का सीधे गला रेत दिया है। ऐसे मामलों में उनके यहां कोई सुनवाई नहीं होती, वे सिर्फ शक के आधार पर सीधे मौत दे देते हैं और इसका शिकार कई निर्दोष लोग भी हुए हैं। आदिवासियों में माओवादियों का यह डर बैठा हुआ है।
मुख्य समस्या ये है कि हिंसा पर उतारू माओवादियों से किस तरह निपटा जाए इसकी कोई ठीक-ठीक और पुख्ता रणनीति न तो राज्य सरकारों के पास है और न केंद्र सरकार के पास। जब कोई घटना हो जाती है तो उसके बाद दो चार दिन तक बयानबाजी होती रहती है फिर सबकुछ वैसा ही चलने लगता है। कार्रवाई में निरंतरता का अभाव होने से माओवादी अगले घात की तैयारी आसानी से कर लेते हैं। राजनीतिक नेतृत्व कई बार आपसी वाद-विवाद या टकराव में लगे रहे हैं। उस समय तो और ज्यादा परेशानी होती है जब केंद्र व राज्य में अलग अलग दलों की सरकारें हों।
एक बात और ध्यान देने की है कि बस्तर इलाके में अब जो हो रहा है उसका विचार या विचारधारा से कोई बहुत ज्यादा लेना देना नहीं है। एक समय वहां ये गतिविधियां आदिवासियों के शोषण के खिलाफ नक्सलवादी आंदोलन के नाम से शुरू हुई थीं, बाद में ये माओवादी गतिविधियां हो गईं लेकिन अब ज्यादातर मामलों में ऐसे दलों/गिरोहों के पीछे किसी विचार की मौजूदगी नहीं है। एन.के. त्रिपाठी कहते हैं कि बस्तर क्षेत्र में विकास की गतिविधियों के चलते अब ऐसे ज्यादातर दलम वसूली गिरोहों में तब्दील हो गए हैं। सड़क, वन, संचार आदि गतिविधियों के ठेकेदारों से लेकर उस इलाके से गुजरने वाले ट्रक ड्रायवरों तक से वे वसूली करते हैं। इलाके में काम करने वाले लोग अपनी सुरक्षा और काम को अंजाम देने के नाम पर इन्हें पैसा देते हैं।
वसूली से मिलने वाली यह रकम अच्छी खासी होती है और इसीके बूते ये गिरोह खुद को मजबूत करते हैं और अत्याधुनिक हथियार से लैस होते जाते हैं। खबरें तो यहां तक हैं कि सीआरपीएफ पर हुए ताजा हमले में हमलावर राकेट लांचर तक से लैस थे। एक मृतक महिला माओवादी के पास से इन्सास जैसी अत्याधुनिक रायफल मिली है। इसके अलावा माओवादियों का सूचना तंत्र बहुत ही पुख्ता है। इसके चलते एक तो पुलिस व सुरक्षा बलों तक सही सूचनाएं नहीं पहुंच पातीं, दूसरे ये हमलावर गिरोह अपने खिलाफ होने वाली कार्रवाई को लेकर सुरक्षा बलों को आसानी से गुमराह भी कर देते हैं।
ताजा हमले में यही बात सामने आ रही है कि हमलावरों ने सुरक्षा बलों को यू के आकार में तीन तरफ से घेर लिया था। हमला करके नुकसान पहुंचाने के लिहाज से वे अपेक्षाकृत ज्यादा सुरक्षित पोजीशन पर थे। यही कारण रहा कि सुरक्षा बलों के इतने लोग मारे गए। हालांकि माओवादियों के खिलाफ कार्रवाई करने गए दल में भी जवानों की संख्या 400 के आसपास बताई जा रही है। इनमें सीआरपीएफ की कोबरा बटालियन के अलावा स्थानीय एसटीएफ और पुलिस के जवान भी थे। ऐसा नहीं है कि सुरक्षा बलों ने मोर्चा नहीं लिया। जो सूचनाएं हैं उनके मुताबिक दोनों पक्षों के बीच करीब 4 घंटे तक गोलीबारी हुई है और नक्सलियों को वहां से भागना पड़ा है। उनकी ओर से भी अच्छी खासी जनहानि की खबर है।
एक राष्ट्रीय अंग्रेजी दैनिक से जुड़े स्थानीय वरिष्ठ पत्रकार कहते हैं कि मार्च से लेकर मई तक का समय माओवादियों के लिए बहुत मुफीद रहता है। पतझड़ के मौसम के कारण जंगल में होने वाली किसी भी गतिविधि को दूर तक देखना उनके लिए आसान होता है। उन्हें जंगल के चप्पे चप्पे की जानकारी भी अधिक होती है। अब तक ऐसी जितनी भी बड़ी घटनाएं हुई हैं वे इन्हीं तीन महीनों में ही हुई हैं। जब भी कोई सख्त कार्रवाई की बात होती है राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव बुरी तरह आड़े आ जाता है। सुरक्षा बलों से कार्रवाई की अपेक्षा तो होती है लेकिन उन्हें उस तरह से कार्रवाई की इजाजत नहीं मिल पाती। इसका प्रमुख कारण वोट की राजनीति है।
मध्यप्रदेश की तरह छत्तीसगढ़ में भी मोटे तौर पर दो ही प्रमुख राजनीतिक दल हैं। भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस। राजनीतिक दल ऐसी किसी भी कार्रवाई के दौरान होने वाले ‘कोलेटरल डैमेज’ से डरते हैं। चाहे कोबरा बटालियन हो या स्थानीय लोगों को लेकर बनाए गए डिस्ट्रिक्ट रिजर्व ग्रुप (डीआरजी) अथवा बस्तरिया बटालियन। इनमें स्थानीय आदिवासी ही रहते हैं। दूसरी तरफ माओवादी भी हैं तो स्थानीय आदिवासी ही। ऐसे में एनकाउंटर की स्थिति में चाहे किसी भी पक्ष की ओर से जनहानि हो, मरने वाले स्थानीय आदिवासी ही होते हैं और उनकी मौत पर चाहे कोई भी दल हो, उसे भारी राजनीतिक कीमत चुकानी पड़ती है। इसलिए सख्त कार्रवाई की बात जरूर होती है पर ऐसी कार्रवाई पूरे प्रभावी ढंग से हो नहीं पाती।
एक और मुद्दा ऐसे हादसों को लेकर पनपने वाले गुस्से या भावनाओं के उबाल का है। देखा जाए तो वे भी सीआरपीएफ के ही जवान थे जो पुलवामा में मारे गए थे और जो कई सालों से बड़ी संख्या में बस्तर में मारे जा रहे हैं वे भी सीआरपीएफ के ही जवान हैं। लेकिन पुलवामा में जवानों के मरने पर सर्जिकल स्ट्राइक जैसा कदम उठा लिया जाता है पर बस्तर में ऐसी मौत पर उस स्तर की प्रतिक्रिया नहीं होती क्योंकि मामला अपने ही नागरिकों से जुड़ा है और शायद वोट से भी।
(मध्यमत)
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