गिरीश उपाध्याय
इन दिनों संसदीय लोकतंत्र की प्रतिनिधि संस्थाओं, संसद और विधानसभाओं में जिस तरह के दृश्य और जिस तरह की घटनाएं देखने को मिल रही हैं वे इन संस्थाओं की गरिमा को नष्ट करने वाली तो हैं ही, साथ ही यह सवाल भी उठाती हैं कि क्या ये संस्थाएं अपना औचित्य भी खो रही हैं। संसदीय सदन संवाद और विमर्श का केंद्र बनने के बजाय जिस तरह से सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच बहुमत और अल्पमत के शक्ति परीक्षण का अखाड़ा बनकर रह गए हैं उससे यह सवाल और भी गहरा होता है कि सड़क पर होने वाला राजनीतिक संघर्ष यदि संसद या विधानसभाओं में भी उसी रूप में दिखाई देने लगेगा तो फिर संवाद और विमर्श किस मंच पर होगा। और उससे भी बड़ी बात ये कि क्या अब हमारे संसदीय लोकतंत्र में संवाद और विमर्श के लिए कोई जगह नहीं बची है?
सबसे ताजा उदाहरण बिहार विधानसभा में हुए घटनाक्रम का है। दरअसल 23 मार्च को बिहार में मुख्य विपक्षी दल आरजेडी ने बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, कानून व्यवस्था के बिगड़ते हालात आदि को लेकर विधानसभा घेराव का नारा दिया था। प्रतिपक्ष के नेता तेजस्वी यादव और उनके भाई तेजप्रताप यादव ने सैकड़ों कार्यकर्ताओ के साथ इस मार्च का नेतृत्व किया। पुलिस बेरिकेट तोड़कर आगे निकलने की कोशिश में आरजेडी कार्यकर्ताओं और पुलिस के बीच जमकर झड़प हुई। दोनों तरफ से बलप्रयोग में कई लोग घायल हो गए।
इस घटना से उपजा आक्रोश थोड़ी देर बाद विधानसभा के भीतर पहुंच गया जहां नीतीश कुमार सरकार ‘बिहार विशेष सशस्त्र पुलिस विधेयक 2021’ पारित कराने लाई। विपक्षी दल आरजेडी ने इसे अलोकतांत्रिक और जनता की आवाज दबाने वाला बिल बताते हुए इसका विरोध किया और विरोध करते हुए आरजेड़ी के विधायक संसदीय संयम की सीमा लांघ गए। उन्होंने अध्यक्ष की आसंदी की अवमानना से लेकर विधानसभा सचिव की टेबल और रिपोर्टिंग डेस्क पर तोड़फोड़ की। उन्होंने विधानसभा अध्यक्ष को उनके कमरे से नहीं निकलने दिया। जब मार्शल्स से भी मामला नहीं संभला तो सदन में पुलिस और रैपिड एक्शन फोर्स के लोगों ने मोर्चा संभाला और विपक्ष के विधायकों को बलपूर्वक सदन से बाहर कर दिया। इस दौरान कई विधायकों को घसीटने और उनकी पिटाई करने की घटना भी हुई, और इसका शिकार होने वालों में महिला विधायक भी थीं।
बिहार विधानसभा में विधायकों की पिटाई और उन्हें घसीटकर बाहर निकाले जाने के दृश्य पूरे देश ने देखे हैं इसलिए उन पर ज्यादा विस्तार से बात करने के बजाय मैं उस घटना पर बात करना चाहूंगा जो उसके बाद हुई। जब सदन के भीतर पुलिस के आने और विधायकों को जबरन बाहर निकालने की घटना की पूरे देश में निंदा हुई तो अगले दिन बिहार विधानसभा अध्यक्ष की ओर से बयान आया कि उन्होंने इस मामले में गृह विभाग और पुलिस के आला अफसरों से पूरी रिपोर्ट मांगी है। जो भी दोषी होगा उस पर कार्रवाई की जाएगी।
यहां एक बात ध्यान में रखनी होगी कि विधानसभा परिसर में अध्यक्ष की सत्ता सर्वोच्च होती है। उनकी मर्जी के बिना परिसर में किसी भी तरह का कोई बाहरी हस्तक्षेप नहीं हो सकता। हमारे यहां तो महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों तक में पुलिस को बिना प्राचार्य या कुलपति की अनुमति के दाखिल होने की इजाजत नहीं है, फिर यह तो विधानसभा का मामला था। जाहिर है पुलिस विधानसभा अध्यक्ष के बुलाने या उनकी ओर से दी गई अनुमति के बाद ही दाखिल हुई होगी। तो क्या अध्यक्ष को स्वयं सदन में पुलिस बुलाने से पहले नहीं सोचना चाहिए था। एक बार जब आप किसी मामले में पुलिस को बीच में ले आते हैं तो फिर वह अपने हिसाब से ही कार्रवाई करती है। क्या सत्ता पक्ष या अध्यक्ष को यह मालूम नहीं था कि पुलिस आएगी तो वह क्या करेगी? दरअसल पुलिस को बुलाया ही इसलिए गया था कि वह हंगामा कर रहे विपक्षी विधायकों को सबक सिखाए।
और यदि पुलिस को अध्यक्ष ने नहीं बुलाया या कि उनकी ओर से पुलिस को किसी तरह का कोई संदेश नहीं भेजा गया तो यह उससे भी ज्यादा गंभीर मामला है। वैसी स्थिति में सवाल उठता है कि फिर पुलिस और रेपिड एक्शन फोर्स किसके कहने पर सदन के भीतर दाखिल हुए? आमतौर पर सड़क पर होने वाले साधारण जन आंदोलनों में भी पुलिस एकदम से बल का उपयोग नहीं करती। फिर यह तो विधानसभा के भीतर विधायकों से जुड़ा मामला था। उस दिन के जो दृश्य सोशल मीडिया पर वायरल हुए हैं वे साफ बता रहे हैं कि पुलिस को स्पष्ट निर्देश रहे होंगे कि उसे क्या करना है।
बिहार विधानसभा में जो हुआ वह अपने तरह का बिरला मामला है। मुझे याद नहीं पड़ता कि किसी भी संसदीय सदन में पुलिस ओर रैपिड एक्शन फोर्स के जवानों ने घुसकर इस तरह विधायकों को ठोकपीट कर सदन से बाहर फेंका हो। सदन के बाहर सड़क पर तो पुलिस का राजनीतिक इस्तेमाल होता आया है, लेकिन सदन के भीतर इस तरह विपक्ष को सबक सिखाने के लिए पुलिस के इस्तेमाल की यह अभूतपूर्व घटना है। इस घटना ने पूरे देश के संसदीय और विधायी सदनों में विपक्ष से निपटने के नए तरीके के दरवाजे खोल दिए हैं।
एक बात और… विपक्ष ने उस दिन सदन में जिस बिल का विरोध किया वह बिल बिहार विशेष सशस्त्र पुलिस को कई विशेष अधिकार देने वाला है। विपक्ष के अनुसार इनमें ऐसा अधिकार भी शामिल है जिसमें पुलिस बिना अदालती वारंट के सिर्फ़ शंका के आधार पर किसी को भी गिरफ़्तार करके जेल में डाल सकती है। पुलिस को इतना अधिकार संपन्न बनाने के परिणामों पर बहुत गंभीरता से सोचा जाना चाहिए। माना कि अपराध से निपटने और कानून व्यवस्था कायम करने के लिए पुलिस जरूरी है, लेकिन उसकी भूमिका को संसद और विधानसभा के भीतर तक ले आना, एक ऐसी आग को न्योता देना है जो पता नहीं क्या क्या जलाकर राख कर देगी। (मध्यमत)
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