कमलेश पारे
हाल ही में भोपाल में एक डाक्टर से कुछ लोगों द्वारा की गई बदतमीजी पर कई डॉक्टरों ने मन ही मन यह जरूर सोचा होगा कि- “हे भगवान हमें अगले जनम में डॉक्टर मत बनाना।”
यही नहीं कई पिताओं ने भी यह तय कर लिया होगा कि अपने बच्चे को कुछ भी बना दूंगा, पर डॉक्टर तो नहीं बनाऊंगा।
इस देश में एक हजार लोगों पर भी पूरा पूरा एक डॉक्टर नहीं है। जबकि सारी दुनिया में यह अनुपात हम से दुगना है।
इसलिए हमारे यहां एक सामान्य डॉक्टर को हफ्ते में सौ घंटे काम करना पड़ता है,जबकि किसी भी और पेशेवर को लगभग 50 से 60 घंटे ही काम करना पड़ता है।
डॉक्टर और वकील की फीस में गिरी-पड़ी हालत में 25 से 50 गुना का अंतर होता है। लेकिन उस पर कभी बात नहीं होती। वकील यदि आपका मुकदमा हार जाए, तो आप की हिम्मत नहीं होती कि आप उसे कुछ कह दें। न्यायमूर्ति यदि न्याय देने में चूक भी कर दें, तो आप उनसे कुछ नहीं कह सकते। सॉफ्टवेयर इंजीनियर यदि गलत ‘ऐप’ भी बना दे तो उसकी हत्या नहीं हो जाती।
बाकी सब तो ठीक है समाज में डॉक्टरों की इज्जत का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि मध्य प्रदेश में एक स्वास्थ्य मंत्री भी हैं, जो भोपाल के गांधी मेडिकल कॉलेज के स्नातक डाक्टर हैं। लेकिन, ‘कोरोना’ से लड़ाई में उनकी भागीदारी शून्य के आसपास है। नेताओं, मजदूरों, विद्यार्थियों और सरकारी कर्मचारियों आदि इत्यादि की अपनी “न्यूसेंस वैल्यू” होती है, इसलिए उनसे व्यवस्था डर कर चलती है। डॉक्टरों की कोई न्यूसेंस वैल्यू नहीं होती इसलिए उनसे कोई नहीं डरता।
पांच सितारा होटल में ₹50 की एक रोटी खाने वाला भी अस्पताल के बिल में डिस्काउंट चाहता है। दवायें सस्ती चाहता है। डॉक्टर की फीस माफ कराना चाहता है। अस्पताल के कमरे में कम दाम में पांच सितारा सेवाएं भी चाहता है। कोई डाक्टर कैसे बनता है या दवा बनने की प्रक्रिया किसी को नहीं मालूम। मेरी ये बातें समुद्री ‘आइस बर्ग’ की ‘टिप’ मात्र हैं। अंदर बहुत बड़े-बड़े दर्द छुपे हुए हैं। यदि वे बाहर निकल गए तो समाज को बहुत नुकसान होगा।
सरकारें यदि कोई आंकड़ा रखती होंगी, तो उन्हें मालूम होगा कि भारत से प्रतिवर्ष कितने प्रशिक्षित और विशेषज्ञ डॉक्टर विदेश जाते हैं और वहीं बस भी जाते हैं। उन्हें भी मातृभूमि की सेवा की इच्छा होती है, लेकिन कल जैसी घटनाएं,जो देश में कहीं न कहीं रोज ही हो जाती हैं, देखकर मातृभूमि से प्रेम करने वाला, विदेश में जा बसा डॉक्टर डरकर वापस नहीं आना चाहता। एक बार फिर जान लें कि कोरोना की यह दूसरी भयावह लहर सिर्फ और सिर्फ समाज की लापरवाही और उच्छृंखलता से ही आई है। डाक्टर तो इंसान हैं,सरकार में बैठे लोग भी इंसान ही हैं, अब तो हमारी मदद सिर्फ भगवान ही कर सकते हैं।
(लेखक की फेसबुक वॉल से साभार)