कोरोना है काली मौत का चचेरा भाई

राकेश अचल

आप इस शीर्षक को देखकर चौंकेंगे जरूर, लेकिन मेरे लिए ये शब्द कोई एक साल पुराना हो चुका है। युवाल नोआ हरारी की पुस्तक ‘होमो डेयस’ पढ़ते वक्त इस शब्द से मेरा साक्षात्कार हुआ था। कोरोना विषाणु से आतंकित दुनिया के सामने महामारी की इस कहानी को दोहराना बहुत जरूरी है। आप यकीन नहीं करेंगे किन्तु ये सच है कि दुनिया में अकाल के बाद महामारी मनुष्यता की दूसरी बड़ी दुश्मन है। दुनिया के आदिकाल से भीड़ भरे शहर जहां मानव सभ्यता की आधारशिला हैं वहीं वे महामारियों का घर भी हैं।

प्राचीन एथेंस कहिये या मध्ययुगीन फ्लोरेंस इस महामारी का ऐसा गवाह है जिसकी कोई दूसरी मिसाल नहीं मिलती। कोरोना के जन्म से सात सौ साल पहले फ्लोरेंस के लोग इस सच्चाई के साथ जीवित रहते थे की एक बार बीमार पड़ने पर एक हफ्ते में उनकी मौत तय है अचानक कोई भी महामारी किसी को अकेले या उसके परिवार को पूरी तरह समाप्त कर सकती है। फ्लोरेंस के लोग जिस महामारी को ‘ब्लैक डैथ’ के नाम से जानते थी आज उसी को कोरोना के नाम से जाना जा रहा है क्योंकि आज पूरी दुनिया ठीक उसी अहसास के साथ जी रही है जिसके साथ 1330 में फ्लोरेंस जिया करता था।

मध्य एशिया कहिये या पूर्वी एशिया 1330 में पिस्सू के जरिये मनुष्य के शरीर में प्रविष्ट हुए ‘यर्सीनिया पेस्टिस’ नाम के विषाणु ने दो दशक में 20 करोड़ के आसपास लोगों की जान ले ली थी। ये बीमारी पिस्सुओं और चूहों के जरिये फैलती हुई एशिया से योरोप और उत्तरी अफ्रीका तक फैल गयी थी। कहा जाता है कि इस महामारी में मारे गए लोग यूरेशिया की आबादी का एक चौथाई हिस्सा थे। इंग्लैंड में दस में से चार लोग इस महामारी में मारे गए थे। तब इंग्लैण्ड की आबादी 37 लाख से घटकर 22 लाख रह गयी थी। फ्लोरेंस के एक लाख लोगों में से 50 हजार लोग मारे गए थे।

आज महामारी को रोकने के लिए हम सोशल डिस्टेंस का सहारा ले रहे हैं, उस समय लोगों ने सामूहिक प्रार्थनाओं का सहारा लिया था। वैक्‍सीन तब भी नहीं थी, अब भी नहीं है। जबकि दोनों महामारियों के बीच सात सौ साल से अधिक का फासला है और इस लम्बे समय में विज्ञान कहीं से कहीं पहुंच चुका है। फर्क सिर्फ इतना है कि उस समय महामारी को दैवीय प्रकोप माना जाता था। विषाणुओं के बारे में लोगों की जानकारी सीमित थी।

महामारियों का लंबा इतिहास है। ब्लैक डैथ के बाद भी महामारियां आती-जाती रहीं। होमो डेयस को पढ़ते वक्त पता चला कि दुनिया में 1520 में क्यूबा से मैक्सिको आये एक छोटे से बेड़े में सवार कुछ अफ्रीकी गुलाम चेचक का विषाणु अपनी देह में लेकर आये और देखते ही देखते इस महामारी ने समूचे मैक्सिको को हिलाकर कर रख दिया था। यूकाटन प्रायद्वीप में महामारी में इतने लोग मारे गए कि लोग सड़ते हुए शवों का अंतिम संस्कार करना तक भूल गए। सड़कें शवों से पटने लगीं तो शवों को उनके मकानों में ध्वस्त कर मौके पर ही जमींदोज कर दिया गया।

आज ऐसे ही दृश्य अमेरिका में देखे जा रहे हैं। कब्रगाहों में सामूहिक शव दफनाए जा रहे हैं। बाद के दिनों में फ़्लू, खसरा जैसे रोग भी माहमारी के रूप में जनता को बड़ी संख्या में लीलते गए। आज जैसे कोरोना के लिए चीन दुनिया के निशाने पर है ठीक उसी तरह 1778 में ब्रिटेन के एक खोजी कैप्टन जेम्स कुक ने हवाई द्वीप समूह में फ़्लू, टीबी और सिफलिस जैसे रोगों के विषाणु फैलाये। इन महामारियों के चलते तीन लाख की आबादी वाले हवाई में 1853 तक कुल 70 हजार लोग ही जीवित बचे। 1918 में फ्रांस में स्पेनिश फ़्लू ने कोहराम मचाया था। इस बीमारी ने दुनिया के आधा अरब लोगों को अपनी चपेट में लिया।150 लाख लोग तो अकेले भारत में मारे गए। कुल मिलाकर इस महामारी ने एक साल में दुनिया के कम से कम 10 करोड़ लोग निबटा दिए।

दुनिया के 20 लाख लोगों की जान लेने वाली चेचक पर दुनिया ने फतह हासिल की, तो पिछले दशकों में सार्स, स्वाइन फ़्लू और इबोला जैसी महामारियां आईं। इन बीमारियों ने कई लाख लोगों की जान ले ली। एड्स जैसी महामारियां अपनी मौजूदगी दर्ज कराकर आगे बढ़ गयीं जबकि एड्स ने दुनिया के 3 करोड़ लोगों को निगला। महामारियों को समझने में और उनकी दवाएं तलाशने में दो से दस साल लग जाते हैं और जब दवाएं खोजी जाती हैं तब अमीर लोग ही उनका इस्तेमाल कर पाते हैं। गरीब को तो अंतत: मरना ही पड़ता है।

आज की तारीख में कोरोना कोई दैवीय आपदा नहीं बल्कि एक अक्षम्य मानवीय नाकामयाबी है। जैसा इबोला के साथ हुआ, शायद वैसा ही कोरोना के साथ भी होगा। विश्व स्वास्थ्य संगठन और दूसरे संगठनों की समितियां बनेंगी, जांच होगी आलोचना होगी, आरोप-प्रत्यारोप होंगे लेकिन हम भरोसा कर सकते हैं कि इस महामारी के खिलाफ संघर्ष में नतीजे मानवता के पक्ष में ही आएंगे। इस बात की पूरी संभावना है कि कोरोना जैसी बड़ी महामारियां मानव जाति को आगे भी खतरे में डालने का काम जारी रखेंगी, जबकि खुद मनुष्य किसी क्रूर विचारधारा की दासता की खातिर उनको पैदा करता रहेगा।

इस विषम स्थिति के बावजूद मैं पूरे विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि उस युग का अवसान हो गया है जब मनुष्य महामारियों के आगे असहाय होता था। हम जीतेंगे लेकिन हमें अतीत डराता और सावधान तो करता ही रहेगा। कोरोना की दूसरी लहर भयावह है। पहली बार 24 घंटे में डेढ़ लाख से अधिक लोग कोरोना का शिकार बने हैं। और हम हैं कि बिना टीके के टीकाकरण उत्सव मना रहे हैं। इसलिए मेरी मानिए अभी फिलहाल घर में रहिये, सुरक्षित रहिये।  टीकाराम का कोई भरोसा नहीं है। (मध्‍यमत)
डिस्‍क्‍लेमर- ये लेखक के निजी विचार हैं।
—————-
नोट- मध्‍यमत में प्रकाशित आलेखों का आप उपयोग कर सकते हैं। आग्रह यही है कि प्रकाशन के दौरान लेखक का नाम और अंत में मध्‍यमत की क्रेडिट लाइन अवश्‍य दें और प्रकाशित सामग्री की एक प्रति/लिंक हमें [email protected] पर प्रेषित कर दें।संपादक

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here