प्रमोद शर्मा
होली के त्योहार को आमतौर पर हास-परिहास, उत्साह, उमंग और हुड़दंग का त्योहार माना जाता है। हमारा साहित्य भी ऐसी कविताओं और संदर्भों से भरा पड़ा है, जिसमें होली के इसी रूप का उल्लेख मिलता है। हमारे समाज और साहित्य में कई ऐसे उदाहरण भी मिल जाएंगे, जहां होली की मस्ती अश्लीलता की चौखट पर पहुंचती दिखती है और ऐसा लगता है कि इस रंगीले-भंगीले त्योहार पर कई अवसरों पर वर्जनाएं तोड़ दी जाती हैं और मर्यादाओं को ताक पर रख पर दिया जाता है।
ग्रामीण क्षेत्रों में ऐसी फागें आज भी गाई जाती हैं और लोग उनका आनंद भी उठाते हैं। एक ओर होली का पर्व जहां मस्ती और हास-परिहास की चरम सीमा तक हमें लेकर जाता है तो दूसरी ओर, यह त्योहार हमें शालीनता और मर्यादा का पाठ भी पढ़ाता है। हालांकि होली त्योहार के इस पक्ष की चर्चा कम ही होती है। होली के अवसर पर आज इस त्योहार के इस पक्ष की चर्चा करते हैं। मर्यादा का संदेश देती फागें भी उतनी ही लोकप्रिय रही हैं और आज भी हैंः-
एक ओर समाज में आई गिरावट के कारण आपसी संबंधों में शिथिलता आ रही है और भाई-भाई का शत्रु बनता जा रहा है, ऐसे में भाई के संबंध में गाई जाने वाली यह फाग हमें कितना गंभीर संदेश देती है कि दुनिया में सबकुछ मिल सकता है, लेकिन सगा भाई नहीं मिल सकता, इसलिए भाई से कभी विरोध नहीं करें-
‘‘धरती खोदे धन मिले और मित्र मिले परदेश,
पर माई कौ जाओ न मिले, चाहे ढूढ़ो चारई देश।
भरत भैया कैसी जोड़ी मिलै नईं रे।‘‘
एक अन्य फाग में कितना सुंदर और बोली को मर्यादित करने का संदेश दिया गया है। व्यक्ति को बोली संभलकर बोलना चाहिए, क्योंकि बोली अगर संभल कर न बोली जाए तो वह सुनने वाले को गोली की तरह लगकर हमेशा के लिए घाव कर देती है-
‘‘बोली ऐसी न बोल, बोली ऐसी न बोल, बोली लगे गोली सी।‘‘
एक अन्य फाग में यह संदेश दिया गया है। नायिका अपने कर्जदार पति की स्थिति का वर्णन अपनी सखी से करते हुए कहती है कि कर्ज के कारण मेरे पति खीर भी नहीं खा पा रहे हैं और इसके कारण उनका स्वास्थ्य लगातार खराब होता जा रहा है।
‘‘दूध-भात भोजन बने और शक्कर दई भुरकाय।
जब सुध आवै करज की, कौर न मो में जाए।।
सखी सोचौं में दूबरे बालमा।।‘‘
एक अन्य फाग में एक नायिका अपने पति को नशे की लत से दूर रहने की सलाह दे रही है कि आप गांजा पीना बंद कर दो, इससे तुम्हारा कमल जैसा मुंह सूखता जा रहा है-
‘‘गांजौ नै पीओ पीतम प्यारे, जर जैहैं कमल तुम्हारे।‘‘
जीवन में मर्यादा और शालीनता का संदेश देती ऐसी फागों की भी हमारे साहित्य में कमी नहीं है। आज भी हमारे अंचलों में जब होली की फागें होती हैं, तो इनका गायन भी उसी उत्साह और उमंग से किया जाता है।