गिरीश उपाध्याय
कोरोना का संकट एक बार फिर सिर उठा रहा है और ऐसे में मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय के एक फैसले के बाद न सिर्फ मध्यप्रदेश के बल्कि उसके पड़ोसी राज्यों गुजरात और महाराष्ट्र के जिला प्रशासनों के सामने भी बहुत बड़ी चुनौती खड़ी हो गई है। दरअसल पश्चिमी मध्यप्रदेश के आदिवासी बहुल जिलों और इनसे सटे गुजरात और महाराष्ट्र के जिलों में होली से पहले आदिवासियों का एक बड़ा समागम होता है जिसे भगोरिया के नाम से जाना जाता है।
भगोरिया होली से पहले के एक सप्ताह में अलग-अलग इलाकों में लगने वाले हाट बाजारों से शुरू होते हैं और उसके बाद किसी एक स्थान पर ऐसे समागम का बड़ा आयोजन होता है। भगोरिया के साप्ताहिक हाट बाजारों में आठ-दस हजार लोगों की भागीदारी मामूली बात है। बड़े आयोजनों में यह संख्या 40-50 हजार तक पहुंच जाती है। खास बात ये है कि इसमें ज्यादातर युवक युवतियां ही शामिल होते हैं। यह इन इलाकों के आदिवासियों को सालाना मिलन उत्सव है जिसे वे उतनी ही ऊर्जा, जोश और उल्लास से मनाते हैं। इस दौरान नाच गाना तो होता ही है, परंपरागत पेय ताड़ी का भी बहुतायत से सेवन होता है।
चूंकि पिछले साल होली के समय तक कोरोना का प्रकोप उतना नहीं था इसलिए वह आयोजन तो हो गया था, लेकिन पिछले एक साल में लोगों ने कोरोना का असर भी देखा है और उससे होने वाले नुकसान को भी भोगा है। इस पर भी चिंता की बात ये है कि एक साल बाद फिर से हालात वैसे ही बन रहे हैं जो पिछले साल लॉकडाउन का कारण बने थे। इस एक साल में इतना कुछ भुगत लेने के बाद भी लोग समुचित एहतियाती कदम नहीं उठा रहे हैं और यही कारण है कि मध्यप्रदेश देश के उन पहले राज्यों में हैं जिसने कोरोना की दूसरी लहर के दौरान कुछ शहरों में सीमित लॉकडाउन का ऐलान कर दिया है।
इस बीच इस खबर ने पश्चिमी मध्यप्रदेश के कई जिला प्रशासनों की मुश्किल बढ़ा दी है जिसमें कहा गया है कि इंदौर हाईकोर्ट ने कोरोना प्रकोप को देखते हुए इस बार भगोरिया के आयोजन पर रोक लगाने से इनकार कर दिया है। दरअसल इंदौर हाईकोर्ट में एक जनहित याचिका दायर कर मांग की गई थी कि कोरोना प्रकोप को देखते हुए इस बार झाबुआ, खरगोन, आलीराजपुर, धार और बड़वानी जिलों में हर साल होली से पहले आयोजित होने वाले भगोरिया उत्सव पर रोक लगाई जाए।
तर्क दिया गया था कि भगोरिया उत्सवों में करीब पांच लाख तक लोगों की भागीदारी होती है और वहां न शारीरिक दूरी का पालन होता है और न ही मास्क लगाने जैसी अनिवार्यता का। इस समय जो हालात हैं उनमें यदि यह आयोजन होता है तो इससे ग्रामीण अंचल, खासतौर से आदिवासी इलाकों में महामारी फैलने का खतरा हो सकता है। यदि ऐसा हुआ तो हालात बेकाबू होने का अंदेशा है, क्योंकि इन अंचलों में वैसे ही स्वास्थ्य सुविधाओं की स्थिति अच्छी नहीं है।
खबरों के मुताबिक सरकार की ओर से अदालत में आश्वासन दिया गया कि भगोरिया उत्सव में कोरोना प्रोटोकॉल का पूरी तरह सख्ती से पालन कराया जाएगा। मेले की तैयारियां पूरी हो चुकी हैं। चूंकि भगोरिया इस क्षेत्र के आदिवासी एवं जनजातीय समुदाय का परंपरागत सांस्कृतिक आयोजन है इसलिए इसे रोका नहीं जा सकता। अब सरकार ने कोर्ट में भले ही आश्वासन दे दिया हो पर स्थानीय लोग बताते हैं कि भगोरिया में किसी भी तरह की बंदिश का पालन करवाना जिला प्रशासनों के लिए असंभव होगा।
पिछले कई सालों से भगोरिया को राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय मंचों के लिए कवर करते आ रहे स्थानीय फोटोग्राफर अनिल तंवर कहते हैं कि भगोरिया के आयोजन में इतने सारे लोग जुटते हैं कि उन्हें संभालना मुश्किल होता है। एक तो यह युवाओं का आयोजन होता है जिसके केंद्र में मुख्य रूप से मौज मस्ती का भाव होता है। दूसरे इस दौरान इस क्षेत्र के परंपरागत पेय ताड़ी का भी बहुतायत से सेवन होता है, ऐसे में किसी भी तरह की सख्ती कानून और व्यवस्था की समस्या खड़ी कर सकती है।
भगोरिया वैसे तो कई जनजातीय अंचलों में मनाया जाता है लेकिन इसका मुख्य केंद्र पश्चिमी मध्यप्रदेश के पांच जिले झाबुआ, आलीराजपुर, धार, बड़वानी और खरगोन होते हैं। भगोरिया का उत्सव होलिका दहन के सात दिन पहले से शुरू हो जाता है और इसके अंतर्गत सातों दिन अलग अलग अंचलों में साप्ताहिक हाट लगते हैं जिनमें बड़ी संख्या में आदिवासी युवक युवतियां सजधज कर शामिल होने आते हैं।
हालांकि इस उत्सव के बारे में एक धारणा यह भी बताई जाती रही है कि यह आदिवासी युवक युवतियों का प्रणय उत्सव है। कहा जाता रहा है कि- “भगोरिया हाट-बाजारों में युवक-युवतियां बेहद सजधज कर अपने भावी जीवनसाथी को ढूँढने आते हैं। इनमें आपसी रजामंदी जाहिर करने का तरीका भी बेहद निराला होता है। सबसे पहले लड़का लड़की को पान खाने के लिए देता है। यदि लड़की पान खा ले तो हाँ समझी जाती है। इसके बाद लड़का लड़की को लेकर भगोरिया हाट से भाग जाता है और दोनों विवाह कर लेते हैं। इसी तरह यदि लड़का लड़की के गाल पर गुलाबी रंग लगा दे और जवाब में लड़की भी लड़के के गाल पर गुलाबी रंग मल दे तो भी रिश्ता तय माना जाता है।”
लेकिन अनिल तंवर बताते हैं कि मीडिया ने इस उत्सव को सनसनीखेज तरीके से प्रचारित करने के उद्देश्य से इसे आदिवासियों के ‘वेलेन्टाइन डे’ के रूप में प्रचारित कर दिया। यह मूलत: प्रकृति के साथ मनाया जाने वाला उत्सव है जिसमें फागुन की मस्ती अलग ही रंग घोल देती है। यह वार्षिक मेला लगातार सात दिन तक चलता है और अंचल में हर दिन कहीं न कहीं भगोरिया मेला लगता रहता है। इन मेलों में गांव के गांव उमड़ते हैं। वैसे तो मुख्य रूप से इसमें युवा पीढी की भागीदारी होती है लेकिन बच्चे से लेकर वृद्घ तक इसमें शामिल होते हैं।
ढोल, मांदल, बांसुरी जैसे वाद्य यंत्रों की सुरीली ध्वनि और लोक संगीत के बीच जब भगोरिया मेले में सामूहिक नृत्य का दौर चलता है तो चारों ओर उल्लास ही नजर आता है। मेले में लगने वाले झूला-चकरी से लेकर फोटो स्टुडियो तक में लोगों की भीड़ उमड़ती रहती है। साथ ही समानांतर रूप से खान-पान भी चलता रहता है। अंचल का युवा चाहे कहीं हो, भगोरिया के मौके पर वह अपने अंचल में आने को लालायित रहता है। आदिवासियों का जीवन यूं कितना ही संघर्ष और कष्टों से भरा हो लेकिन इन सात दिनों में पूरा अंचल भगोरिया की मस्ती में डूबा दिखाई पड़ता है।
पिछले साल भगोरिया उत्सव नौ मार्च यानी लॉकडाउन का दौर शुरू होने से पहले खत्म हो गया था। लेकिन इस बार इस उत्सव की तारीखें 22 मार्च से 28 मार्च तक हैं यानी कोरोना संक्रमण की दूसरी लहर के दौरान ही यह आयोजन होने वाला है। इसमें मध्यप्रदेश ही नहीं पड़ोसी राज्यों गुजरात और महाराष्ट्र के जनजातीय अंचल के लोग भी हजारों की संख्या में अलग अलग स्थानों पर जुटते हैं। इतनी बड़ी संख्या में आने वाले लोगों को अनुशासित या नियंत्रित करना लगभग असंभव सा काम है। ऐसे में प्रशासन और सरकार के लिए इस बार यह आयोजन बहुत बड़ी चुनौती बनकर सामने आया है। बस कामना ही की जा सकती है कि उल्लास का यह पर्व किसी अनहोनी का कारण न बन बने।