मिटा देते हैं वे बार बार मेरे हस्‍ताक्षर

विश्‍व कविता दिवस पर एक कविता 
गिरीश उपाध्‍याय 
वे चाहते हैं…
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मिटा देते हैं वे बार-बार
मेरे हस्ताक्षर
उन्हें चाहिए सिर्फ और सिर्फ
मेरी उंगलियों के निशान कागज पर
अच्छी नहीं लगती उन्हें
मरहम की डिब्बी मेरे पास
चाहते हैं वे सिर्फ और सिर्फ
मेरे जिस्म पर रिसते हुए घाव
बार बार रोक देते हैं वे
मेरे होठों को मुसकुराने से
निर्देश हैं उनके
आंसुओं पर फोकस करूं मैं
तोड़ दिए हैं उन्होंने
मेरे सारे दांत
उनकी ख्वाहिश है
चबाने के बजाय
चाटने की आदत डाल लूं मैं
कुछ कहना चाहता हूं मैं उनसे
शायद चीखना…
पर वे चाहते हैं
सिर्फ और सिर्फ मेरा मौन !

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