हेमंत पाल
इस बात को मानना पड़ेगा कि ईश्वर ने मानव शरीर को जितने भी अंगों से गढ़ा, सभी उपयोगी और अनमोल हैं। ऐसा ही एक अंग है पैर या पांव। एक बार इंसान अपने पैरों पर खड़ा होकर चलने लगता है, तो यही पैर ताउम्र उसे सहारा देते है। इंसान की भी यही चाहत होती है, कि मरते दम तक उसके पैर चलते रहे। वैसे तो हर व्यक्ति कोई चाहता है कि वह फटे में पैर न डाले, लेकिन गाहे-बगाहे कभी कदम बहक जाते हैं। कभी गलत जगह पैर पड़ जाने से भी मुश्किल खड़ी हो जाती है।
पैर-पुराण में कभी किसी को अपने पैर उखड़ते नजर आते हैं, तो कोई पैर के सहारे अपने डगमगाते कल को थामने की कोशिश करता है। रीयल लाइफ में पैर पसारने के बजाए रील लाइफ में भी पैरों की अपनी अलग ही महिमा है। फिल्मों में इसी पैर के सहारे कई गुल खिलाए गए। ऐसी कई फ़िल्में हैं, जिनमें नायक और नायिका दोनों के पैरों ने परदे पर कहर बरपाया।
हिंदी सिनेमा जब से अपने पैरों पर खड़ा हुआ, हर कदम पर कहीं न कहीं उसे कभी नायक तो कभी नायिका और कभी-कभी तो खलनायकों के पैर ने पैर जमाने में मदद की। सबसे पहले बात की जाए उन फिल्मों की जिनमें पैरों ने सफलता के पंख लगाकर आसमानी कामयाबी दिलाई। देखा जाए तो पैरों के मामले में अभिनेता राजकुमार बहुत किस्मत वाले साबित हुए। ‘हमराज’ और ‘वक्त’ में पर्दे पर उनके चेहरे से पहले उनके सफेद जूतों की धमाकेदार एंट्री होती थी। इन फिल्मों में जैसे ही परदे पर राजकुमार के सफेद जूते दिखाई देते हैं, दर्शक तालियों से स्वागत करते।
राजकुमार खुद इस तथ्य से वाकिफ थे और अकसर बीआर चोपड़ा पर तंज कसा करते थे ‘जॉनी, सुना है आजकल आप हमारे जूतों की कमाई खा रहे हैं।’ फिल्म ‘पाकीजा’ में भी राजकुमार ने पैरों की बदौलत खूब तालियां बटोरी। इस फिल्म में यह करिश्मा उनके नहीं, बल्कि फिल्म की नायिका मीना कुमारी के पैरों की खूबसूरती ने किया। बिना चेहरा देखे, रेल की सीट पर मीना कुमारी के पैर देखकर राजकुमार अपने अंदाज में एक चिट्ठी छोड़ जाते हैं, जिस पर लिखा होता है ‘आपके पांव देखे, बहुत हसीन हैं, इन्हें जमीन पर मत उतारिएगा मैले हो जाएंगे।’
राजश्री की फिल्म ‘दोस्ती’ को भी बैसाखी वाले पैरों ने सहारा दिया। एक लंगड़ें और अंधे की दोस्ती पर आधारित इस फिल्म ने बॉक्स ऑफिस पर लम्बी दौड़ लगाते हुए उस समय की सारी फिल्मों को पीछे छोड़ दिया था। धर्मेन्द्र की फिल्म ‘फूल और पत्थर’ में नायक की एंट्री छोटे-छोटे पैरों से सड़क चढ़ते हुए और बड़े पैरों से सड़क से उतरते हुए हुई थी, जिसे बहुत पसंद किया गया। इसके बाद तो एक के बाद एक कई फिल्म में पैरों का शॉट दिखाकर नायक को बच्चे से बड़ा दिखाने के प्रयोग किए गए।
‘ज्वेलथीफ’ में भी पांव को लेकर सस्पेंस दिखाया गया। नायिका कहती है कि नायक के पैरों में छह अंगुलियां है, वह पैर दिखाए। लेकिन, वह टालमटोल करता है, जिससे सस्पेंस बढता जाता है। बाद में वह जिस अंदाज से मौजे उतारता है, दर्शक सीट से उछल जाते हैं। ‘शोले’ के हथकटे ठाकुर की असहजता तब शौर्य में बदल जाती है, जब फिल्म के क्लाइमेक्स में वह अपने पैरों में पहने कील लगे जूतों से गब्बर को मारता है। ठाकुर के पैर की हर ठोकर पर सिनेमा हाल तालियों और सीटियों से गूंज गया था।
‘शोले’ में ही गब्बर सिंह को चट्टान पर बेल्ट लेकर घूमते दिखाया गया है, तब कैमरा उसके पैरों पर ही फोकस होता है। ‘शोले’ का ही एक डायलॉग याद कीजिए जो गब्बर सिंह फिल्म में बसंती हेमा मालिनी से बोलता है ‘जब तक तेरे पैर चलेंगे, तब तक इसकी सांस चलेगी। जब तेरे पैर रुकेंगे तो ये बंदूक चलेगी।’ फिल्मों में नायिका के पैरों का भी अपना महत्व है। आमतौर पर नायिकाओं के पैरों की खूबसूरती को सेल्यूलाइड पर उतारकर बॉक्स ऑफिस पर सिक्के बरसाए जाते रहे हैं। जब नायिकाओं के पैरों की बात आती है, तो जाहिर है वह सुंदर तो होंगे ही।
इन पैरों की सुंदरता को बढ़ाने के लिए गीतकार गीत रचते हैं और संगीतकार उनमें संगीत का रस भरकर उन्हें गाने का रूप देते हैं। मेहंदी लगी मेरे पांव में, आजकल पांव जमीं पर नहीं पड़ते मेरे, पांव छू लेने दो फूलों को इनायत होगी, पांव में पायल से जैसे गीत रचे जाते हैं, तो नायक भी कहां पीछे रहता है। वह भी पग घुंघरू बांध मीरा नाची थी, मेरे पैरों में घुंघरू बंधा दे, तो फिर मेरी चाल देख ले जैसे गीत गाकर फिल्मों में पैरों की महिमा का बखान करता दिखाई देता है। ‘मिस मेरी’ में बचपन में बिछुड़ी नायिका के पैरों की छह अंगुलियां उसे परिवार से मिलाती हैं, तो ‘नाचे मयूरी’ में सुधा चंद्रन के नकली पैरों से नर्तकी बनने की कहानी कही गई।
फिल्मों में गरीबी और मज़बूरी दिखाने के लिए भी निर्माताओं ने कभी नायक को कभी नायिका को तो कभी सहनायिका या सहनायक को पैरों से अपाहिज बनाने का फार्मूला आजमाया है। ऐसी ही फिल्मों में ‘उपकार’ का मलंग, ‘हीर रांझा’ का लंगड़ा मामा, ‘सच्चा झूठा’ और ‘मजबूर’ की पैरों से अपाहिज बहन ने दर्शकों का ध्यान आकर्षित करने में सफलता पाई है। जीवन और मदनपुरी ने ढेरों फिल्मों में लंगड़ाते हुए ही कहानी को आगे बढ़ाया है। पैरों के छोटे या बड़े होने से भी कहानी में कई बार मोड़ आ जाता है।
‘शान’ में मुखबिर मजहर खान को बिना पैरों का बताया गया, जो हाथ से रगड़ने वाली एक गाड़ी से घूमता रहता है। उस पर फिल्माया गया गाना ‘आते जाते हुए मैं सबपे नजर रखता हूँ, नाम अब्दुल है मेरा सबपे नजर रखता हूँ’ काफी लोकप्रिय हुआ था। शम्मी कपूर की फिल्म ‘चायना टाउन’ में नायक के हमशक्ल के पैरों का आकार छोटा होने से कहानी में मोड़ आता है।
सलीम जावेद ने ‘यादों की बारात’ में एक नया प्रयोग किया था। इसमें खलनायक अजीत के दोनों पैरों के आकार में अंतर होता है। वह एक पैर में 9 नम्बर और दूसरे पैर में 10 नम्बर का जूता पहनता है। फिल्म के क्लाइमेक्स में जब टेबल पर अजीत के दोनों जूते दिखाए जाते हैं, तो धर्मेंद्र उसे पहचान लेता है। इसके साथ ही फिल्म का रोमांच चरम सीमा पर पहुँच जाता है। फिल्मों में ऐसे कई किस्से हैं, जिसमें पैरों ने भी किरदार निभाए हैं।