बंगाल की ‘दीदी’ को इंदौरी ‘भाई’ की चुनौती!

हेमंत पाल

भाजपा को जब लोकसभा चुनाव में दो सीटें मिली थी, तब अटलबिहारी वाजपेयी ने दावा किया था कि एक दिन भाजपा देश पर राज करेगी। उस समय लोगों को ये बात कुछ असहज लगी थी। क्योंकि, सामने कांग्रेस जैसी पार्टी थी। लेकिन, अंततः अटलजी की बात सही निकली। आज लोकसभा में भाजपा की 303 सीटें हैं। कुछ ऐसी ही कहानी पश्चिम बंगाल की है। इस राज्य में भी पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा को मात्र 2 सीटें मिली थी। इस बार यहाँ भी कमाल हुआ और भाजपा ने 42 में से 18 सीटों पर कब्ज़ा जमाया।

अब पार्टी विधानसभा चुनाव में वही कहानी दोहराने के प्रयास में लगी है। पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा ने सिर्फ 3 सीट जीती थी, आज उसी पार्टी ने इतनी बड़ी चुनौती खड़ी कर दी, कि उसे राज्य में सरकार बनाने वाली संभावित पार्टी माना जा रहा है। पश्चिम बंगाल के चुनाव प्रभारी और पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय ने राज्य में अपना ख़म ठोंक दिया। ममता बैनर्जी को जिस ‘तृणमूल’ पर भरोसा था, वह पार्टी तृण-तृण होकर बिखरने लगी। ममता की पार्टी के कई नेता पाला बदलकर भाजपा के साथ खड़े हो गए। विधानसभा चुनाव से पहले जिस तरह हालात बदले, उससे लगता है कि भाजपा पश्चिम बंगाल में काफी मजबूत स्थिति में है।

भाजपा के विश्वास का सबसे बड़ा आधार है लोकसभा चुनाव में मिली सफलता। लेकिन, यह सब कर पाना आसान नहीं था। पश्चिम बंगाल में ममता बैनर्जी ने जिस तरह से अपनी सरकार चलाई, वहाँ किसी और पार्टी के लिए जगह बनाना बेहद मुश्किल काम था। हिंसा, अराजकता और हत्या जैसी घटनाएं यहाँ सामान्य बात है। हिंदू-मुस्लिम को बाँटकर ममता बैनर्जी ने जिस तरह वोट के लिए तुष्टिकरण की राजनीति की, उसमें सेंध लगाने की कोई सोच भी नहीं सकता था। लेकिन, लोकसभा चुनाव में सेंध भी लगी और चमत्कार भी हुआ। इस सबके पीछे एक व्यक्ति की मेहनत और रणनीति कारगर रही। ये हैं इंदौर के ‘भाई’ उर्फ़ कैलाश विजयवर्गीय।

कैलाश विजयवर्गीय ने जिस रणनीतिक कौशल से पश्चिम बंगाल में लोकसभा की 18 सीटों पर ‘कमल’ खिलाया, वो राजनीति के जानकारों के लिए चिंतन का विषय है। उन्‍होंने सिर्फ पाँच महीने में पार्टी का आधार मजबूत किया, जिसका सुखद नतीजा सामने आया। अब वे विधानसभा चुनाव में इसी कमाल को दोहराने में लगे हैं। उन्होंने जिस तरह बंगाली लोगों में अपनी पैठ बनाई और उन्हें घर से निकालकर ममता बैनर्जी के खिलाफ खड़ा किया, वो आसान नहीं था।

भारतीय जनता पार्टी ने बहुत सोच-समझकर ममता बैनर्जी के अभेद्य किले में सेंध लगाने के अभियान की कमान कैलाश विजयवर्गीय को सौंपी है। उन्हें पश्चिम बंगाल फतह के लिए प्रभारी बनाकर मोर्चे पर लगाया गया। वहाँ की गुंडा राजनीति को काबू करके जिस तरह भाजपा के लिए जमीन तैयार की गई, उसे वही समझ सकता है, जिसे वहाँ ममता बैनर्जी की राजनीतिक शैली का अंदाजा हो। भाजपा ने सबसे पहले ममता के उन किलों पर कब्ज़ा जमाया, जो ‘तृणमूल’ की ताकत थे। कैलाश विजयवर्गीय ने लोगों का भरोसा जीता, उन्हें तृणमूल पार्टी के खौफ से मुक्त किया, फिर उन्हें झंडा थमाकर सड़क पर निकाला। इसी का नतीजा रहा कि पश्चिम बंगाल में ‘तृणमूल’ के खिलाफ लोगों की आवाज निकली।

जब कैलाश विजयवर्गीय को पश्चिम बंगाल का प्रभार सौंपा गया था, तब किसी चमत्कार की उम्मीद नहीं की थी। क्योंकि, पश्चिम बंगाल में ‘तृणमूल’ के विरोध का मतलब सिर्फ मौत था। ऐसे अराजक और अलोकतांत्रिक माहौल में कैलाश विजयवर्गीय ने अपना काम शुरू किया। लोकसभा चुनाव में ही 53 भाजपा कार्यकर्ताओं की हत्या हुई, जो अब बढ़कर सवा सौ से ज्यादा हो गई है। खुद कैलाश विजयवर्गीय को भी धमकियाँ मिली। लेकिन, उन्होंने कोई सुरक्षा नहीं ली। बाद में पार्टी अध्यक्ष के दबाव में कुछ दिन सुरक्षा जरूर ली, पर जल्दी ही वापस भी कर दी।

पश्चिम बंगाल का राजनीतिक इतिहास हिंसा से भरा रहा है। वामपंथियों के राज में वहां जमकर हिंसा हुई, फिर इसे ‘तृणमूल’ ने भी खाद-पानी दिया। ममता के दो कार्यकाल में हिंसा की राजनीति कुछ ज्यादा ही पनपी। राजनीतिक विरोध का जवाब मारपीट से दिया जाने लगा। असहमति के लिए यहाँ कोई जगह नहीं है। ममता राज में लोग कितने परेशान हैं, इस बात का पता भी कैलाश विजयवर्गीय को वहाँ जाकर लगा। इसी वजह से उन्हें लोगों का साथ मिला।

जहाँ लोग ‘तृणमूल’ के झंडे और बैनर के अलावा कुछ सोच भी नहीं सकते थे, वहाँ विरोध और दबाव के बावजूद भाजपा के झंडे लगे। रैलियों में भीड़ बढ़ी। घरों, दुकानों पर भाजपा का चुनाव चिन्ह दिखाई देने लगा। लोग भी भाजपा को वोट देने की अपील करने लगे। जहाँ ‘जय श्रीराम’ बोलना अपराध था, वहां इसका उद्घोष होने लगा। इसे कैलाश विजयवर्गीय की उपलब्धि माना जाना चाहिए कि उन्होंने पश्चिम बंगाल के लोगों में ये विश्वास प्रबल किया कि भाजपा का साथ देने से उन्हें नुकसान नहीं होगा।

वास्तव में ये विश्वास जीतना बेहद मुश्किल काम था। क्योंकि, वहां के लोग ये भ्रम भी पाल सकते थे, कि चुनाव का नतीजा कुछ भी हो, कैलाश विजयवर्गीय तो वापस लौट जाएंगे। ऐसे में उन्हें ममता सरकार का कोप भाजन बनना पड़ सकता है। लेकिन, ऐसा नहीं हुआ और लोग विजयवर्गीय के साथ सड़क पर निकल आए। इसी भरोसे ने पश्चिम बंगाल में सेंधमारी का मौका दिया। लोकसभा चुनाव में 42 में से भाजपा को 18 सीटें जीतने का मौका मिला। ये आंकड़ा भले ही ज्यादा बड़ा नहीं लगे, पर वास्तव में अप्रजातांत्रिक सत्ता के सामने पार्टी की जड़ें ज़माने के लिए ये बहुत जरूरी था।

अब इसके आगे का काम विधानसभा चुनाव के नतीजों में दिखाई देगा। पिछले साल 3 सीटें जीतने वाली भाजपा इस बार राज्य में 150 से ज्यादा सीटें जीतने की कोशिश में है। इंदौर के मिल क्षेत्र के इस हरफनमौला भाजपा नेता को ऐसी चुनौतियाँ स्वीकारने की आदत रही है। इंदौर के जिस मिल क्षेत्र (विधानसभा क्षेत्र क्रमांक-2) का उन्होंने बरसों तक प्रतिनिधित्व किया है। एक समय था, जब वहाँ भाजपा का कोई नामलेवा नहीं था। मिल मजदूरों के कारण ‘इंटक’ के प्रभाव वाले इस इलाके से उन्होंने पहली बार भाजपा को जीत का स्वाद चखाया। वे इंदौर के क्षेत्र-4 से भी चुनाव जीत चुके हैं और इंदौर विधानसभा के महू से भी। यानी इंदौर के तीन विधानसभा क्षेत्रों से वे चुनाव जीते हैं और उनके बेटे आकाश ने इन तीनों के अलावा चौथे विधानसभा (क्षेत्र-3) से चुनाव जीतकर उनके सही उत्तराधिकारी होने का सबूत दिया।

कैलाश विजयवर्गीय ने भाजपा को पहली बार इंदौर के महापौर की कुर्सी पर भी काबिज करवाया। इस नेता की खासियत ही यह है कि पार्टी इन्हें जो लक्ष्य देती है, वहाँ ये ‘कमल’ खिला देते हैं। इन्हें पार्टी ने पहली बार इंदौर से बाहर हरियाणा में आजमाया था। 2014 के हरियाणा विधानसभा चुनाव के लिए कैलाश विजयवर्गीय को चुनाव प्रभारी बनाया गया। इसमें भी नतीजा भाजपा के पक्ष में रहा और वहाँ पार्टी बहुमत से चुनाव जीती। इसके बाद उन्हें पार्टी ने राष्ट्रीय महासचिव नियुक्त किया। हरियाणा में उनके प्रदर्शन से प्रभावित होकर ही पार्टी ने उन्हें पश्चिम बंगाल कमान सौंपी थी। वे यहाँ भी लोकसभा चुनाव में रणनीति बनाने और उसे क्रियान्वित करने में सफल रहे। अब उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती विधानसभा चुनाव है, जिसके लिए उन्होंने अपना सबकुछ झोंक दिया है। पश्चिम बंगाल में भाजपा को जो सफलता मिलेगी, वो पार्टी की होगी, पर इसके पीछे रणनीतिकार तो इंदौरी ‘भाई’ ही होगा। (मध्‍यमत)
डिस्‍क्‍लेमर- ये लेखक के निजी विचार हैं।
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