अवसरवादिता : राजनीति का मूलमंत्र

 

राजनीति का मूल मन्त्र आखिर क्या है,  अवसरवादिता या देशभक्ति-जनसेवा? आप कहेंगे कि देशभक्ति-जनसेवा तो पुलिस का ध्येय वाक्य है,  ये राजनीति का मूलमंत्र कैसे हो सकता है? यदि आप यही कह रहे हैं तो आप सही कह रहे हैं। राजनीति से देशभक्ति और जनसेवा का लोप तो बीते अनेक वर्षों में हो ही चुका है। अब राजनीति का मूलमंत्र अवसरवादिता है। जैसा अवसर, वैसी राजनीति। अब राजनीति में अवसर तलाशने वाले कम, अवसर देखकर राजनीति करने वाले ज्यादा कामयाब हैं।

राजनीति को आप अवसरों का दूसरा नाम मान सकते हैं। आठवें दशक के बाद राजनीति में अवसरों की महत्ता लगातार बढ़ी है। आपातकाल के बाद कांग्रेस की दीर्घकालीन सत्ता को उखाड़ फेंकने में मिली कामयाबी के बाद राजनीति में अवसरों का उपयोग करने वाले लगातार बढ़े हैं और देवयोग से उन्हें कामयाबी भी मिली है।

राजनीति में आने वाले जो लोग जनसेवा को अपना लक्ष्य बताते हैं वे सफेद झूठ बोलते हैं। झूठ का रंग अक्सर काला होता है लेकिन उसे जब दूधिया बनाकर बोला जाता है तो ऐसा झूठ जनता की पकड़ में नहीं आता। विपक्ष ने अवसरवादी राजनीति को 1977 में समझने के बाद बहुत जल्द भुला दिया था इस कारण उसे फिर सत्ता से बाहर जाना पड़ा। बाद के दिनों में लोग अवसरवादी राजनीति के सहारे तेरह दिन से चार महीने तक के लिए सरकार में आये और चले गए। कांग्रेस अवसरों की शिनाख्त करने में चूंकि अनुभवी थी इसलिए ठोकरें खाने के बाद फिर सत्ता में आयी और लम्बे समय तक टिकी रही। कांग्रेस की अवसरवादिता पर शोध की आवश्यकता है।

राजनीति के आगे और पीछे अवसरों को देखने वालों में भाजपा का कोई मुकाबला नहीं है। 2014 के बाद सत्तारूढ़ हुई भाजपा ने किसी भी अवसर को हाथ से नहीं जाने दिया और इसी का नतीजा है कि लगातार अविश्वसनीय होते हुए भी भाजपा हर अवसर पर खरी साबित हुई। भाजपा को जनादेश नहीं मिला तो उसने धनादेश से सत्ता हासिल कर ली लेकिन हार नहीं मानी। ये प्रबल इच्छाशक्ति कांग्रेस नेतृत्व के हाथ से फिसल गयी। नतीजा आपके सामने है। लगातार पराजय के बावजूद कांग्रेस अवसरवादिता के मूलमंत्र को छोड़ने के लिए राजी नहीं है। अगले महीनों में देश के पांच राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव अवसरवादिता की राजनीति की एक नयी परिभाषा गढ़ने जा रहे हैं।

दक्षिण और पूरब के राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव में भाजपा ने अपने अनुकूल अवसरों की शिनाख्त बहुत पहले से कर ली थी। कांग्रेस तो अब नींद से जागी है। भाजपा ने तीन साल पहले से जैसे बंगाल में ममता बनर्जी के पीछे जय श्रीराम का नारा चस्पा कर दिया था,  वैसा कांग्रेस नहीं कर पाई। कांग्रेस इन राज्यों में कहाँ खड़ी है उसे खुद पता नहीं। जिन राज्यों में विधानसभा के चुनाव होने जा रहे हैं वहां कल तक भाजपा का नामोनिशान नहीं था,  लेकिन कल असम में भाजपा थी और मुमकिन है कि कल फिर सत्ता में आ जाये। तमिलनाडु, केरल भाजपा के लिए दिवास्वप्न रहे हैं। पुडुचेरी भी भाजपा के लिए कम महत्वपूर्ण नहीं है। हाल ही में भाजपा वहां कांग्रेस को सत्ता से बाहर करा चुकी है।

राजनीति में अवसर या तो अपने आप पैदा होते हैं या फिर उन्हें पैदा करना पड़ता है। भाजपा अवसरों के दोनों विकल्पों का सहारा लेती है और कांग्रेस समेत तमाम दल टापते रह जाते हैं। अवसरों की राजनीति का दूसरा नाम दलबदल भी है,  जो इस समय हर राज्य में पूरे जोर-शोर से प्रचलन में है। यानि अब अवसरवादिता पाप नहीं पुण्यकार्य है। जो चूका वो चौहान नहीं बन पाया। हमारे मध्यप्रदेश में तो मामा शिवराज सिंह चौहान विधानसभा चुनाव में चूक गए थे लेकिन उन्होंने महाराज की कृपा हासिल कर दोबारा से सत्ता हासिल कर ली। मैं जाती तौर पर चौहान साहब का कायल हूँ,  क्योंकि वे अवसरवादी राजनीति के पुरोधा हैं। उन्होंने पुरुषार्थ से नहीं अवसरों के सहारे सत्ता हासिल की है।

आज की राजनीति में वे ही नेता स्तुत्य हैं जो अवसरों का सम्मान करते हैं और कहीं कोई गलती नहीं करते। अब अपने पूर्व रेलमंत्री दिनेश त्रिवेदी जी को देख लीजिये। बंगाल में विधानसभा चुनाव से ठीक पहले अवसर देखते ही कीचड़ में उतरे और कमल हाथ में लेकर जनता के सामने प्रकट हो गए। इसमें बुराई भी क्या है? ममता उन्हें ममत्व नहीं दे पायी तो उन्होंने कमलत्व को अंगीकार कर लिया। हमारे मध्यप्रदेश में पीढ़ियों से कांग्रेसी रहे महाराज ज्योतिरादित्य सिंधिया ने तो अवसर को सुअवसर बनाने में एक नया कीर्तिमान रचा है।

मुझे दुःख एक ही बात का है कि राजनीति में काम करने वाले तो अवसरों का सम्मान करना और उसके अनुरूप फैसला करना सीख गए लेकिन लोकतंत्र में मतदाता में अभी तक ये समझ विकसित नहीं हुई। मतदाता अवसर देखकर फैसला नहीं करता बल्कि अक्सर भ्रमित होकर जनादेश को गलत हाथों में सौंप देता है। मतदाता के पास अवसर चूकने के बाद सिवाय प्रायश्चित के कुछ बचता नहीं है। देश के किसान सौ दिन से अवसर पहचानने में गलती करने की सजा भुगत रहे हैं। उन्हें ये सजा मिलना चाहिए,  मेरे ख्याल से अवसर का अनादर करने वाला हर व्यक्ति सजा का पात्र है।

पुरानी फिल्म का एक गीत था- ‘तीतर के आगे दो तीतर, तीतर के पीछे दो तीतर।’ इसी तरह आज राजनीति के आगे दो अवसर होते हैं और राजनीति के पीछे भी दो अवसर होते हैं। इनका गुणा-भाग करना ही आज की राजनीति का प्रतिफल है, जिसे राजनीति के आगे-पीछे के अवसर नजर नहीं आते वे अक्ल के अंधे और गाँठ के पूरे कहे जाते हैं। अवसरवादी राजनीति का कांग्रेसी स्कूल फ्लॉप हो चुका है। आज के बाजार में अवसरवादिता की राजनीति के लिए ऑनलाइन प्रवेश केवल भाजपा के स्कूल में हो रहे हैं। आज किसी भी क्षेत्रीय दल में कोई नया नेता शामिल नहीं हो रहा। अब जिसे राजनीति करना है वो भाजपा को प्राथमिकता दे रहा है। जाहिर है कि बाजार में भाजपा की साख कांग्रेस या दूसरे राजनितिक दलों के मुकाबले बेहतर है।

असम, केरल, तमिलनाडु, बंगाल और नन्हीं सी पुडुचेरी के सामने एक अवसर है कि वो सही निर्णय करने के इस अवसर को हाथ से न जाने दें। इन राज्यों की जनता को तय करना है कि उनके आंगन में कीचड़ फैले या उनकी अपनी पसंदीदा फसलें लहरायें। इन चुनावों के जरिये ‘कैडर विरुद्ध कैडर’ की लड़ाई भी है। वाम कैडर के सामने संघ का कैडर है। कांग्रेस का तो कोई कैडर कहीं मुकाबले में है ही नहीं,  कांग्रेस का नया कैडर जब तक राजनीति में अपनी पहचान बनाएगा तब तक देश की राजनीति पता नहीं कितनी करवटें बदल चुकी होगी।(मध्‍यमत)
डिस्‍क्‍लेमर- ये लेखक के निजी विचार हैं।
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