ओटीटी की अश्लीलता पर नियंत्रण जरूरी

प्रमोद भार्गव

‘ओवर द टॉप’ अर्थात ओटीटी प्लेटफॉर्म पर फिल्म एवं वेब सीरीजों पर दिखाई जा रही अश्लीलता चिंता का विषय है, अतएव इस पर नियंत्रण जरूरी है। यह बात सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति अशोक भूषण की अध्यक्षता वाली पीठ ने कही। अदालत ने कहा कि ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बहुसंख्यक लोगों की धार्मिक स्वतंत्रता का हनन नहीं कर सकती है।’ यह बात अदालत ने अमेजन प्राइम कमर्शियल की प्रमुख अपर्णा पुरोहित की जमानत याचिका पर सुनवाई करते हुए कही। दरअसल यह मामला तांडव वेब सीरिज से जुड़ा है। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने तांडव में आपत्तिजनक दृश्य और कथ्य को लेकर दर्ज मामले में अपर्णा को अग्रिम जमानत देने से इंकार कर दिया। इसे ही सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई थी।

जमानत याचिका खारिज करते हुए अदालत ने सवाल उठाया कि अश्लीलता दिखाने वाले सभी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म की जांच होनी चाहिए। इन पर नियंत्रण तो जरूरी है ही एक बोर्ड का भी गठन किया जाए, जो इन पर नियंत्रण के उपाय सुझाए। हालांकि अब ओटीटी पर नियंत्रण के लिए ऐसी व्यवस्था होगी, जिससे पालक अपने बच्चों के लिए ऐसी सीरीज प्रतिबंधित कर सकेंगे, जिनमें अश्लीलता परोसी जा रही है। आयु वर्ग के हिसाब से भी इन्हें बालक, किशोर एवं वयस्क श्रेणियों में बंटा जाएगा। जिससे जरूरत के हिसाब से इन पर नियमन संभव हो।

मोबाइल व कंप्युटर पर इंटरनेट की घातकता का दायरा निरंतर बढ़ रहा है। इंस्टाग्राम हो या फेसबुक या फिर गूगल ये सब विदेशी कंपनियां अकूत धन कमाने की तृष्णा में सोशल मीडिया प्लेटफार्मों के माध्यम से भारतीय बच्चों, किशोरों व युवकों को पोर्नोग्राफी के जाल में फंसाकर न केवल उनका भविष्य बर्बाद कर रहे हैं, बल्कि साइबर अपराधी बनाकर उनके पूरे जीवन पर ही कालिख पोतने का काम कर रहे हैं। ये सब कंपनियां ऑनलाइन चाइल्ड सेक्स ट्रैफिकिंग को बढ़ावा दे रही हैं। इसका दुर्भाग्यपूर्ण पहलू यह है कि अश्लील फिल्में दिखाकर बच्चे और सगे-संबंधी नाबालिग ही आपराधिक करतूतों का शिकार बनाए जा रहे हैं। लंदन के पास बसे शहर सोहो में इस तरह की वीडियो क्लिपिंग बनाने का धंधा खुलेआम चल रहा है।

आज सूचना तकनीक की जरूरत इस हद तक बढ़ गई है कि समाज का कोई भी क्षेत्र इससे अछूता नहीं रह गया है। कोरोना-काल में बच्चों को डिजिटल माध्यम से पढ़ने का जो बहाना मिला है, उसमें इंटरनेट पर डेटा की खपत से पता चला है कि चाइल्ड पोर्नोग्राफी की बीमारी भी उसी अनुपात में बढ़ रही है। आज दुनिया में करीब 4.5 अरब लोगों की इंटरनेट तक पहुंच हो गई है। इंटरनेट एंड मोबाइल एसोसिएशन ऑफ इंडिया (आइएमएआई) के सर्वे के अनुसार 2019 में भारत में इंटरनेट उपभोक्ताओं की संख्या करीब 45.1 करोड़ थी। यह संख्या देश की आबादी की 36 फीसदी है। इनमें से 38.5 करोड़ उपभोक्ता 12 वर्ष से अधिक उम्र के हैं और 6.6 करोड़ 11 वर्ष या इससे कम आयु समूह के हैं। इनमें से ज्यादातर अपने परिजनों की डिवाइस पर इंटरनेट का इस्तेमाल करते हैं। 16 से 20 वर्ष के आयु समूह के युवा सबसे ज्यादा इंटरनेट का उपयोग करते हैं। देश में 25.8 करोड़ पुरुष और शेष महिलाएं इंटरनेट का उपयोग करती हैं।

भारत में इंटरनेट डेटा की खपत इसके सस्ते होने की वजह से भी बढ़ रही है। पिछले चार साल में डेटा की खपत 56 गुना बढ़ी है, वहीं दरों में कमी 99 प्रतिशत हुई है। इकोनॉमिक सर्वेक्षण के अनुसार 2016 में डेटा की दरें 200 रुपए प्रति जीबी थी, जो 2019 में घटकर 12 रुपए प्रति जीबी तक आ गई हैं। दुनिया में सबसे ज्यादा देखी जाने वाली एक पोर्न वेबसाइट ने बताया है कि भारत में 2018 में औसतन 8.23 मिनट पोर्न वीडियो देखे गए, वहीं 2019 में यह अवधि बढ़कर 9.51 मिनट हो गई। यह आंकड़ा सिर्फ एक वेबसाइट का है, जबकि दुनिया में पोर्न संबंधी 150 करोड़ वेब पेज सक्रिय हैं। इनमें 28 करोड़ वीडियो लिंक हैं। ये पोर्न वेबसाइट जिन 20 देशों में सबसे ज्यादा देखी गईं, उनमें भारत का स्थान तीसरा है। दरअसल इसी साल ‘नेशनल सेंटर फॉर मिसिंग एंड, एक्सप्लॉयटेड चिल्ड्रेन’ नाम के संगठन ने बालयौन शोषण से जुड़ी जानकारियां चाहीं थीं। संगठन को कुल 1.68 करोड़ सूचनाएं मिलीं। इनमें 19.87 लाख भारत से, 11.5 लाख पाकिस्तान और 5.5 लाख सूचनाएं बांग्लादेश से मिली थीं।

बच्चों के संदर्भ में मिली यह जानकारी अत्यंत चिंताजनक है, क्योंकि ये वे आंकडे हैं जिनकी सूचना उपलब्ध हो गई है। परंतु इनमें वे आंकड़े नहीं हैं, जिनकी सूचना नहीं मिल पाई है। साफ है, बेटियों से दरिंदगी की एक बड़ी वजह पोर्न साइट्स की बिना किसी बाधा के उपलब्धता है। ऐसे में जो विद्यार्थी इंटरनेट पर पढ़ाई के बहाने पोर्न देखने में लग जाते हैं, उनके पालक सामान्य तौर से ऐसा कैसे सोच सकते हैं कि वे जिनके भविष्य के सपने बुन रहे हैं, वे स्वयं किस मानसिक अवस्था से गुजर रहे हैं और किस गलत दिशा का रुख कर रहे हैं। उन अभिभावकों के बच्चों को ज्यादा भटकने का अवसर मिल रहा है, जिनके माता-पिता दोनों ही नौकरी में हैं। क्योंकि ऐसे में यह निगरानी रखना मुश्किल होता है कि आखिर बच्चे मोबाइल पर देख क्या रहे हैं?

इस कोरोना-काल में यह बात मीडिया में तेजी से उठ रही है कि शैक्षिक संस्थान लंबे समय तक बंद रहने की स्थिति में पढ़ाई-लिखाई के लिए ऑनलाइन विकल्पों को स्थाई बना दिया जाए? लेकिन यह प्रश्न नहीं उठाया जा रहा है कि पढ़ाई-लिखाई के दौरान बच्चे मोबाइल पर कौनसा पाठ पढ़ रहे हैं? उन्हें कौन अज्ञात व्यक्ति बरगलाकर गलत दिशा दे रहा है? इसकी निगरानी कैसे संभव है? क्योंकि इस अकेलेपन में दिमाग में विकृतियां पनपने की आशंकाएं कहीं ज्यादा हैं।

प्रारंभ में यह आकर्षण थ्रिल या रोमांच की तरह लगता है, लेकिन आहिस्ता-आहिस्ता विकार के रूप में बदलने लगता हैं। सोशल मीडिया पर निर्बाध पहुंच और बच्चों की जरूरतों के प्रति अभिभावकों की निश्चिंतता एवं लापरवाही इस तरह की  घटनाओं के लिए ज्यादा जिम्मेवार हैं। ये घटनाएं इसलिए और बढ़ रही हैं, क्योंकि हमारी परिवारिक और कौटुंबिक सरंचना को सुनियोजित ढंग से तोड़ा जा रहा है। ऐसे में बच्चों को नैतिक मूल्यों से जुड़े पाठ, पाठ्यक्रम से तो गायब कर ही दिए गए हैं, घरों में भी दादा-दादी या नाना-नानी इन पाठों को किस्सों कहानियों के जरिए पढ़ाने के लिए उपलब्ध नहीं रह गए हैं। यदि नैतिक शिक्षा का पाठ पढ़ाने की बात कोई शिक्षाशास्त्री करता भी है तो उसे पुरातनपंथी कहकर नकार दिया जाता है। अब नई शिक्षा नीति में जरूर कुछ इस तरह के पाठ जोड़ने की पैरवी हो रही है।

यह समस्या इसलिए विकट होती जा रही है, क्योंकि इंटरनेट और सोशल प्लेटफॉर्म प्रदाता कंपनियां इस दुरुपयोग को रोकने के लिए कोई कारगर पहल करने को तैयार नहीं हैं। अकसर जब भी  इस तरह के मामले उठते हैं तो कंपनियां यह कहकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेती हैं कि वे ऐसी किसी आपत्तिजनक तस्वीर या सामग्री के उपयोग की अनुमति नहीं देती है। ज्यादा हुआ तो जो आपत्तिजनक सामग्री अपलोड हो जाती है, उसे हटाने का आश्वासन दे दिया जाता है। लेकिन कंपनी के ऐसे दावे भरोसे के लायक नहीं होते, क्योंकि ऐसी सामग्री की पुनरावृत्ति होती रहती है।

यदि ज्यादा जोर डाला जाता है तो सोशल साइट के उपभोक्ता सुनियोजित ढंग से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बाधित होने का शोर मचाने लगते हैं और इंटरनेट का दुरुपयोग बंद करने के उपायों को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दे दी जाती है। लेकिन इसका यह अर्थ कतई नहीं है कि सोशल मीडिया पर नियमन, स्व-नियमन या सरकारी नियंत्रण की कोई जरूरत ही नहीं रह गई है? हकीकत तो यह है कि किशोर बच्चों के लिए इंटरनेट घातक साबित हो रहा है। इसलिए इस परिप्रेक्ष्य में नियंत्रण की जरूरत कहीं अधिक बढ़ गई है। सोशल मीडिया पर बढ़ती अश्लील करतूतें अब नैतिक मर्यादा के उल्लंघन और सभ्य समाज की सरंचना के लिए गंभीर चुनौती के रूप में पेश आने लगी हैं, इसलिए ओटीटी पर अंकुश जरूरी है।(मध्‍यमत)
डिस्‍क्‍लेमर- ये लेखक के निजी विचार हैं।
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