राकेश अचल
मुझे सच लिखने में कभी शर्म महसूस नहीं हुई, मुझे पता है कि सच का स्वाद मीठा नहीं कसैला होता है। मैं जिस शहर में आधी सदी से रह रहा हूँ उस शहर के किसी प्रतियोगिता में फिसड्डी रहने के कारण शर्मिंदा हूँ, भले ही मेरे शहर से अपना ढाई सौ साल से रिश्ता बताने वाले लोग या हमारे दूसरे जन प्रतिनिधि शर्मिंदा न हों। मामला ‘ईज आफ लिविंग इंडेक्स’ में ग्वालियर के 34 वे नंबर पर और इंदौर के पहले नंबर पर आने का है।
आजादी के पहले इंदौर और ग्वालियर मराठा शासकों के अधीन थे और तब ग्वालियर हर मामले में इंदौर से आगे था, लेकिन आजादी के बाद से ग्वालियर सब कुछ होते हुए लगातार इंदौर से पिछड़ता चला गया। आज नौबत ये है कि ग्वालियर 34 वे नंबर पर है। ग्वालियर से भी बुरी हालत संस्कृति की राजधानी जबलपुर की है। इन महानगरों से बेहतर स्थिति तो महाकाल की नगरी उज्जैन की है। कम से कम उज्जैन 19 वे नंबर पर तो खड़ा है। देश के 111 शहर इस प्रतियोगिता का हिस्सा थे।
मुझे इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता की कौन शहर, कहाँ रहा लेकिन मुझे फ़िक्र है अपने शहर की। इस शहर ग्वालियर को आज के शासकों के मुकाबले तो आजादी के पहले के शासकों ने ज्यादा मुहब्बत से सजाया-संवारा था। जो सुविधाएं भारत के दूसरे शहरों में नहीं थीं वे सब ग्वालियर के पास थीं लेकिन आज ग्वालियर दुर्दशा के 34वें पायदान पर खड़ा है। इसके लिए आखिर कौन जिम्मेदार है? यकीनन इस दुर्दशा के लिए हम ग्वालियर में रहने वाले लोग जिम्मेदार हैं क्योंकि हमने अपने नागरिक बोध को बेच दिया। शहर के नदी-नाले खा गए। खुली जमीनों पर अतिक्रमण कर शहर को बदसूरत हमीं ने बना दिया। हमने नहीं सोचा की हमें अपने अतीत के साथ ही वर्तमान को भी संवारना है।
आजादी के बाद 1952 से लेकर 2021 तक ग्वालियर शहर का नसीब अखिल भारतीय हिन्दू महासभा के दो अवसरों को छोड़ दिया जाये तो या तो कांग्रेस के हाथों में रहा या भाजपा और भाजपा के पूर्व के विपक्ष के हाथ में रहा। सात बार तो एक ही परिवार की दो पीढ़ियां ग्वालियर की भाग्य विधाता बनी रहीं। बाक़ी समय में जो लोग जीते वे भी ग्वालियर के महल की कृपा के पात्र रहे और आज भी हैं, बावजूद इसके ग्वालियर की तस्वीर नहीं बदल रही। बीते 67 साल में ग्वालियर की तस्वीर क्यों नहीं बदली? ये सवाल कम से कम उन जन प्रतिनिधियों से तो पूछे जा सकते हैं कि आखिर वे संसद में बैठकर करते क्या रहे?
यही सवाल ग्वालियर शहर की चार विधानसभा क्षेत्रों से चुनकर विधानसभा में जाने वाले जन प्रतिनिधियों से किया जाना चाहिए। क्या मंत्रियों के सार्वजनिक रूप से सड़कों पर झाड़ू लगाने या सार्वजनिक शौचालय साफ़ करने से ग्वालियर में ‘ईज आफ लिविंग’ का स्तर बढ़ जाएगा? शायद कभी नहीं क्योंकि मैं पूरी जिम्मेदारी से कह रहा हूँ कि बीते सात दशक में हमारे जन प्रतिनिधियों ने अपनी दशा सँवारी है शहर की नहीं। हमारे जन प्रतिनिधि आज की तारीख में हजारों करोड़ की सम्पत्ति के स्वामी हैं। कोई शैक्षणिक संस्थानों का माफिया है तो कोई जमीन माफिया बन गया है। किसी के पास पेट्रोल पम्प हैं तो किसी के पास बड़ी-बड़ी एजेंसियां, जनता और शहर के पास कुछ नहीं है।
ग्वालियर शहर को स्मार्ट सिटी परियोजना में शामिल किये जाने के बाद लगता था कि ग्वालियर में ‘ईज आफ लिविंग’ का स्तर सुधरेगा किन्तु इससे भी कुछ हासिल नहीं हुआ। ग्वालियर और पीछे-पीछे जाता चला गया और आज जारी नतीजों ने सारी स्थिति साफ़ कर दी है। ईज आफ लिविंग की फेहरिस्त में 34 वे स्थान पर खड़े ग्वालियर के जन प्रतिनिधियों और स्थानीय प्रशासन के लिए ये चुल्लू भर पानी में डूब मरने की बात है। जनता के लिए तो है ही। जनता अगर इंदौर की जनता की तरह अपने शहर से प्रेम कर रही होती तो मुमकिन था कि ग्वालियर को ये बुरे दिन नहीं देखना पड़ते।
किसी भी शहर में ‘ईज आफ लिविंग’ का स्तर सुधारने का जिम्मा किसी एक संस्था का नहीं है। अकेली नगर निगम इसके लिए जवाबदेह नहीं है। विकास प्राधिकरण, विशेष क्षेत्र प्राधिकरण, हाउसिंग बोर्ड जैसी सभी संस्थाओं की जवाबदेही बनती है, दुर्भाग्य ये है कि ग्वालियर में ये चारों संस्थाएं बीते चार दशकों से सफेद हाथी ही नहीं बल्कि लूट-खसोट का अड्डा बनी हुई हैं। इन संस्थाओं ने अपना काम ढंग से नहीं किया। यहां आये जन प्रतिनिधि ही नहीं बल्कि प्रशासनिक अधिकारी भी अपना उल्लू सीधा करने में लगे रहे और आज भी लगे हुए हैं।
भारत सरकार ने इंदौर की उपलब्धि के लिए मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान और प्रदेश के आवास मंत्री भूपेंद्रसिंह को बधाई दे दी है, लेकिन सवाल ये है कि भोपाल, ग्वालियर, जबलपुर और ग्वालियर की शर्मनाक स्थितियों के लिए लानत किसके पते पर भेजी जाए? ग्वालियर के जन-प्रतिनिधियों, मीडिया, सामाजिक संस्थाओं के लिए ये आत्म-अवलोकन का समय है। क्या वे सब मिलकर उन कारणों की समीक्षा करेंगे जिनकी वजह से ग्वालियर की बदनामी हुई है। मुझे लगता है कि गैर जिम्मेदार लोग ही इस दुर्दशा के लिए दोषी हैं।
ऐसे लोगों को दण्डित करने के लिए भादंसं में कोई प्रावधान नहीं है, इसलिए जरूरी है कि जो ग्वालियर से प्रेम करते हैं, जो ग्वालियर के नमक का हक अदा करना चाहते हैं वे सब आगे आएं। जनता, जन प्रतिनिधियों और नौकरशाही को जगाएं ताकि अगले साल ग्वालियर की सूरत कुछ बदली दिखाई दे। राजनीति से ऊपर उठकर ईमानदारी से शहर की चिंता ही इस दुर्दशा से बाहर निकलने का एकमात्र रास्ता है। आज भी ग्वालियर को कुछ दिया नहीं जा रहा उलटे छीना जा रहा है। ताजा आदेश क्षेत्रीय शासकीय मुद्रणालय को बंद करने का है। (मध्यमत)
डिस्क्लेमर- ये लेखक के निजी विचार हैं।
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