आत्मज्ञानी राष्ट्र-ऋषि सावरकर

प्रो. उमेश कुमार सिंह

भद्रं इच्छन्त ऋषयः स्वर्विदः
तपो दीक्षां उपसेदुः अग्रे।
ततो राष्ट्र बलं ओजश्च जातम्।
तदस्मै देवा उपसं नमन्तु।।
“आत्मज्ञानी ऋषियों ने जगत कल्याण करने की इच्छा से सृष्टि के प्रांरभ में जो दीक्षा लेकर तप किया, उससे राष्ट्र निर्माण हुआ, राष्ट्रीय बल और ओज भी प्रकट हुआ। इसलिए सब विबुध इस राष्ट्र के सामने नम्र होकर इसकी सेवा करें।’’

इस परिप्रेक्ष्य में वीर सावरकर को समग्रता से समझना हो तो उनके व्यक्तित्व और कृतित्व को समझना होगा। भारतीय बहुलवादी समाज में सावरकर के विचारों के पक्ष-विपक्ष के अध्ययन के लिए उनके राजनीतिक विचारों की वर्तमान समय में प्रासंगिकता, चिंतन-पृष्ठभूमि उनकी हिंदू राष्ट्र की अवधारणा, विचार और दर्शन को भी समझना होगा।

ध्यातव्य है कि 19वीं और 20वीं शताब्दी के भारत में अध्यात्म दर्शन, संस्कृति, विद्या, व्यवसाय और राजनीति के क्षेत्र में श्री रामकृष्ण परमहंस, श्री अरविन्द, स्वामी विवेकानंद, महात्मा गांधी, नेताजी सुभाषचंद्र बोस, लोकमान्य तिलक, गोपालकृष्ण गोखले, सुरेन्द्रनाथ बैनर्जी, दादाभाई नौरोजी, रासबिहारी बोस, मदनमोहन मालवीय, लाला लाजपत राय, चित्तरंजन दास, डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद और विनायक दामोदर सावरकर जैसी अनेक महापुरुषों की एक ऐसी विराट श्रृंखला ने जन्म लिया, जो किसी भी समाज में एक साथ कभी-कभी ही जन्म लेती हैं।

इन तत्कालीन श्रेष्ठ नायकों के बीच वीर सावरकर की विशिष्टता यह है कि उन्‍होंने दर्शन, अध्यात्म, इतिहास, संस्कृति और साहित्य का गहरा अध्ययन था जिसके आधार पर उन्होंने उसकी गहरी विवेचना की। सावरकर पहले राष्ट्रीय युवा थे जिन्होंने 22 वर्ष की उम्र में विदेशी वस्त्रों की होली, गांधी के विदेशी वस्त्रों के बहिष्कार से पहले जलाई। वे पहले ऐसे भारतीय भी थे जिन पर अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय में मुकदमा चलाया गया और एंग्लो-सेक्सन लॉ से ब्रिटिश शासन के एजेण्टों ने दो बार का आजीवन कारावास सुनाया और दण्ड दिया।

लंदन में पढ़ने वाले वे अकेले भारतीय विद्यार्थी थे जिन्हें बैरिस्टर की परीक्षा पास करने के बाद भी उस समय उपाधि इसलिए नहीं दी गई क्योंकि उन्होंने ब्रिटिश क्राउन के प्रति निष्ठा की शपथ लेने से मना कर दिया था। यह वह शपथ थी जो श्री मोहनदास करमचंद गांधी, श्री जवाहर लाल नेहरू सहित सौ से अधिक भारतीयों ने लंदन में पढ़ाई के बाद बिना किसी हिचक के ली थी और ब्रिटिश शासन के प्रति अपनी असंदिग्ध निष्ठा की घोषणा के साथ ही राजनीति शुरू की थी, किन्तु वीर सावरकर ने ऐसी किसी निष्ठा की शपथ नहीं ली।

इस प्रकार हम पाते हैं कि उनके राष्ट्रीय राजनैतिक आचरण पर जो अंग्रेजों से समझौता करने का आरोप तथाकथित राजनैतिक लोगों द्वारा लगाया जाता रहा है, वह न केवल राजनैतिक विद्वेष से प्रेरित है, बल्कि असत्य भी। हिंदुत्व के पुरोधा वीर सावरकर का स्वतंत्रता सेनानी के रूप में भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में योगदान का मूल्यांकन भी अभी तक नहीं किया गया है। जब अंग्रेज अधिकारी रैड का वध करने के कारण 1898 में चाफेकर बन्धुओं को फाँसी पर लटका दिया गया था, उसी समय 15 वर्षीय बालक दामोदर विनायक सावरकर ने अपनी कुलदेवी के समक्ष हुतात्माओं को श्रद्धांजलि देते हुए शपथ ली थी कि वे चाफेकर बंधुओं के कार्य को आगे बढ़ाएँगे।

इतिहास साक्षी है कि सावरकर जी सतत् रूप से स्वतत्रता संघर्ष करते रहे। उन्होंने मित्र-मेला, अभिनव-भारत, स्वतंत्र भारत-संघ, हिन्दूसभा जैसी अनके संस्थाओं के माध्यम से राष्ट्र एवं लोकहित के अनेक कार्य किए। उन्हें दो आजीवन कारावासों की सजा हुई थी। 1910 में उन्हें कालापानी की सजा के लिए अण्डमान भेजा गया था। वहाँ कोल्हू चलाने जैसे श्रम-साध्य कार्य करने होते थे। स्वतंत्रता संग्राम में बढ़ चढ़ कर भाग लेने के कारण ब्रिटिश सरकार ने उनकी सम्पत्ति जब्त कर ली थी ।

विनायक दामोदर सावरकर की राष्ट्रीयता की अवधारणा का विश्लेशण उनके उपन्यासों के अध्ययन से किया जा सकता है। इनके सान्निध्‍य में आये भोग-विलासी भी त्यागी बने, उदास-आलसी उद्यमी बने, संकुचित स्वार्थी-परोपकारी बने, जो केवल अपने परिवार में डूबे रहते थे,  वे देश-धर्म के संबंध में सोचने लगे। तात्पर्य है कि वीर सावरकर ऐसे अद्वितीय स्वतंत्रता प्रेमी थे जिन्होंने कभी भी यूरोक्रिस्चियन सभ्यता और ब्रिटिश शासन के प्रति निष्ठा की कोई शपथ नहीं खाई और न कभी उसके लिए कोई कार्य किया। उन्होंने सदा ही भारतीय सभ्यता, हिन्दू संस्कृति और भारत राष्ट्र तथा भारतीय शासन लाने की ही शपथ खाई, उसी के लिए काम किया।

सामाजिक कुरीतियों सम्बन्धी उनके विचारों को समझें तो स्पष्ट होता है कि सावरकर जी कितने सजग थे। उन्होंने पूरी शक्ति के साथ कहा ‘’अस्पृष्यता हमारे देश और समाज के मस्तक पर कलंक है। हमारे अपने ही हिन्दू समाज के, धर्म के, राष्ट्र के साथ करोड़ों हिन्दू बंधु अभी तक इससे अभिशप्त हैं। हम अपने ही बंधुओं को अस्पृश्य मानते हैं और अपने निकट वैसे ही नहीं आने देते जैसे कि किसी अब्दुल रशीद, औरंगजेब अथवा पूर्वी बंगाल में कत्लेआम करने वाले विधर्मी धर्मोन्मत्त व्यक्ति को।‘’

अन्तर्विरोधों से ग्रसित हिन्दू समाज को सामाजिक समरसता के लिए वे कहते हैं, हिन्दुओं कुत्ते को छूते हो, सर्प को दूध पिलाते हो, प्रतिदिन चूहे का खून चूसने वाली बिल्ली के साथ बैठकर एक ही थाली में खाते हो, तो फिर हे हिन्दुओ! अपने ही जैसे इन मनुष्यों को, जो तेरे ही राम और देवताओं के उपासक हैं, अपने ही देश बान्धवों को छूने में तुम्हें किस बात की शर्म लगती है? त्याग दो यह शर्म! अपनी इस शर्म पर शर्मिंदा होना चाहिए।

सावरकर ने पहला कार्य यह किया कि जातिभेद और जात्याहंकार के विरुद्ध आवाज उठाई। उन्होंने कहा जाति भेद, जात्याहंकार हमारे गंगा प्रवाह को विभक्त कर रहा हैं- ‘’आज जातिभेद देश हित के लिए अत्यंत घातक है, यह सिद्ध करने के लिए प्रमाणों का अभाव नहीं। एक साधारण सा प्रमाण तो यही है कि वर्षों से ‘रोटीबंदी’ और ‘बेटी बंदी’ के सहस्त्रों गडढों में जो अपनी हिन्दू जाति का गंगा-प्रवाह विभक्त हो गया है, उसको वहाँ पड़े-पड़े सड़ा देने वाला कारण भी जाति भेद ही है। अतः यह सर्वथा घातक है और इसका कुछ न कुछ उद्धार तो होना ही चाहिए।‘’

वीर सावरकर जी ने सावधान करते हुए कहा था अछूतपन-‘‘ब्राह्मणों से लेकर चाण्डाल तक सारे के सारे हिन्दू समाज की हड्डियों को, उनमें प्रवेश कर, चूस रहा है और सारा का सारा हिन्दू समाज इस जात्यांहकारगत द्वेष के कारण जातीय कलह प्रबलता से जीर्ण-शीर्ण हो गया है।‘’

ईसाइयत के विषय में गांधी जी की ही तरह वीर सावरकर को भी गहरी जानकारी थी। गांधी जी ने विविध ईसाई पंथों के बीच शताब्दियों चले खूनी संघर्ष का कोई जिक्र नहीं किया, यद्यपि उन्हें उस तथ्य की जानकारी थी, तथापि वीर सावरकर ने उस तथ्य को भली-भांति प्रस्तुत किया। इसी प्रकार कितनी तरह के छल-बल से ‘कन्वर्जन’ का कारोबार चलाया जा रहा है, इसका भी प्रामाणिक दृष्टांतों सहित विवरण उन्होंने प्रस्तुत किया। आज भी इन तथ्यों से भारतीय समाज उचित प्रेरणा ले सकता है। यदि हमारे विद्वान लोग अपने ही समाज को तथ्य तक न बतायें तो फिर उनकी विद्वत्ता तो समाज में भ्रम ही पैदा करने वाली सिद्ध होगी। इस प्रकार हम देखते हैं कि सावरकर जी केवल प्रखर राष्ट्रीय विचारक ही नहीं तो एक समाज सुधारक एवं भारतीय समाज में व्याप्त कुरीतियों एवं रूढ़िवादिता के विरोधी थे।

वे ऐसे महान साहित्यकार थे जिन्होंने अपनी स्मृति के बल पर अडंमान की कालकोठरी में कीलों, कांटों और नाखूनों से दीवारों पर लिखकर तथा भारतीय सहबंदियों को उनके अंश कंठस्थ कराकर देशवासियों तक पहुँचाया। वीर सावरकर एक अत्यंत उत्कृष्ट राष्ट्रीय कवि हैं। मराठी में लिखी राष्ट्रभक्ति से भरपूर उनकी कविताएँ आज भी पाठकों को रोमांचित कर देती हैं। उनके उपन्यास जहाँ हिन्दू समाज और भारतीयों के भीतर आत्मगौरव का संचार करने में समर्थ हैं, वहीं जाति-भेद और अस्पृश्यता के विरुद्ध उनकी लेखनी आग उगलती है, वैसा तेजस्वी लेखन इस विषय पर गांधी जी का भी नहीं है।

एक लेखक के रूप में वीर सावरकर ने भारतीय इतिहास का भी सार-संक्षेप बहुत ही रोचक और प्रभावशाली ढंग से जनता के समक्ष प्रस्तुत किया है। ‘भारतीय इतिहास के छह स्वर्णिम पृष्ठ” का जैसा लेखन उन्होंने किया है, वैसा किसी भी अन्य भारतीय लेखक ने आधुनिक युग में नहीं किया है। वीर सावरकर की भाषा ओज और भावों से भरी हुई है।

सावरकर का कुंडलिनी कृपाण युक्त भगवा ध्वज ज्ञानस्वरूप् प्रकाश के आगे धरने से ज्ञान-चक्षुओं को दिखाने वाले अभ्युदय तथा निःश्रेयस् के चिह्न प्रकट करता है। स्वतत्रंता प्राप्ति के बाद सावरकर कहते हैं कि ‘’मैं अपने घर में 15 अगस्त को दोनों ध्वज फहराता हूँ जिसमें एक होता है स्वतंत्रता का प्रतीक संविधानधृत तिरंगा और दूसरा परंपरा एवं संस्कृति का संवाहक, निःश्रेयस् और अभ्युदय का प्रतीक ऊँकार युक्त कुण्डलिनी कृपाणांकित गेरुआ ध्वज।‘’

11 मई 1952 को एक भाषण में सावरकर जी कहते हैं- ‘’आज का धर्म-अब अपना साध्य स्वाधीनता-संपादन नहीं, स्वाधीनता-संरक्षण है, राष्ट्र-संवर्धन है। अब निर्बन्ध-तुच्छता नहीं, निर्बन्धशीलता विध्वंसक नहीं रचनात्मक प्रवृति यह हमारा राष्ट्र-धर्म है।“ यह कथन देश को आज एक ऐसा संदेश है जो सभी पूजापंथियों, मतावलम्बियों के एकता के साथ देश की प्रगति में जुटने को कहता हैं।

अत्यधिक अस्वस्थ हो जाने पर अंदमान से तो उन्‍हें मुक्त किया गया, पर रत्नागिरि में स्थानबद्ध रखा गया। समरसत्ता, लोकजागरण, धर्मशुद्धि, पतितपावन मंदिर की स्थापना, सहभोज आदि कार्यक्रम करते हुए वे साहित्य साधना करते रहे। इस अवधि में चार नाटक- 1. संन्यस्त खड्ग, 2. उःश्राप, 3. बोधिवृक्ष तथा 4. उत्तरक्रिया लिखे। सावरकर जी का मानना था कि, कला के बढ़ते वैज्ञानिक ज्ञान में यदि हमारा आज का ज्ञान गलत और अहितकारक सिद्ध हो तो वह बाधक न बने। सावरकर अपने जीवन के पूर्वार्द्ध में सशस्त्र क्रांतिकारी एवं उत्तरार्द्ध में दूरदर्शी राजनीतिज्ञ रहे। अद्भुत जिजीविषा अप्रतिम देशभक्ति, प्रखर वक्तृत्व, अनुपमेय साहस, दुर्धर सघंर्ष, विज्ञाननिष्ठता उनकी पहचान है।

वे ऐसे प्रथम भारतीय लेखक थे जिनकी पुस्तकें छपने से पहले ही इंग्लैण्ड और फ्रांस की सरकारों ने जब्त घोषित कीं। उन्होंने लगभग 80 लेख लिपि-शुद्धि पर लिखे। संस्कृत, हिन्दी, मराठी, गुजराती और अंग्रेजी के साहित्य का उनका अध्ययन विराट था। सावरकर जी एवं उनके साहित्य का मूल्यांकन इसी दृष्टि से किये जाने की आगे भी आवश्यकता है।

जिस योग की चर्चा आज दुनिया भर के देशों में हो रही है, विश्व योग दिवस मनाया जा रहा है, उस समय उसके बारे में उनका मानना था कि योग ऐसा विषय है जिसमें कोई धर्म आड़े नहीं आता। सावरकर जी से कोई योग के बारे में पूछता तो कहते, “योग यह चर्चा का विषय नहीं है, यह स्वंय करके अनुभव लेने का शास्त्र है।” योग साधना के बल पर ही उन्होंने कहा था “मृत्यु! तुम आ रही हो तो आओ! कौन डरता है तुमसे।”

इस प्रकार स्पष्ट है कि वे एक अच्छे प्रेरणादायक कवि, समाज सुधारक, इतिहासकार, वैज्ञानिक दृष्टि से युक्त, सीधी एवं सरल भाषा में अपने विचार रखने वाले प्रखर वक्ता, पत्रकार, भाषाविद्, विद्वान, अनुवादक, प्रकाशक, कुशल, संगठनकर्ता, कर्मयोगी एवं महायोगी थे। वीर सावरकर का साहित्य सब तरह से प्रेरणादायक और अध्ययन तथा अनुशीलन के योग्य है। कह सकते हैं कि सावरकर जी बहुभाषा-पंडित थे, तब भी उनका प्रभुत्व तथा उन्हें संस्कृत से अनुराग था। कालिदास और भवभूति उनके प्रिय कवि थे। रघुवंश और कुमारसम्भव उनकी जिहृा पर सदा नर्तन करते रहते थे। उनका प्रिय ‘स्वतंत्रता-स्तोत्र-
‘जयोऽस्तु ते श्रीमहन्मड्गंले शिवास्पदे शुभदे।
स्वतंत्रते भगवति! त्वामहं यषेयुतां वन्दे।।
-जो आकाशवाणी से प्रसारित होता था।

हिन्दू की परिभाषा भी सावरकर ने संस्कृत में रची, जो आज काफी प्रसिद्धि प्राप्त है-
आ-सिंधु सिंधु पर्यन्ता यस्य भारत-भूमिका।
पितृ भुः पुण्यभूश्चेवस वै हिन्दुरिति स्मृतः।।
सावरकर लिखते हैं- ‘’संस्कृत भाषा चिरकाल तक हमारी जाति की अनमोल धरोहर बनकर स्थित रहेगी। कारण, हमारे लोगों की मूलभूत एकता उसके द्वारा दृढ़ नींव पर खड़ी हुई है। हमारा जीवन उसने सम्पन्न किया। हमारी आकांक्षाएँ उसने उदात्त बनाई और हमारे जीवन का स्त्रोत निर्मल किया।’’

खण्डित स्वराज्य प्राप्ति का वीर सावरकर को हमेशा दुःख रहा। 10 नवम्बर, 1957 को 1857 के प्रथम स्वतत्रंता संग्राम के शताब्दी समारोह में नई दिल्ली में सावरकर जी मुख्य वक्ता थे। 8 अक्टूबर, 1959 में उन्हें पुणे विश्वविद्यालय द्वारा डी.लिट् की मानद उपाधि दी गई तथा सितम्बर, 1966 से तीव्र ज्वर से लगातार पीड़ित रहने के कारण अस्वस्थतावश मृत्यु पर्यन्त उपवास का व्रत धारण करते हुए दिनांक 26 फरवरी, 1966 को प्रातः 10 बजे मुम्बई में यह युगांतकारी व्यक्तित्व इस संसार से चल बसा।
कुछ श्रद्धांजलियाँ उनके जीवन की विराटता को दिखाती हैं-
सावरकर मेरे जीवन के प्रथम क्रांतिकारी आदर्श थे, जिन्होंने हमें भरपूर प्रोत्साहित किया।– श्री राजगोपालचारी
श्री सावरकर एक पुरानी पीढ़ी के महान क्रांतिकारी थे। उन्होंने परतंत्रता की शासन व्यवस्था से मुक्ति के लिये विस्मयजनक मार्गों का अवलम्बन किया था। राष्ट्र स्वतंत्रता व्यवस्था के लिये उन्होंने अनंत यातनाएँ झेली थीं, उनका जीवन-चरित्र नयी पीढ़ी के लिये आदर्श हैं।-पूर्व राष्ट्रपति स्‍व. डॉ. राधाकृष्णन
सावरकर समकालीन भारत की एक महान विभूति थे और उनका नाम साहस और देश भक्ति का पर्याय है। वे एक आदर्श क्रांतिकारी के सांचे में ढले थे और अनगिनत लोगों ने उनके जीवन से प्रेरणा ली।-पूर्व प्रधानमंत्री स्व. इंदिरा गांधी
सावरकर एक महान देश भक्त और भारतमाता के यशस्वी पुत्र थे। यदि भारत के लोग सावरकर को भारतीय इतिहास में एक महत्वपूर्ण स्थान नहीं देते, तो यह देश के प्रति उनकी कृतघ्नता होगी।– श्री मोहम्मद करीम छागला
वीर बहुत हुए, होगें भी बहुत, लेकिन इनके समान नहीं, इस उक्ति को यथार्थ से सिद्ध करने वाले थे नर-शार्दुल अर्थात् वीर सावरकर।’– श्री बाला साहेब देवरस
अफसोस की बात है कि लोग पढ़ते नहीं हैं और सुनी-सुनाई बातों पर बहस करना शुरू कर देते हैं। सावरकर बहुत बड़े स्वतंत्रता सेनानी थे। सालों तक उन्होंने अंदमान में कालापानी की सजा काटी। उन्हें कोल्हू का बैल बनाया गया; कोई एक दिन भी वैसी सजा काट कर दिखाये तो फिर मैं उसे मानूं।– श्री वंसत साठे, पूर्व केन्द्रीय मंत्री
वास्तव में सावरकर मात्र एक व्यक्ति विशेष का नाम नहीं है। वह एक तप है, तेज है, तलवार है, त्याग है, तपस्या है और साहस, संकल्प, संघर्ष, संगठन, साधना और साथ ही सहनशीलता और सृजन हैं।– स्व. श्री अटल बिहारी वाजपेयी, पूर्व प्रधानमंत्री
यह सावरकर की मेधा ही है जिसके कारण किसी सदन के सांसद न होते हुए भी आज सावरकर जी को हम भारत के संसद भवन में देख सकते हैं। देश उनका कृतज्ञ है।
(लेखक स्वामी विवेकानंद कैरियर मार्गदर्शन योजना, मध्यप्रदेश के निदेशक हैं।)

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