शशांक दुबे
हमारे लोक में हिन्दी दोहों की एक सुदीर्घ परंपरा रही है। कभी कबीर के दोहे अपने समय की विसंगतियों पर नुकीला प्रहार करते हुए सीधे श्रोता और पाठक के दिल को भेद दिया करते थे। साहित्य की इस रसप्रद विधा की ताकत को बिहारी सतसई के दोहे ‘सतसइया के दोहरे, ज्यों नावक के तीर, देखन में छोटे लगत, घाव करे गंभीर’ से समझा जा सकता है। आज भी कवि सम्मेलनों और नशिस्तों में दोहों के माध्यम से कविगण मंच लूट लेते हैं। बावजूद इसके लिखित साहित्य में जैसे-जैसे ‘पढे-लिखे’ लोगों का प्रवेश होता जा रहा है, दोहों, छंद बद्ध काव्य, तरन्नुम में गाए जाने वाले गीत और श्रोताओं के अंतस में उतर जाने वाले शेरों का स्थान लयहीन (अ) कविताएं लेने लगी हैं।
आज कविता के नाम पर शब्दकोश में से कुछ क्लिष्ट शब्द उठाकर एक पैरा लिख उसे बीस-पच्चीस टूटी-फूटी पंक्तियों में बिखराने को ही कविता कर्म मान लेने की प्रवृत्ति का परिणाम यह हुआ है कि काव्य से आम पाठक दूर होता जा रहा है। ऐसे में साहित्य के अध्येता और प्रमुख व्यंग्यकार ओम वर्मा ने अपने साप्ताहिक कॉलम के माध्यम से साहित्य की इस भूली बिसरी विधा में सार्थक हस्तक्षेप किया है।
दोहा पढ़ने में जितना सरल, सुनने में जितना ग्राह्य दिखता है, वास्तव में उसका सृजन उतना आसान नहीं होता, क्योंकि दोहे को उसकी शास्त्रीय परिभाषा के अनुरूप मात्राओं के तयशुदा अनुपात के अनुसार गढ़ना पड़ता है। इनमें छंद का अनुशासन बहुत ज़रूरी है। मात्रा की सही गणना के अलावा गणदोष व लयभंग से भी बचना नितांत आवश्यक है। तिस पर भी यदि यह दोहा तात्कालिक घटना पर लिखना हो और निरंतर लिखना हो, तो यह एक मैराथन काम ही होता है।
ओम वर्मा जी समसामयिक घटनाओं पर दोहों के रूप में टिप्पणी के इस कॉलम को प्रति शनिवार मुख्य रूप से एक लोकप्रिय सांध्यकालीन दैनिक में तो लिख ही रहे हैं, साथ ही यह कॉलम इंदौर शहर के एक सबसे पुराने दैनिक व उनके गृहनगर के एक सांध्यकालीन दैनिक में भी उतने ही चाव से पढ़ा जा रहा है। शनिवार 20 फरवरी 2021 को उनके इस स्तम्भ की 100 वीं आवृत्ति प्रकाशित हुई है। किसी अच्छे काम को शुरू करना जितना मुश्किल है, उससे कहीं ज्यादा मुश्किल उसे जारी रखना है। इस निरंतरता के लिए मेहनत, लगन, प्रतिबद्धता और एक किस्म की ज़िद की दरकार होती है।
दोहों से ओम वर्मा के जुड़ाव की कहानी बड़ी दिलचस्प है। उन्होंने पहला दोहा लगभग 23-24 साल पहले लिखा था। उन दिनों अरब देशों के कुछ अमीरों द्वारा हैदराबाद आकर अपनी दौलत के दम पर कच्ची उम्र की लड़कियों से शादी करने का मामला बहुत उछला था। तब उन्होंने अपने विचार कुछ यूं व्यक्त किए थे-
पुष्प चुनें, कलिका नहीं, सुन लें सभी नरेश।
कलिका में ही है निहित, नवजीवन संदेश॥
इसके बाद वरिष्ठ कथाकार प्रकाश कांत के सुझाव पर उन्होंने कुछ और दोहे लिखे, जिन्हें पढ़कर मुंबई के वरिष्ठ गीतकार अनुपम ने यह प्रेरक टिप्पणी की कि “इतना अच्छा लिखने के लिए शायद कुमार गंधर्व के शहर में रहना होगा!” इससे लेखक का आत्मविश्वास बढ़ा और दोहों की शुरुआत हुई। मार्च 2019 की बात है। एक तरफ देश में चुनाव का शंखनाद हो चुका था, दूसरी ओर देशवासियों के मन में पुलवामा हमले के जख्म भरे नहीं थे। ऐसे में पाकिस्तान की ओर से यह विज्ञप्ति जारी की गई कि भारत के बताए 22 स्थानों पर कोई आतंकवादी शिविर नहीं है। इस घटना पर ओम जी ने 30 मार्च 2019 को ‘विजय दर्पण टाइम्स’ और ‘राष्ट्रीय नवाचार’ के लिए यह दोहा लिखा-
पूछ रहे हो चोर से, कहाँ ख़ज़ाना गुप्त।
हो जाएगा माल ले, वह दुनिया से लुप्त॥
इसी के साथ तत्कालीन समसामयिक घटनाओं पर उन्होंने कुछ टिप्पणियाँ और दोहे भी लिखे। इन्हें पाठकों ने बहुत पसंद किया। जब अखबार की कतरन सोशल मीडिया पर शाया की गई तो वहाँ भी भरपूर सराहना मिली। तभी व्यंग्यकार ब्रजेश कानूनगो ने उन्हें टिप्पणियों के बजाए सिर्फ दोहे लिखने का सुझाव दिया और कारवाँ चल निकला। कुछ ही हफ्ते बाद ‘इंदौर समाचार’ में भी यह कॉलम कुछ कार्टूनों के साथ प्रकाशित होने लगा। कुछ अंक उज्जैन के अक्षर विश्व में भी प्रकाशित हुए। सौ सप्ताह के इस लंबे रोचक सफर में कई दोहे तो इतने मारक थे कि सुधि पाठक उन्हें आज भी याद कर मुस्कुराए बिना नहीं रहते। मसलन चुनाव के दौरान जब मध्यप्रदेश में दलबदलुओं के कदम नहीं थम रहे थे और पाँच माह में दो दर्जन नेताओं ने अपने दल से किनारा कर लिया था, तब इस पर ओम जी ने कुछ यूं लिखा-
गयाराम से यों कहें, हँसकर आयाराम।
हम पंछी उस डाल के, जहाँ पक रहे आम॥
इसी प्रकार जब राहुल गांधी ने ‘मोदी छह माह बाद घर से नहीं निकल पाएगा। युवा इसे डंडा मारेंगे’ जैसा नकारात्मक और अशिष्ट वक्तव्य दिया, तब ओम जी ने अपने दोहे के मार्फत कुछ इस तरह टिप्पणी की थी-
राहुल जी मत बोलिए, ऐसी कोई बात।
बैठे बैठे भाजपा, पा जाए सौगात॥
कोरोना काल में सोनू सूद द्वारा मजदूरों को बस और ट्रैन से उनके गंतव्य पहुँचाने के नेक कार्य पर उनका दोहा इस तरह आया-
हमको तुम पर गर्व है, प्यारे सोनू सूद।
नेता से तुममें अधिक, मानवता मौजूद॥
दूसरी ओर महाराष्ट्र के भंडारा जिले के सरकारी अस्पताल में आग से 10 शिशुओं की मौत पर उन्होंने इन करुण पंक्तियों से पाठकों को भाव-विव्हल कर दिया-
कर देना ईश्वर हमें, अगर हो सके माफ़।
मासूमों के साथ हम, कर न सके इंसाफ़॥
एक समर्थ, संतुलित और संवेदनशील रचनाकार के रूप में ओमजी ने हमेशा देश में समावेशिता की कामना की है। तभी तो जब अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के शताब्दी समारोह में प्रधान मंत्री ने नए भारत के निर्माण का आह्वान किया, तो उन्होंने लिखा-
एक हाथ में संगणक, दूजे में क़ुर्आन।
गर्व करेगा आप पर, सारा हिंदुस्तान॥
असम में जब सभी राज्य संचालित मदरसे और संस्कृत स्कूल बंद करने का निर्णय लिया गया, तो इस पर उन्होंने अपनी तटस्थ टिप्पणी इस तरह की-
शिक्षा देना धर्म की, है समाज का काम।
उचित नहीं सरकार से, लेना इसके दाम॥
कई बार ओम जी सामान्य सी दिखने वाली छोटी-छोटी घटनाओं पर भी बहुत बारीक टिप्पणी कर देते हैं। जब हाथरस रेप पीडिता के परिवार से मिलने जाते समय पुलिस के रोके जाने पर पहले राहुल गांधी व अगले दिन डेरेक ओ’ ब्रायन गिर पड़े, तो उन्होंने यूं चुटकी ली-
नेताओं का यह पतन, है चिंता की बात।
इनका गिरना देश को, दे सकता आघात॥
जब मध्यप्रदेश कांग्रेस ने राम-मंदिर निर्माण को पूर्व पीएम राजीव गांधी का सपना बताकर चंदा इकट्ठा करना शुरू किया, तब ओम जी चुप कैसे बैठते-
बोल चुके जो कोर्ट में, महज़ कल्पना राम।
अब उनको करना पड़ा, चंदे का भी काम॥
जब ईरान ने पाकिस्तान में सर्जिकल स्ट्राइक करते हुए अपने दो अगवा सैनिक भी छुड़ाए, तो ओम जी ने ‘पाक’ शब्द का एक अलग अर्थ में प्रयोग किया-
जो जब चाहे कर रहा, इन पर शल्य प्रहार।
फिर भी वे सुधरे नहीं, ग़ज़ब पाक सरकार॥
इन सारे दोहों के बीच पाठक उनके इस श्रृंखला के पहले दोहे को आज तक नहीं भूले हैं। उन दिनों चुनाव प्रचार के दौरान राहुल गांधी ने यह चुनावी वादा किया था कि यदि कांग्रेस सत्ता में आई तो पाँच करोड़ ग़रीब परिवारों को हर साल बहत्तर हजार रुपये देगी। इस पर उन्होंने एक मीठी चुटकी ली थी-
राहुल जी क्या मिल गया, पैसे वाला पेड़।
आख़िर किस आधार पर, मार रहे हो रेड़॥
शानदार 100 आवृत्तियों के बाद भी ओम जी का यह रचनात्मक सफर जारी है। उम्मीद करनी चाहिए कि जनवरी 2023 में हम इसकी दो सौवीं और दिसंबर 2028 में पाँच सौवीं आवृत्ति देखेंगे और ऐसा करते हुए जयशंकर प्रसाद की निम्न पंक्तियाँ याद करेंगे-
इस पथ का उद्देश्य नहीं है
श्रांत भवन में टिक रहना
किन्तु पहुंचना उस सीमा तक
जिसके आगे राह नहीं