देश की नदियों में नर्मदा का बहुत विशेष स्थान है। मध्यप्रदेश की तो यह जीवनदायिनी नदी है। लेकिन अपने पवित्र और पुण्यसलिला स्वरूप के लिए पहचानी जाने वाली यह नदी इन दिनों दुर्दशा और उपेक्षा की शिकार है। 19 फरवरी को नर्मदा जयंती है। उसी अवसर पर हम नर्मदा की यात्रा और उसके वर्तमान स्वरूप को लेकर पांच अंकों की यह विशेष श्रृंखला शुरू कर रहे हैं।– संपादक
नर्मदा-कथा-1
प्रमोद शर्मा
मैं नर्मदा हूं। कहने को तो अन्य नदियों की भांति मैं भी जल की अविरल धारा ही हूं, लेकिन मेरे भक्त मुझे नरबदा मैया, रेवा मैया… कहकर सम्मान देते हैं। मैं भी अपने भक्तों को पुत्रों की भांति ही स्नेह देती हूं। अपने जल से उनके खेतों को सींचती हूं और उनके अनाज के भंडार भरती हूं। मैं दुनिया की एकमात्र ऐसी नदी हूं, जिसकी परिक्रमा की जाती है। शाम होते ही मेरे घाट आरती-दीपों से जगमगा जाते हैं। तट जय जगदानंदी… और नमामि देवी नर्मदे… से गूंजने लगते हैं। सालभर कितने ही उत्सव मेरे तटों पर होते हैं, मेले लगते हैं। इन उत्सवों, मेलों और आयोजनों में अपने प्यारे बेटे को हंसते-खेलते देखकर मेरा हृदय भी खिल उठता है। यही तो मैं चाहती हूं कि मेरी संतानें पीढ़ियों तक यूं ही हंसती-खिलखिलाती और संपन्न रहें।
परंतु आज अपनी स्वयं की हालत पर मेरी आंखें नम हैं। बात करते हुए मेरा गला रुध रहा है। मेरे लाल…! यदि तुम देख सकते और समझ सकते तो शायद समझते कि ये जो जल मेरी धारा में बह रहा है, इसमें जल कम, मेरे आंसू अधिक हैं। मैं दिनों-दिन बीमार होती जा रहूं, मेरे लिए इस बीमारी से अधिक पीड़ा इस बात की है, कि इसके लिए कोई और नहीं, मेरे प्यारे पुत्रों तुम ही जिम्मेदार हो। हालांकि, मुझे तुमसे कोई शिकायत नहीं है, लेकिन आज अपनी पीड़ा सुनाने की इच्छा हुई, इसलिए सुना रही हूं।
सबसे पहले मैं आपको अपने जन्म की कहानी सुनाती हूं। विंध्याचल पर्वत श्रेणियों के बीच स्थित अनूपपुर जिले की मेकल पर्वत श्रृंखला में स्थित अमरकंटक से मेरा जन्म होता है, इसलिए मेरा एक नाम मेकलसुता भी है। जिस स्थान से मैं जन्म लेती हूं वह स्थान समुद्र तल से 1052 मीटर ऊपर है। पुराणों के अनुसार मुझे शिवपुत्री भी कहा जाता है। मुझे चिरक्वांरी होने का वरदान भी प्राप्त है। अमरकंटक से निकलकर समुद्र में मिलने तक मैं कुल 1312 किमी की लंबी यात्रा करती हूं। मैंने अपने दोनों तटों पर खुशहाली बिखेरते हुए यह यात्रा पूर्ण की। इतनी लंबी और विविधता भरी यात्रा में मैं 1077 किमी मध्यप्रदेश में, 34 किमी महाराष्ट्र में और 201 किमी गुजरात में बहती हूं।
मेरी इस यात्रा में कहीं चट्टानें हैं तो कही सरपट मैदान हैं। कहीं उपजाऊ कछार हैं तो कहीं बियावान जंगल हैं। कहीं मैं संकरी घाटियों से होकर गुजरती हूं तो कहीं रेत और बालू के बीच बहती हूं। चौड़े मैदानों में मैं लज्जाशील नववधू के समान सावधानी से बहती हूं, तो पर्वतीय प्रदेशों में गांव की अल्हड़ किशोरी की तरह उत्साह-उमंग से कुलांचें भी भरती हूं। भेड़ाघाट में किसी कुशल खिलाड़ी की भांति छलांगें लगाती हूं तो आगे सतधारा में किसी मेहनतकश श्रमिक की भांति चट्टानों पर हथौड़े बरसाती सी दिखती हूं।
मेरे लाल…! मेरी पीड़ा यह है कि तुम्हारी नादानियों और लालच के कारण मैं लाचार होती जा रही हूं। अमरकंटक से निकलते ही मैं तुमसे मिलने के लिए व्याकुल होती हुई जैसे ही सघन वनों से आबादी वाले कस्बों और शहरों में पहुंचती हूं, मेरी दुर्दशा की कहानी भी शुरू हो जाती है। यहीं से शहरों की पूरी गंदगी, मल-मूत्र, गटरों और नालियों के माध्यम से मुझमें उड़ेलने का क्रम शुरू होता है, जो सागर से मिलने तक पड़ने वाले सभी शहरों में जारी रहता है। तटों पर बसे बड़े शहरों मंडला, जबलपुर, होशंगाबाद में तो कुछ घाटों पर मेरा जल आचमन करने योग्य भी नहीं बचा है। मेरे किसान बेटे खेतों में कीटनाशक और रासायनिक खाद का अतिशय उपयोग कर रहे हैं। वह भी बहकर मेरे जल को जहरीला कर रहे हैं। इसके कारण मेरे जल में पलने वाले जलीय जीव नष्ट होते जा रहे हैं। इससे भी मेरे जल का तंत्र गड़बड़ा गया है।
कहां तो मैं अपने दर्शन मात्र से लोगों के पापों को हरने वाली कही जाती हूं और कहां अब लोग गंदगी देखकर मेरे दर्शन से भी कतराने लगे हैं। मेरे बेटो, मैंने तो हमेशा ही अपने जल के रूप में अमृत छलकाया है, लेकिन उसके प्रतिफल के रूप में तुमने मुझे यह जहर दे दिया। मेरे जल से बिजली बनी तो मैंने तुम्हारे घर-आंगन को जगमगा दिया, लेकिन तुमने कालिख ही पोती। अपनी धार के हरेक कंकर को शंकर बनाने की क्षमता रखने वाली तुम्हारी नरबदा मैया के लिए तुम्हारे दिए घाव नासूर बनते जा रहे हैं।
सूरज की भीषण तपन जब इस भारतभूमि की अन्य नदियों को सुखा देती है, तब भी मैं अपनी सखी-सहेलियां यानी सहायक नदियों से बूंद-बूंद जल उधार लेती हूं और उसे संचित करके गांव-गांव पहुंचाती रही हूं, ताकि कोई मानव, जीव, पशु-पक्षी प्यासा न रह जाए। शताब्दियों से चला आ रहा यह सिलसिला अब दरकने लगा है। मेरा जल खजाना तुम्हारे लिए सदा ही खुला रहा है, लेकिन प्यारे बेटो, तुमने खजाने से जो लिया, उसे वापस करने के बारे में कभी सोचा ही नहीं। तुम्हारी नादानियों, अपने खजाने भरने और लालच के कारण मेरा यह अनूठा वैभव अब खाली होता जा रहा है। मेरा तंत्र छिन्न-भिन्न हो चुका है।
मेरा जो स्वरूप आज तुम देख रहे हो, यह स्वाभाविक और प्राकृतिक नहीं है। बांधों की बाधाओं और बेड़ियों ने मेरी चंचलता और अल्हड़ता पर प्रतिबंध सा लगा दिया है। मेरी लहरों से उठने वाले कल-कल निनाद के मधुर स्वर अब सीमेंट-कांक्रीट की दीवारों में कहीं घुटकर रह गए हैं। कोई समय था जब मैं एक चपल हिरणी की तरह अपनी ही मौज और उत्साह में उछलती-कूदती चलती थी। जो मेरी लहरों को बढ़ते देखता, बस देखता ही रह जाता। यही कारण है कि मेरे अनन्य भक्त अमृतलाल वेगड़ ने लिखा भी था कि यदि कहीं नदियों के सौंदर्य की प्रतियोगिता हो तो नर्मदा उसमें निर्विवाद रूप से प्रथम रहेगी।– (जारी)