दीनदयाल उपाध्याय और राष्ट्र का सांस्कृतिक एकात्म

पुण्यतिथि पर विशेष
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जयराम शुक्ल

पण्डित दीनदयाल उपाध्याय स्वतंत्र भारत के तेजस्वी, तपस्वी व यशस्वी चिन्तकों में से एक हैं। उनके चिन्तन के मूल में लोकमंगल और राष्ट्र का कल्याण सन्निहित है। उन्होंने राष्ट्र को धर्म, अध्यात्म और संस्कृति का सनातन पुंज बताते हुए राजनीति की नयी व्याख्या की। वे गांधी, तिलक और सुभाष की परम्परा के वाहक थे। दलगत व सत्ता की राजनीति से ऊपर उठकर वे वास्तव में एक ऐसे राजनीतिक दर्शन को विकसित करना चाहते थे जो भारत की प्रकृति व परम्परा के अनुकूल हो और राष्ट्र की सर्वांगीण उन्नति करने में समर्थ हो।

अपनी व्याख्या को उन्होंने एकात्म मानव दर्शन का नाम दिया। यही दर्शन 1964 में जनसंघ के ग्वालियर अधिवेशन में अंगीकार किया गया। पण्डितजी की व्याख्याएं मौलिक और यथार्थ के धरातल पर साकार होने वाली थी। उनका दृढ़मत था कि बहुलतावादी देश में मत व मन भिन्नता हो सकती है पर इन सबके बीच राष्ट्र की एक सामान्य इच्छा नाम की कोई चीज होती है, उसीको आधार बनाकर काम किया जाए तो सर्वसामान्य व्यक्ति को लगता है कि मेरे मन के मुताबिक कार्य हो रहा है।

‘Think locally act globally’ यह पण्डित जी की ही अवधारणा थी, जो वैश्वीकरण के दौर में बार-बार दोहराई जाती रही पण्डित जी कहते हैं- जहाँ तक शाश्वत सिद्धान्तों तथा स्थायी सत्यों का सम्बन्ध है हम सम्पूर्ण मानव के ज्ञान और उपलब्धियों का संकलित विचार करें। इन तत्वों में जो हमारा है उसे युगानुकूल और जो बाहर का है उसे देशानुकूल ढालकर हम आगे चलने का विचार करें।

संस्कृति ही स्वराज का प्राणतत्व है। संस्कृति विहीन, समाज और राष्ट्र पतनशीलता के मार्ग को उन्मुख होता है। पण्डितजी का दृढ़ मत था कि स्वराज का स्व-संस्कृति से घनिष्ठ सम्बन्ध रहता है। संस्कृति का विचार न रहा तो स्वराज की लड़ाई स्वार्थी पदलोलुप लोगों की एक राजनीतिक लड़ाई मात्र रह जाएगी। स्वराज तभी साकार और सार्थक होगा जब वह अपनी संस्कृति की अभिव्यक्ति का साधन बन सकेगा।

जिस दौर में विश्व में पूंजीवाद बनाम साम्यवाद और समाजवाद का द्वंद्व चरम पर था, उसी दौर में पण्डितजी ने एकात्म मानव दर्शन को विश्व के समक्ष प्रस्तुत कर, समकालीन दार्शनिकों, चिन्तकों व नीति वेत्ताओं को चमत्कृत कर दिया था। यही विचार जनसंघ का व प्रकारान्तर में भारतीय जनता पार्टी की आत्मा बना। पण्डितजी ने इस विचार को जिस सरलता से समझाया वैसी अध्यात्म दृष्टि दुर्लभ है। एकात्म दर्शन की व्याख्या करते हुए उन्होंने लिखा- जीवन की विविधता अन्तमूर्त एकता का आविष्कार है और इसलिए उनमें परस्परानुकूलता तथा परस्पर पूरकता है। बीज की एकता ही पेड़ के मूल, तना, शाखाएं, पत्ते, फूल और फल के विविध रूप में प्रकट होती है। इन सबके रंग, रूप तथा कुछ न कुछ मात्रा में गुण में भी अन्तर होता है। फिर भी उनके बीज के साथ के एकत्व के सम्बन्ध को हम सहज पहचान सकते है।

यहां हम पण्डितजी के दो दुर्लभ लेखों का विवेचन करेंगे, पहला लेख है- अखण्ड भारत क्यों? इस आलेख को जनसंघ की उत्तरप्रदेश इकाई ने 1952 में एक पुस्तिका के रूप में प्रकाशित किया था। दूसरा आलेख है- ‘बेकारी समस्या और उसका हल’, इसे जनसंघ की दिल्ली इकाई ने 1953 में प्रकाशित किया था। ये दोनों आलेख पण्डितजी ने तब लिखे थे जब वे महज 37 वर्ष के थे। एक युवा मन और उसका मस्तिष्क, राष्ट्र व राष्ट्रवासियों के बारे में कैसा चिन्तन करता है इन लेखों से सहज स्पष्ट है।

आहत आकांक्षा के स्वर…
अखण्ड भारत कोटि-कोटि भारतीयों की आकांक्षा है। विखण्डन की पीड़ा आज भी हृदय में टीस रही है। एकात्म मानवदर्शन के प्रणेता, चिन्तक और मनीषी पण्डित दीनदयाल उपाध्याय ने स्वतंत्रता प्राप्ति के पाँच वर्ष बाद 1952 में अखण्ड भारत क्यों? के प्रश्न पर मार्मिक और तार्किक तरीके से इस आहत आकांक्षा को स्वर दिया। यह भारतीय जनसंघ की स्थापना का भी वर्ष था। यह वह दौर था जब खण्डित भारत के पाकिस्तान से लुट-पिट और बर्बाद होकर आने वालों की वेदना से देश क्लांत था।

जिन्होंने अंग्रेज शासकों, मुस्लिम लीग के नेताओं के साथ समझौते की मेज पर देश को अंग-भंग करने के निर्णय को सहजता से स्वीकार किया उनके लिए भारत माता के रक्तरंजित होने की व्यथा सत्ता के सिंहासन की लालसा के आगे तुच्छ थी। लेकिन जिन राष्ट्रवादियों के हृदय में भारत माता की अखण्ड छवि रची बसी थी उनके अन्तस में शूल चुभ रहे थे।

अखण्ड भारत क्यों? में देश की सांस्कृतिक, आध्यात्मिक एकरूपता की वैदिक काल से लेकर अब तक की स्थितियों का सहज-सरल तरीके से विवेचन किया गया है। स्वतंत्रता संग्राम के दौर में ही अंग्रेजों के संरक्षण और कांग्रेस के तत्कालीन शीर्ष नेतृत्व की सहमति से ‘पाकिस्तान’ की पटकथा कैसे तैयार हुयी, ऐतिहासिक व राजनीतिक संदर्भों के साथ उन तथ्यों का प्रकटीकरण किया गया है। जिस दौर में देश के सांस्कृतिक राष्ट्रवादियों पर तत्कालीन सत्ता प्रतिष्ठान का दमन चक्र चल रहा था उसी दौर में पण्डितजी ने बड़ी निर्भयता के साथ लिखा- ”भारत को खण्डित करने को लेकर 3 जून 1947 की माउन्टबेटन योजना को कांग्रेस के सर्वोच्च नेताओं ने स्वीकार कर लिया। रक्त बहाकर जिस देश की अखण्डता की रक्षा की गयी थी, उसी देश को रक्तपात के भय से खण्डित कर दिया।‘’

उन्होंने आहत मन से कहा-”रक्त की धार से लिखा हुआ इतिहास स्याही की रेखाओं से व्यक्त नहीं किया जा सकता। आलेख में तथ्यों और तर्कों के साथ पण्डितजी उद्घाटित करते हैं- ‘’भारत को स्वतंत्रता माउन्टबेटन योजना के कारण नहीं मिली, बल्कि अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थितियों, अंग्रेजों की गिरी हुयी दशा तथा भारत की राष्ट्रीय जाग्रति के परिणामस्वरूप प्राप्त हुयी। इसमें एक पर भी मुस्लिम मांग का प्रभाव नहीं है।‘’ दरअसल कांग्रेस की सत्ता पिपासा ने द्विवराष्‍ट्र सिद्धान्त के दूरगामी परिणाम का आकलन किए बगैर ही स्वीकार कर लिया। कांग्रेस की भूल या सत्ताकांक्षा पर आहत पण्डितजी लिखते हैं- ‘’कांग्रेस के नेता यदि डटे रहते तथा भारत की जन जाग्रति की मदद करते तो अंग्रेज अखण्ड भारत छोडक़र जाते और सत्ता कांग्रेस के ही हाथ में देकर जाते।‘’

पण्डितजी ने आज से कोई 65 वर्ष पहले ही भारत पाक के रिश्तों की भावी स्थिति का आकलन कर लिया था। आज हम उनके आकलन की परिणति देख रहे हैं। वर्तमान में भारत में पल रहे मुस्लिम कट्टरवाद की स्थिति व उसके परिणाम का विश्लेषण उन्‍होंने भारत विभाजन के तत्काल बाद ही देश के सामने रख दिया था- ‘’कल तक जो काम लीग एक संस्था के रूप में करती थी आज वही कार्य पाकिस्तान एक राज्य के रूप में कर रहा है। निश्चित ही समस्या का परिवर्तित स्वरूप अधिक खतरनाक है।‘’

पाकिस्तान के निर्माण में सहायक भारत के मुसलमानों की साम्प्रदायिक मनोवृत्ति को भी पाकिस्तान से बराबर बल मिलता रहता है तथा भारत के राष्ट्रीय क्षेत्र में साढ़े तीन करोड़ मुसलमानों की गतिविधि किसी भी सरकार के लिए शंका का कारण बनी रहेगी। पण्डितजी की भविष्यवाणी वर्तमान में शब्दश: चरितार्थ हो रही है। पाक पोषित और प्रेरित आतंकवादियों की एक बड़ी जमात आज भारत में पल रही है। ये वो लोग हैं जो स्वयं और जिनके अग्रज, पूर्वज भारत विभाजन के समय योजना या परिस्थितिवश पाकिस्तान नहीं गए और आज भारतीय होते हुए भी पाकिस्तान की शुभेच्‍छा तब से ही पालेपोसे हुए हैं। पाकिस्तान और वहां तैयार हो रहे आतंकवादी गिरोहों के वे भारतीय एजेन्ट बने बैठे हैं। देश को दहलाने वाली हर आतंकी गतिविधियों में यही चेहरे उभरकर सामने आते हैं।

इन सब स्थितियों के बावजूद चिन्तक और मनीषी पण्डित दीनदयाल उपाध्याय अखण्ड भारत की आकांक्षा की ज्योति को निरंतर प्रज्‍ज्‍वलित किए रहने की आवश्यकता बताते हैं। अखण्ड भारत को भौगोलिक सीमा से ज्यादा सांस्कृतिक सूत्र बांध सकते हैं। देशों के नाम पर वे टुकड़े जो कभी भारत के अविभाज्य अंग थे, उन्हीं को शामिल कर अखण्ड भारत की छवि निर्मित होती है। वहां हमारी सनातनी सांस्कृतिक विरासत बिखरी पड़ी है। कोई आवश्यक नहीं कि इनके एकीकरण के लिए आक्रमण या युद्ध ही हो, एक ऐसा वातावरण निर्मित हो जिसकी बुनियाद में हमारी सांस्कृतिक अस्मिता रहे, जिसके आवेग से विभाजित भारत की सीमा रेखाएं मिट जाएं और अखण्ड भारत पुन: एकाकार हो जाए।

पण्डितजी लिखते है कि- ‘’अखंड भारत के आदर्श की ओर सबका रुझान होने के बाद भी अनेक लोग इसे अव्यवहारिक मानते हैं उनकी समझ में नहीं आता कि भारत अखण्ड कैसे होगा। विभाजन के पूर्व तक पाकिस्तान को भी अव्यवहारिक समझा जाता था, किन्तु कुछ मुसलमानों की दृढ़ इच्छाशक्ति एवं आत्मविश्वास ने पाकिस्तान को सत्य-सृष्टि में परिणत कर दिया। क्या भारत के 38 करोड़ लोगों की दृढ़ इच्छाशक्ति आज खण्डित भारत को एक करने में समर्थ नहीं होगी?’’

कुर्वन्ने वेहि कर्माणि
एकात्म मानवदर्शन के अध्येता युगपुरुष पं. दीनदयाल उपाध्याय ने अपने चिंतन के केन्द्र में ‘मनुष्य’ को ही रखा। कोई भी व्यवस्था ‘मनुष्य’ के कुशल क्षेम के बिना सफल नहीं हो सकती। पण्डितजी ने स्वतंत्रता प्राप्ति के छ: वर्ष बाद ही देश की अर्थनीति और उसके भविष्य का सटीक आकलन प्रस्तुत किया था। यह आकलन एक विस्तारित आलेख ‘बेकारी समस्या और उसका हल’ पुस्तिका के रूप में छपा था। पण्डितजी का यह विचार उस समय आया जब तत्कालीन केन्द्र सरकार पण्डित जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में नई अर्थनीति गढ़ रही थी। पंचवर्षीय योजनाओं की रूपरेखा तैयार की जा रही थी। पण्डितजी के लिये यह आहत करने वाला विषय था कि जिस स्वदेशी को औजार बनाकर स्वतंत्रता संग्राम लड़ा गया उसी स्वदेशी की अवधारणा अर्थनीति के यूरोपीयकरण के पैरों तले कुचली जा रही थी।

एक ओर बेकारी की समस्या बढ़ती हुयी जनसंख्या के साथ विकराल रूप लेती जा रही थी वहीं दूसरी ओर ग्रामोद्योग, कुटीर धंधे दम तोडऩा शुरू कर चुके थे। पण्डितजी लिखते हैं- ”अर्थनीति की दृष्टि से हमारा केन्द्र होना चाहिये मनुष्य। मनुष्य को काम मिले वह सुखी रहे यही हमारा उद्देश्य होना चाहिये। मशीन मनुष्य की सुविधा के लिए है उसका स्थान लेने के लिए नहीं। मनुष्य मशीन का निर्माता है, उसका स्वामी है, उसका गुलाम नहीं।‘’ वस्तुत: देश की अर्थनीति के केन्द्र में भारी उद्योगों का प्रवेश हो चुका था। स्वतंत्रता के बाद आशा यह थी कि स्वतंत्र सरकार अर्थनीति की भारतीय पारंपरिक मौलिकता को पुर्नस्थापित करेगी, संरक्षण व संवर्धन करेगी, लेकिन सब कुछ अंग्रेजों के बनाये गए ढर्रे पर ही चल निकला।

सनातनी संस्कृति और पौराणिक दर्शन को आधार बनाते हुये पण्डितजी ने तब लिखा था- ‘’बेकारी की समस्या यद्यपि आज अपनी भीषणता के कारण अभिशाप बनकर हमारे सम्मुख खड़ी है किन्तु उसका मूल हमारी आज की समाज, अर्थ और नीति व्यवस्था में छिपा है। वास्तव में जो पैदा हुआ है तथा जिसे प्रकृति ने अशक्त नहीं कर दिया है, काम पाने का अधिकारी है। हमारे उपनिषद्कार ने जब यह घोषणा की कि काम करते हुए हम सौ वर्ष जीवें ‘कुर्वन्ने वेह कर्माणि जिजिविषेच्छत्सम:’ तो यही धारणा लेकर चलें कि प्रत्येक को काम मिलेगा। भारत को इसीलिए कर्मभूमि कहा गया है।

पण्डितजी ने आर्थिक योजनाओं का उल्लेख करते हुये कहा- ‘’हमारी योजना का आधार होना चाहिये मनुष्य… भारत की जनसंख्या, उसके गाँव, उसका विस्तार, भारतीय जन की प्रकृति, हमारी समाज व्यवस्था युगों से चली आयी हमारी अर्थनीति की परंपरा आदि का विचार कर आज सभी अर्थशास्त्री इस बात से सहमत हैं कि भारतीय समृद्धि का आधार हमारे कुटीर व ग्रामोद्योग हो सकते हैं।

पण्डितजी ने देश की भावी दशा का पूर्व से ही आकलन कर लिया था इसलिए केन्द्र को जनसंघ की ओर से प्रस्तुत सुझावों में रोजगारपरक शिक्षा, कौशल विकास, कुटीर उद्योगों के संरक्षण व संवर्धन को वरीयता के साथ रखा गया था।  बेकारी की समस्या और उसका हल पुस्तिका में योजना आयोग के सम्मुख कांग्रेस व इंटक, कम्युनिस्ट पार्टी, प्रजा सोशलिस्ट पार्टी द्वारा रखे गये सुझावों का भी उल्लेख किया गया है। उन्होंने अर्थनीति पर अपनी ओर से गणित के छोटे से सूत्र के रूप में अर्थशास्त्र का सिद्धान्त रखते हुए विस्तार से उसकी व्यावहारिकता को बताया।

पण्डितजी ने तत्कालीन व्यवस्था को चेतावनी देते हुए दो टूक शब्दों में कहा- ‘’लोगों के पेट की ज्वाला न तो मीठे शब्दों से बुझती है और न शासन को गाली देने से। उसके लिये रचनात्मक प्रयत्न करने होंगे, तथा अपनी अर्थव्यवस्था की मौलिक कमजोरियों को दूर करना होगा।‘’ पण्डितजी द्वारा लिखे एक-एक वाक्य अर्थवान हैं, आज के सदंर्भ में और कल के संदर्भ के लिये भी। इन्‍हें ध्‍यान से देखें तो एक तस्वीर निश्चित ही स्पष्ट हो जायेगी कि 62 वर्ष पूर्व देश कहाँ खड़ा था, आज कहाँ पहुँचा और इस बीच क्या-क्या भूल-चूक हुयी।

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