मनुष्‍यता की निस्‍वार्थ सेवा ही विवेकानंद के धर्म के केंद्र में है

विवेकानंद जयंती पर विशेष
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गिरीश उपाध्‍याय

भारत में धर्म हमेशा से ही समाज और राजनीति (शासन व्‍यवस्‍था) से संबंधित विमर्श के केंद्र में रहा है। स्वामी विवेकानंद के समय भारतीय समाज में सबसे बड़ा काम धर्म की पुनर्स्‍थापना का था। भारत ही नहीं पूरे विश्व में बुद्धिवादी वर्ग की आस्था धर्म से हटती जा रही थी। धर्म को आडंबर मानते हुए उसे त्याज्य घोषित करना आधुनिक होने का प्रतीक माना जाने लगा था। भारत में पश्चिमी संस्कृति का प्रभाव बढ़ रहा था। पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव में आए लोग हिन्दू धर्म के शाश्वत मूल्यों को भी तब तक स्वीकार करने को तैयार नहीं थे जब तक कि उन्हें यूरोप या अमेरिका से मान्यता न मिल जाए। स्वामी विवेकानद ने भारत के पुनर्जागरण का जो बीड़ा उठाया था उसमें सबसे बड़ी चुनौती थी धर्म की ऐसी व्याख्या करना जो प्राचीन व नवीन मूल्यों में आस्था रखने वाले दोनों वर्गों को सहज स्वीकार्य हो। साथ ही भारतवासियों में अपने धर्म के प्रति आत्मगौरव का भाव जगा सके।

स्वामी विवेकानंद को हम पोंगापंथी धर्मप्रचारकों की श्रेणी में नहीं रख सकते। वे धर्म को लेकर अंधभक्ति या अंधविश्‍वास पैदा नहीं करते बल्कि धर्म की व्यावहारिक व्याख्या करते हैं। धर्म के नाम पर परंपराओं एवं आडंबर का अंधानुकरण करने के बजाय उसे समाज और मनुष्य की प्रवृत्ति से जोड़ते हैं। वे मनुष्य में सत्कर्मों के संचरण को ही धर्म का वास्तविक रूप मानते हैं। उनकी दृष्टि में धर्म और अध्यात्म का मनुष्य के जीवन में सर्वोपरि स्थान है। वे अपने अद्वैत के विचार की व्याख्या यह कहते हुए करते हैं कि प्रत्येक मनुष्य में ईश्वर का वास है, हरेक आत्मा उसी परमात्मा का अंश है और यही असली अद्वैत है। जिस समय विभिन्न धर्मावलंबी और धर्म के शास्त्रीय व्याख्याकार रटे रटाए ढंग से धर्म को प्रस्तुत कर रहे थे, उस समय विवेकानंद ने उसे मनुष्य की भलाई और उसकी सेवा से जोड़ा।

उन्होंने समाज में इस भाव का संचार किया कि दरअसल मनुष्य की निस्वार्थ सेवा ही ईश्वर की पूजा और सेवा है। यही प्रभु की प्राप्ति का असली मार्ग है। मनुष्य के पवित्र और निस्वार्थ होने को ही वे धर्म मानते हैं। उस समय धर्म को इस रूप में परिभाषित करना निश्चित रूप से साहस का काम था। विवेकानंद तो स्वर्ग की कामना करने या श्रेय लेने की खातिर की गई किसी गरीब की सेवा को भी स्वार्थ मानते हैं। वे अपने विचारों की दृढ़ता और स्पष्टता के चलते स्वर्ग और नरक के परंपरागत मिथक को भी तोड़ते नजर आते हैं। उनके अनुसार स्वर्ग की आकांक्षा रखने के बजाय व्यक्ति में यह भाव होना चाहिए कि यदि मेरे नरक में जाने से भी किसी को लाभ हो सकता है तो मैं उसके लिए तैयार हूँ। समाज में परमार्थ और दीन हीन की सेवा के संदेश को स्थापित करने का उनका यह मंत्र उन्हें धर्म के बाकी व्‍याख्‍याकारों से अलग करता है। उनका असली धर्म गरीब की निस्वार्थ सेवा में छुपा है। वे उस धर्म को किसी पोथी, पूजा, मंदिर, सिद्धांत या मत में ढूँढने को व्यर्थ मानते हैं।

लेकिन इसका अर्थ यह भी नहीं लिया जाना चाहिए कि स्वामीजी धर्म को खारिज करते हैं। उलटे वे तो यहाँ तक कहते है कि भारत की उन्नति धर्म को खारिज करके नहीं हो सकती। धर्म को क्षति पहुँचाए बिना जनता की उन्नति ही हमारा आदर्श होना चाहिए। हिन्दू समाज की उन्नति के लिए धर्म का विनाश करने की कोई जरूरत नहीं है। दरअसल ऐसा कहकर वे उस चरमपंथी विचार को ही नकार रहे थे जो कहता है कि धर्म ही सारी बुराइयों की जड़ है। उलटे विवेकानंद ने तो कहा कि धर्म के मार्ग पर चलकर ही समाज उन्नति कर सकता है। व्यक्ति का परिष्कार हो सकता है।

विज्ञान की ताकत के बल पर धर्म को खारिज करने वाले पश्चिमी जगत को भी स्वामीजी ने हिन्दू धर्म की वास्तविकता बताकर उसकी आँखें खोलीं। मुशी प्रेमचंद कहते हैं- ‘’विवेकानंद ने पाश्चात्यों को पहली बार सुनाया कि विज्ञान के वे सिद्धांत जिनका उनको गर्व है और जिनका धर्म से संबंध नहीं, वे हिन्दुओं को अति प्राचीन काल से विदित थे और हिन्दू धर्म की नींव उन्हीं पर खड़ी है। जहाँ अन्य धर्मों का आधार कोई विशेष व्यक्ति या उसके उपदेश हैं, वहीं हिन्दू धर्म का आधार शाश्वत सनातन सिद्धांत हैं और वह कभी न कभी विश्वधर्म बनेगा। कर्म को केवल कर्तव्‍य समझकर करना, उसमें फल या सुख दुख की भावना न रखना ऐसी बात थी जिससे पश्चिम वाले अब तक सर्वथा अपरिचित थे।‘’

स्वामी विवेकानंद ने धर्म की जो उदात्त परिभाषा दी उसने धर्म पर उंगली उठाने वालों को भी चौंका दिया। उन्होंने कहा- ‘’धर्म वह वस्तु है जिससे पशु मनुष्य तक और मनुष्य परमात्मा तक उठ सकता है।‘’ धर्म की यह व्‍याख्‍या बहुत गूढ़ार्थी है और इसमें समस्त प्राणीजगत के कल्याण की भावना निहित है। पश्चिम के भौतिकवादी जगत के लिए उनका यह विचार सर्वथा नया था। स्वामी जी कहते हैं- ‘’धर्म का रहस्य आचरण से जाना जा सकता है, व्यर्थ के मतवादों से नहीं। भले बनना तथा भलाई करना- इसी में सारा धर्म निहित है।‘’ वे इसी बात को यह कहते हुए और आगे बढ़ाते हैं- ‘’पवित्र एवं निस्वार्थी बनने की कोशिश करो। सारा धर्म इसी में है।‘’ यानी स्वामीजी की दृष्टि में धर्म का वास्तविक अर्थ मनुष्य का व्यक्तिगत रूप से पवित्र एवं सद्विचारों से युक्त होना और सामाजिक रूप से उसका निस्वार्थ होकर प्राणीमात्र की भलाई में निरत होना ही है।

उन्होंने कहा-‘’स्वार्थपरता अर्थात स्वयं के संबंध में पहले सोचना सबसे बड़ा पाप है। जो मनुष्य यह सोचता रहता है कि मैं ही पहले खा लूँ, मुझे ही सबसे अधिक धन मिल जाए, मैं ही सर्वस्व का अधिकारी बन जाऊँ, मेरी ही सबसे पहले मुक्ति हो और मैं ही दूसरों से पहले सीधा स्वर्ग चला जाऊँ, वही व्यक्ति स्वार्थी है। निस्वार्थी व्यक्ति तो कहता है ‘मुझे अपनी चिंता नहीं है, मुझे स्वर्ग जाने की भी कोई आकांक्षा नहीं है, मेरे नरक में जाने से यदि किसी को लाभ हो सकता है, तो मैं उसके लिए भी तैयार हूँ।‘

आज हम देखते हैं कि समाज में ‘हम‘ अर्थात समष्टि के स्थान पर ‘मैं‘ यानी व्यष्टि भाव का ही प्राधान्य है, चहुँओर केवल और केवल स्वयं के लाभ और स्वार्थपूर्ति का बोलबाला है। ऐसी सामाजिक परिस्थितियों में स्वामीजी स्वर्ग और नरक के सबसे प्राचीन मिथक का उदाहरण देते हुए कह रहे हैं कि मेरे नरक जाने से भी यदि किसी को लाभ होता है तो मैं नरक जाने को तैयार हूँ। समष्टि के कल्याण के लिए व्यष्टि के लोप की यह भावना विश्‍व के अन्य धर्मों में दुर्लभ है।

विवेकानंद का धर्म कहता है कि-‘’मनुष्य जहाँ भी और जिस स्थिति में भी है, यदि धर्म वहीं उसकी सहायता नहीं कर सकता तो उसकी उपयोगिता अधिक नहीं है। तब वह केवल कुछ विशिष्ट व्यक्तियों के लिए कोरा सिद्धांत मात्र होकर रह जाएगा। धर्म यदि मानवता का हित करना चाहता है तो उसके लिए यह आवश्यक है कि वह मनुष्य की प्रत्येक दशा में उसकी सहायता कर सकने में तत्पर और सक्षम हो- चाहे गुलामी हो या आजादी, चाहे घोर पतन हो या अतीव पवित्रता, उसे सर्वत्र मानव की सहायता कर पाने में समर्थ होना चाहिए।‘’

विवेकानंद ने धर्म को पाप और पुण्य के चश्‍मे से देखने की प्रवृत्ति पर भी बहुत साफगोई से अपनी बात कही। इस आडंबरवादी प्रवृत्ति पर चोट करते हुए वे पाप और पुण्य की ही नई परिभाषा दे देते हैं- ‘’पुण्य वह है जो हमारी उन्नति में सहायता करता है और पाप वह है जो हमें पतन की ओर ले जाता है। मनुष्य तीन प्रकार के गुणों से निर्मित है- पाशविक, मानवीय और दैवी। जो तुममें दैवी गुण बढ़ाता है वह पुण्य है और जो तुममें पशुता बढ़ाता है वह पाप है।‘’ पाप और पुण्य की इससे अधिक व्यावहारिक व्याख्या और क्या हो सकती है? पुण्य वह जो मनुष्य की उन्नति में सहायता करे और पाप वह जो मनुष्य को पतन या अवनति की ओर ले जाए।

पाप और पुण्य की दुरूह और स्वार्थगत व्याख्या करने वाले धर्म के ठेकेदारों के विपरीत स्वामीजी ने बहुत सरल और सहज परिभाषा देते हुए, समाज के अनपढ़ व्यक्ति तक को आसानी से समझ में आ सकने वाली भाषा में अपनी बात कही। विचार की यह उदात्तता ही स्वामीजी को विशिष्‍ट बनाती है। आज धर्म को लेकर समाज में जिस तरह का वातावरण पैदा किया जा रहा है उसमें विवेकानंद के ये विचार धर्म को सही परिप्रेक्ष्‍य में समझने में हमारी बहुत सहायता कर सकते हैं।

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