एक नगर निगम चुनाव में झांकती राष्ट्रीय राजनीति की छाया

अजय बोकिल

देश की राजधानी दिल्ली तथा आर्थिक राजधानी मुंबई नगर निगम के अलावा शायद ही और किसी महानगर के स्थानीय चुनावों में देश की इतनी दिलचस्पी होती हो, जितनी इस दफा बृहद हैदराबाद नगर निगम (जीएचएमसी) के चुनाव को लेकर दिखाई पड़ रही है। क्योंकि इस ऐतिहासिक शहर के निकाय चुनावों की छाया समूचे राज्य और राष्ट्रीय राजनीति पर पड़ने की संभावना है। अमूमन स्थानीय निकायों के चुनाव स्थानीय मुददों पर ही लड़े जाते हैं और राजनीतिक दलों के स्थानीय नेता ही उसमें मुख्य भूमिका निभाते हैं, लेकिन भाजपा ने जीएचएमसी के चुनाव को भी राष्ट्रीय स्तर का चुनाव बना दिया है।

पश्चिम बंगाल के साथ-साथ भाजपा अब तेलंगाना में भी सत्तासीन होने का सपना देख रही है, जिसका रास्ता जीएचमएसी पर काबिज होने से शुरू होता है। इसके दो कारण हैं। पहला तो तेलंगाना में सत्तारूढ़ तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस) की केसीआर सरकार का ममता बैनर्जी की तरह गैर भाजपा और गैर कांग्रेसी विपक्ष की भूमिका निभाने की कोशिश और दूसरे, पिछले लोकसभा चुनाव में राज्य में भाजपा के वोट बैंक में आया 12 फीसदी का उछाल।

यही वजह है कि मात्र दो साल पहले हुए विधानसभा चुनावों में मात्र 1 सीट जीतने वाली भाजपा, 2019 के लोकसभा चुनाव में 4 सीटें जीतने में कामयाब रही। उसका वोट प्रतिशत भी 7.1 फीसदी से बढ़कर 19.45 प्रतिशत हो गया। हालांकि राज्य में कांग्रेस के वोट शेयर 28.48 से यह अभी भी काफी कम है। बावजूद इसके राज्य में भाजपा की इस बढ़ती राजनीतिक महत्वांकाक्षा को भांप कर मुख्‍यमंत्री केसीआर (कल्वकुंतल चंद्रशेखर राव) ने एक फिर गैर भाजपा विपक्ष को एकजुट करने की कोशिशें शुरू कर दी है।

दो साल पहले भी वो ऐसी नाकाम कोशिश कर चुके हैं। फर्क इतना है कि पहले उन्होंने गैर भाजपा और गैर कांग्रेस विपक्ष को एक मंच पर लाने की कोशिश की थी। लेकिन इस बार उनका जोर केवल गैर भाजपा विपक्ष को एकजुट करना है। इन प्रयासों का भविष्य क्या होगा, यह काफी कुछ इस बात पर भी निर्भर है कि पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव के नतीजे क्या आते हैं।

गौरतलब है कि जीएचएमसी देश की सबसे पुरानी नगर पालिकाओं में से एक है। इसकी स्थापना 1869 में निजाम के शासनकाल में हुई। 2007 में इसे 12 छोटी नगरपालिकाओं और 8 ग्राम पंचायतों को मिलाकर बृहत हैदराबाद नगर निगम का रूप दिया गया। इसकी आबादी 70 लाख से ज्यादा है। 2014 में स्वतंत्र तेलंगाना राज्य बना। तब से जीएचएमसी पर टीआरएस का कब्जा है। सात हजार करोड़ रुपये के बजट वाले जीएचएमसी के पिछले चुनाव में टीआरएस ने कुल 150 सीटों में से 99 सीटें जीती थीं।

इसी चुनाव में ओवैसी की एआईएमआईएम 44 सीटें जीतकर दूसरी सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी थी। जबकि बीजेपी को महज 4 सीटों पर जीत मिली थी। लेकिन इस बार जीएचएमसी पर कब्जे के लिए बीजेपी ने बड़ी ताकत लगा दी है तो टीआरएस भी अपने इस किले को बचाने के लिए पूरी कोशिश कर रही है। जीएचएमसी के चुनाव 1 दिसंबर को होने हैं।

अपने दूरगामी लक्ष्य के मद्देनजर बीजेपी ने जीएचएमसी चुनाव में रोहिंग्या मुसलमानों, अवैध घुसपैठियों और उन्हें राजनीतिक संरक्षण का मुद्दा उछालना शुरू कर दिया है। इसको लेकर वह टीआरएस और एआईएमआईएम दोनों को घेर रही है। भाजपा का आरोप है कि दोनों के गठजोड़ से राज्य में अवैध रूप से रह रहे मुसलमान घुसपैठियों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की जा रही है। इसी रणनीति के तहत चुनाव प्रचार के दौरान केन्द्रीय कपड़ा मंत्री स्मृति ईरानी ने टीआरएस और एआईएमआईएम पर आरोप लगाया कि वह राज्य में अवैध रूप से रह रहे रोहिंग्या, पाकिस्तानी और बंगलादेशी मुसलमानों को बचा रही हैं।

उन्होंने कहा कि राज्य में 75 हजार रोहिंग्या मुस्लिम घुसपैठिये अवैध रूप से रह रहे हैं, जिनको निकालने के लिए टीआरएस सरकार कोई कार्रवाई नहीं कर रही है, न ही केन्द्र सरकार को लिख रही है। स्मृति ने आरोप लगाया कि  तेलंगाना ऐसे लोगों के लिए स्वर्ग बन गया है। राज्य की केसीआर सरकार इनके खिलाफ कार्रवाई करने के बजाए उलटे राष्ट्रभक्त भाजपा कार्यकर्ताओं के विरुद्ध कार्रवाई कर रही है। इसी तरह भाजपा युवा मोर्चा के राष्ट्रीय अध्यक्ष तेजस्वी सूर्या ने अपने भाषणों में असदुद्दीन ओवैसी को मोहम्मद अली जिन्ना का नया अवतार बताया।

खास बात यह है कि बीजेपी ने इस नगर निगम चुनाव का जिम्मा अपने भरोसेमंद नेता भूपेन्द्र यादव को सौंपा है। वैसे अवैध घुसपैठियों के अलावा इस चुनाव में बढ़ती बेरोजगारी और स्थानीय मुद्दे भी महत्वपूर्ण हैं। मुख्‍यमंत्री केसीआर द्वारा पिछले विधानसभा चुनाव में राज्य में 1 लाख बेरोजगारों को सरकारी नौकरी देने का मुददा भी जोर पकड़ रहा है, जबकि बीते 6 साल में सरकार केवल 29 हजार बेरोजगारों को ही सरकारी नौकरी दे सकी है।

हालांकि बीजेपी इस चुनाव में टीआरएस को बैकफुट पर भेज देगी, इसकी संभावना कम है। लेकिन धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण की उसकी नीति सफल होती है तो वह जीएचएमसी में 30-40 सीटें जीतकर मुख्‍य विपक्षी पार्टी बन सकती है। ऐसे में उसका अगला लक्ष्य राज्य में टीआरएस को सत्ता से बेदखल करना होगा। इसीलिए वह टीआरएस के साथ-साथ एआईएमआईएम के किले को भेदने में भी जुटी है। उसका अवैध मुस्लिम घुसपैठियों का कार्ड कितना कारगर होता है, यह देखने की बात है।

तेलंगाना में मुसलमान करीब 12.7 फीसदी हैं, जो बंगाल, बिहार या यूपी की तुलना में काफी कम हैं। उनका मुख्य प्रभाव पुराने हैदराबाद के कुछ इलाकों में ज्यादा है। लेकिन हैदराबाद के बाहर मुसलमान टीआरएस को वोट देते हैं। इसीलिए टीआरएस सुप्रीमो केसीआर दोहरी रणनीति पर काम करते रहे हैं। एक तरफ वो खुद को घोर कर्मकांडी‍ हिंदू के रूप में पेश करते हैं तो दूसरी तरफ हिंदूवादी भाजपा से डिस्टेंसिंग रखकर यह जताने की कोशिश भी करते हैं कि वो धर्मनिरपेक्ष राजनीति के हामी है।

जीएचएमसी चुनाव नतीजों का जो राष्ट्रीय प्रभाव हो सकता है, वह है गैर भाजपा विपक्षी पार्टियों की गोलबंदी। भाजपा से लड़ने के लिए ऐसी छोटी पार्टियां एक हो सकती हैं। लिहाजा केसीआर ने दिसंबर के दूसरे हफ्‍ते में टीएमसी की ममता बैनर्जी, डीएमके के एम.के. स्टालिन, सपा के अखिलेश यादव व जेडी (एस) के एचडी कुमारास्वामी को एक सम्मेलन में बुलाया है। ये सभी गैर भाजपाई पार्टियों के नेता हैं। साथ ही केसीआर का अगला लक्ष्य बेटे केटीआर को अपनी राजनीतिक विरासत सौंपना भी है।

यह क्षेत्रीय पार्टी भी वंशवाद के सहारे ही आगे बढ़ना चाहती है। ऐसे में भाजपा राज्य में अपनी उजली राजनीतिक संभावनाएं देख रही है। इसीलिए वोटों के साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की रणनीति पर काम शुरू हो चुका है। हालांकि राज्य में 28 फीसदी वोट लेने वाली कांग्रेस भी अहम स्थान रखती है, लेकिन उसके पास प्रभावी नेता, नीति और संगठन तीनों का अभाव है। यह वोट बीजेपी की तरफ शिफ्‍ट हो सकता है। ऐसा हो सका तो मुख्य मुकाबला टीआरएस और बीजेपी में ही होगा।

दूसरे, भाजपा अगर कोई करिश्मा दिखाने में नाकाम रही तो गैर भाजपाई राजनीतिक दल करीब आ सकते हैं। इससे भी अंतत: भाजपा को ही फायदा होगा। जो भी हो, एक नगर निगम का चुनाव इतनी संभावनाएं समेटे हुए है, यह भी नोट करने लायक है। यह सेक्युलरवादी और परिवारवादी क्षेत्रीय दलों का राजनीतिक भविष्य और दक्षिणी राज्यों में राष्ट्रवादी भाजपा के अश्वमेध का भाग्य भी तय करेगा।

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