तो क्या कड़कनाथ के आगे कोरोना भी ढीला है?

अजय बोकिल

कोरोना काल में तमाम दूसरी चीजों का मार्केट डाउन भले हुआ हो, लेकिन अपने कड़कनाथ मुर्गे की डिमांड इस कदर बढ़ गई है कि भारतीय क्रिकेट टीम के पूर्व कप्तान महेन्द्र सिंह धोनी ने भी रिटायरमेंट के बाद कड़कनाथ पालने का फैसला किया है। यही नहीं मध्यप्रदेश की शिवराज सरकार ने कड़कनाथ की खूबियों के मद्देनजर राज्य में कड़कनाथ की पैदावार और मार्केटिंग को बढ़ावा देने विशेष योजना तैयार की है। दावा है कि कड़कनाथ को खाने से शरीर में रोग प्रतिरोधक क्षमता में वृद्धि होती है। यानी कोरोना जैसी खतरनाक बीमारियां भी कड़कनाथ से खौफ खाती हैं।

ऐसे में लगता है कि कोरोना वैक्सीन आने तक कड़कनाथ की मांग कायम रहेगी। ऐसा हुआ तो मप्र के झाबुआ और आलीराजपुर जिले के आदिवासियों के दिन फिरने वाले हैं, क्योंकि कड़कनाथ वहीं की नस्ल है। यह बात अलग है कि कुछ साल पहले तक कड़कनाथ को लुप्त होने से बचाने की नौबत आ गई थी, लेकिन जब से बाकी दुनिया को इसका चस्का लगा है तब से कड़कनाथ की मांग पूरे देश भर से आ रही है।

खास बात यह है कि जब कोविड 19 की दहशत के बीच लोगों ने मांसाहार और अंडाहार भी स्थगित कर दिया था, उसी दौर में कड़कनाथ खाने की टेबलों पर शान से बांग देता रहा। लोग पोल्ट्री फार्मों में जा जाकर ये मुर्गा लाते रहे और उसने पेट में पहुंच कर कोरोना को खुली चुनौती दी। यूं स्वाद और ताकत की वजह से कड़कनाथ पहले भी लो‍कप्रिय था, लेकिन जब से यह खबर फैली है कि कड़कनाथ कोरोना से लड़ने की शक्ति भी देता है, तब से कड़कनाथ को‍रोनिल किट की माफिक और भी ज्यादा डिमांड में है।

जानकारों और कड़कनाथ शौकीनों के मुताबिक मुर्गे की इस नस्ल में कई खूबियां होती हैं। कड़कनाथ को स्थानीय भाषा में कालामासी भी कहते हैं। यानी जिसका मांस काला हो। यूं कड़कनाथ का रंग से लेकर खून, नाखून और अंडा तक सब काला होता है। इसमें फैट और कोलेस्‍ट्रॉल दोनों कम होते हैं। इसमें वो तत्व होते हैं, जो रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाते हैं। रहा सवाल मुर्गे का तो शौकीन इसे खाकर जन्नत में सैर का आनंद लूटते हैं। यही वजह है कि दूसरे मुर्गों की तुलना में कड़कनाथ और उसका अंडा भी महंगा मिलता है।

कहते हैं किसी जमाने में कड़कनाथ के बारे में झाबुआ जिले के आदिवासियों को ही जानकारी थी। क्योंकि वो ही इसे खाते थे। लेकिन धीरे-धीरे मुर्गाप्र‍ेमियों की मार्फत कड़कनाथ की शोहरत दूर-दूर तक फैली तो मप्र सहित कई राज्यों में कड़कनाथ पाले जाने लगे। यूं झाबुआ, आलीराजपुर के बारे में कहा जाता है कि अफसरान और नेता इन जिलों का दौरा ही इसलिए करते रहे हैं कि वहां कड़कनाथ मिलेगा। यानी कागज पर कारण कुछ भी हो, हकीकत में कड़कनाथ दौरा ही हुआ करता है।

बीच में एक स्थिति ऐसी भी आई कि खुद आदिवासियों के लिए भी कड़कनाथ का टोटा पड़ने लगा। मजबूरन उन्हें दूसरे मुर्गे खाने पड़े। इस बीच कड़कनाथ पर दावा पड़ोसी राज्य छत्तीसगढ़ ने भी  कर दिया था। छग का कहना है कि असली कड़कनाथ झाबुआ का नहीं बल्कि, छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा का है। छह साल चले मुकदमे के बाद जीआई टैग का फैसला झाबुआ के हक में आया। मप्र सरकार ने पुरजोर तरीके से साबित किया कि कड़कनाथ हमारा है। कड़कनाथ को यह जीआई टैग चार साल के लिए मिला है, जो 2022 तक है।

सरकार भी चाहती है कि तब तक कड़कनाथ इतना लोकप्रिय हो जाए कि लोग झाबुआ का कड़कनाथ ही मांगें। यूं भी कड़कनाथ की राष्ट्रीय ख्या‍ति का यह आलम है कि महाराष्ट्र में तो साल पहले ‘कड़कनाथ घोटाला’ भी हो चुका है, जिसमें पुलिस ने 3 लोगों को गिरफ्तार भी किया था। आगे क्या हुआ, पता नहीं। यूं भी मुर्गों के मामले उसके पेट में जाने के बाद खत्म हो जाते हैं।

इस पूरी ‘कड़कनाथ पुराण’ में नया एंगल यह है कि कड़कनाथ कोरोना की भी एहतियाती ‘दवा’ है। यह एंगल सामने आने के बाद कड़कनाथ की औकात एक मुर्गे से बढ़कर कई गुना ज्यादा हो गई है। कई लोग तो मास्क के साथ कालामासी आहार को ही वैक्सीन की तरह समझने लगे हैं। कोरोना वैक्सीन वेटिंग रूम में कड़कनाथ की बांग भी सुनाई देने लगी है। अब कड़कनाथ कोरोना वायरस पर किस रूप में अड़ी डालता है, यह तो साफ नहीं है, लेकिन यह हकीकत है कि मप्र के झाबुआ और आलीराजपुर जैसे आदिवासीबहुल जिलों में (जहां का कड़कनाथ मूल निवासी है) कोरोना संक्रमण और मौतों के मामले राज्य के अन्य जिलों की तुलना में काफी कम हैं।

हो सकता है कि यह ‘कड़कनाथ के डोज’ नियमित लेते रहने के कारण भी हो। जो भी हो, मप्र सरकार कड़कनाथ को लेकर एकदम कड़क हो गई है। राज्य के अपर मुख्य सचिव पशुपालन जे.एन.कंसोटिया ने बताया कि झाबुआ‍ सहित चार जिलों में कड़कनाथ पालन को सहकारी समितियों के माध्यम से बढ़ावा दिया जा रहा है। इसके लिए चयनित हितग्राहियों को सरकार 28 दिन के 100 वैक्सीनेटेड चूजे मुफ्‍त में दे रही है। लक्ष्य यही है ‍कि झाबुआ‍ जिले में कड़कनाथ उत्पादन को बढ़ाकर दोगुना किया जाए। इसके लिए हेचरियों की संख्या भी 3 हजार से बढ़ाकर 6 हजार की जा रही है।

यहां सवाल सिर्फ इतना है कि जो मांसाहारी नहीं हैं और जो कड़कनाथ नहीं खाते, वो क्या करें? घास- फूस खाकर कोरोना को फाइट कैसे दें? कोरोना की यह देशी दवाई उनके भला   किस काम की? ऐसे बेबस शाकाहारियों के सामने दो ही विकल्प हैं। एक या तो कड़कनाथ खाना शुरू कर दें या फिर  दूसरे इम्युनिटी बूस्टरों पर भरोसा करें।

दरअसल इस मुर्गे का नाम कड़कनाथ शायद इसीलिए रखा गया है कि इसे खाने के बाद इंसान हर मामले में ‘कड़क’ हो जाता है, जिसमें कोरोना भी शामिल है। वैसे ये खुशखबरी और पहले आ जाती तो दुनिया वैक्सीन के पीछे भागने के बजाए कड़कनाथ के पीछे ही दौड़ती। कोरोना से दो-दो हाथ करने की अपनी इस काबिलियत का पता खुद कड़कनाथ को है कि नहीं, पता नहीं, लेकिन इसने मुर्गों का महत्व दावतों से कहीं आगे रेखांकित कर दिया है।

आश्चर्य नहीं कि कल को लोग वैक्सीन आने तक एक-एक कड़कनाथ मुफ्त लोगों को वितरित करने की मांग करने लगें। फिलहाल इतना ही कहा जा सकता है कि यदि आपके चेहरे पर मास्क और उदर में ‘कालामासी’ है तो आपको कोरोना- वोरोना से डरने की कतई जरूरत नहीं है। और यह खबर अगर विदेशों तक फैल गई होगी तो तय मानिए कि कोरोना से बड़ा बवाल कड़कनाथ पर होगा।

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