अजय बोकिल
देश में संविधान दिवस के ठीक पहले मीडिया और अभिव्यक्ति की आजादी से जुड़ी दो अहम खबरें आईं। दोनों का मकसद किसी न किसी रूप में मीडिया पर अंकुश ही था। पहले मामले में बोलने की आजादी पर ताले डालने वाला कठोर अध्यादेश था, तो दूसरे में डिजीटल मीडिया को विदेशी कब्जे से बचाने के लिए एफडीआई सीमा तय करना है। पहले प्रकरण में केरल की विजयन सरकार द्वारा लाए गए केरल पुलिस अधिनियम संशोधन अध्यादेश का खुद वाम दलों और मानवाधिकारवादियों द्वारा कड़ा विरोध किया जा रहा था। बीजेपी ने इसे ‘राजनीतिक विरोधियो’ का मुंह बंद करने की कोशिश बताया तो राज्य में विपक्षी कांग्रेस ने भी इस अध्यादेश की कड़ी आलोचना की थी।
अमूमन बीजेपी सरकारों पर मीडिया की नकेल कसने, बोलने की आजादी को दबाने जैसे आरोप लगाने वाले वामपंथियों द्वारा शासित राज्य केरल में इस तरह का अध्यादेश लाए जाने ने सभी को चौंकाया था। इस अध्यादेश के तहत सोशल मीडिया में अपमानजनक टिप्पणी, डराने-धमकाने वाली पोस्ट डालने को दंडनीय अपराध माना गया था। ऐसा करने वाले को 3 साल की जेल तथा 10 हजार रुपये जुर्माने का प्रावधान था। राज्य पुलिस को व्यापक अधिकार देने के लिए केरल पुलिस अधिनियम 2011 में संशोधित धारा 118-ए जोड़ी गई थी। राज्य मंत्रिमंडल की सिफारिश पर राज्यपाल मोहम्मद आरिफ खान ने इसे 21 नवंबर को मंजूरी भी दे दी।
अध्यादेश को देश में पहले से मौजूद सूचना प्रौद्योगिकी (आईटी) अधिनियम की दोषपूर्ण धारा 66 ए की जगह लेनी थी। नए कानून के तहत पुलिस किसी को भी बिना वारंट और बिना कारण बताए गिरफ्तार कर सकती थी। इस अध्यादेश के खिलाफ इसके लागू होने से पहले ही विरोध-प्रदर्शन शुरू हो गए। राज्य में कांग्रेसनीत विपक्षी मोर्चे यूडीएफ ने इस कानून के खिलाफ प्रदर्शन मार्च किया, तो केरल प्रदेश भाजपाध्यक्ष के. सुरेन्द्रन ने अध्यादेश के खिलाफ हाईकोर्ट में याचिका दायर की थी।
सुरेन्द्रन ने कहा कि अध्यादेश का वास्तविक मकसद सभी राजनीतिक विरोधों को खामोश करना है। वरिष्ठ कांग्रेस नेता और पूर्व केन्द्रीय मंत्री पी. चिदम्बरम ने ट्वीट किया कि वो केरल सरकार के इस अध्यादेश से हैरान हैं। उन्होंने माकपा महासचिव सीताराम येचुरी पर कटाक्ष किया कि वो इस ‘अत्याचारी कानून’ का बचाव कैसे करेंगे? लेफ्ट से जुड़ी सीपीआई (एमएल) ने भी केरल सरकार के इस कानून को शर्मनाक करार दिया था।
ऐसा अपवादस्वरूप ही होता है, जब कोई निर्वाचित सरकार अपने ही अध्यादेश को व्यापक आलोचना के चलते कुछ ही घंटों में वापस भी ले ले। कुछ लोग इसे विजयन सरकार द्वारा अपनी ‘भूल सुधार’ के रूप में देख रहे हैं तो कुछ की नजर में यह केन्द्र में मोदी सरकार को परोक्ष संदेश देने की कोशिश भी है कि सरकारों को जनविरोध के प्रति संवेदनशील होना चाहिए। जो भी हो, अगर यह अध्यादेश लागू रहता तो केरल में वाम मोर्चे की विजयन सरकार और मुश्किलों में घिर जाती, क्योंकि केरल में पांच माह बाद विधानसभा चुनाव होने हैं।
यदि अध्यादेश जारी रहता तो भाजपा देश भर में वामियों पर हमले में कोई कसर नहीं छोड़ती। इसी खतरे को भांपकर खुद लेफ्ट खेमे में ही अध्यादेश का विरोध हो रहा था। इसके चलते माकपा महासचिव सीताराम येचुरी को कहना पड़ा था कि इस अध्यादेश पर ‘पुनर्विचार’ की जरूरत है। हालांकि शुरू में इस अध्यादेश की पैरवी करते हुए मुख्यमंत्री पी. विजयन ने कहा था कि इसका उपयोग ‘अभिव्यक्ति की आजादी’ या ‘निष्पक्ष पत्रकारिता’ के खिलाफ नहीं किया जाएगा। जबकि अमूमन आम जनता,विपक्ष और मीडिया मालिक इस पक्ष में हैं कि सोशल मीडिया पर फेक न्यूज और अपमानकारक टिप्पणी करने वालों के खिलाफ सख्त कार्रवाई होनी चाहिए।
अध्यादेश के बचाव में उन्होंने कहा था कि “किसी को भी अपनी मुट्ठी को उठाने की आजादी है लेकिन ये वहीं खत्म हो जाती है जैसे ही दूसरे की नाक शुरू हो जाती है।‘’ सरकार की ओर से यह भी कहा गया कि यह अध्यादेश महिला और बच्चों की रक्षा करने वाला है। सरकार के मुताबिक सोशल मीडिया पर हमला किसी भी व्यक्ति की शारीरिक और मानसिक सुरक्षा के लिए खतरा है। हाल के दिनों में साइबर क्राइम की वजह से नागरिकों की प्राइवेसी को बड़ा खतरा पैदा हो गया है। ऐसे में नया अध्यादेश आने के बाद केरल पुलिस को ऐसे अपराधों से निपटने की शक्ति मिलेगी।
लेकिन विपक्ष को और अभिव्यक्ति की आजादी के समर्थकों को केरल सरकार की बातों पर यकीन नहीं था। विपक्ष का आरोप था कि एलडीएफ सरकार का यह कानून पुलिस को अनावश्यक और असीमित अधिकार देगा। इससे प्रेस की आजादी पर भी अंकुश लगेगा। वास्तव में इस नए कानून का इस्तेमाल उन लोगों के खिलाफ किया जाएगा, जो अधिकारियों और सरकार की आलोचना करते हैं। भाजपा ने इसके खिलाफ हाई कोर्ट में याचिका दायर कर कहा कि अध्यादेश की धारा 118-ए लोगों के मौलिक अधिकार का हनन है। यह सुप्रीम कोर्ट के पिछले आदेश का भी उल्लंघन है। इस कानून के आने के बाद पुलिस को काफी शक्तियां मिल जाएंगी और मीडिया की आजादी कम हो जाएगी।
विएना स्थित इंटरनेशनल प्रेस इंस्टीट्यूट ने भी इस अध्यादेश को वापस लेने की मांग की थी। इंटरनेट फ्रीडम फाउंडेशन ने ट्वीट कर कहा कि नया अध्यादेश असंवैधानिक धारा 66 ए की ही नकल है। इससे अभिव्यक्ति की आजादी को वास्तविक खतरा पैदा हो गया है। ध्यान रहे कि पांच साल पहले सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक फैसले में आईटी एक्ट की धारा 66 ए को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के खिलाफ माना था।
उधर भारत सरकार के नए कानून ने एक विदेशी डिजिटल प्लेटफार्म ‘हफपोस्ट इंडिया’ पर ताले डलवा दिए हैं। ‘हफपोस्ट’ एक अमेरिकी ऑन लाइन न्यूज एग्रीगेटर और ब्लॉग वेबसाइट है, जो अंग्रेजी सहित दुनिया की 8 भाषाओं में प्रकाशित होती है। भारत में इसने 2014 में टाइम्स समूह के सहयोग से भारत में कदम रखा था। ‘हफपोस्ट इंडिया’ ने 24 नवंबर को अपना आखिरी एडीशन प्रकाशित किया। नीतिगत दृष्टि से यह वेबसाइट उदारवाद समर्थक और कुछ हद तक सरकार विरोधी मानी जाती थी। भारत में इसका संचालन बजफीड कंपनी करती थी।
इस फैसले के बाद कंपनी में काम करने वाले 12 पत्रकार जरूर सड़क पर आ गए हैं। उल्लेखनीय है कि भारत सरकार ने इस साल अक्टूबर में एक अधिसूचना जारी कर कहा था कि डिजीटल मीडिया में विदेशी पूंजी निवेश की सीमा 26 फीसदी ही रहेगी। इससे ज्यादा की पूंजी को विनिवेशित करना होगा। अंग्रेजी में होने के कारण हिंदी के पाठकों को इसकी जानकारी कम ही थी। ‘हफपोस्ट इंडिया’ को भारत में नई डिजिटल विदेशी पूंजी निवेश का पहला ‘शिकार’ माना जा रहा है। वैसे देश में प्रिंट और टीवी मीडिया में विदेशी पूंजी निवेश के नियम तो थे, लेकिन डिजिटल मीडिया पर कोई अंकुश नहीं था। एक दृष्टि से सरकार का यह फैसला सही है, क्योंकि इससे भारतीय डिजिटल मीडिया पर विदेशी कब्जे की आशंका पर विराम लगेगा।
दरअसल सरकारें मीडिया पर लगाम लगाने के नए-नए तरीके और उनका औचित्य खोजती रहती हैं। कहीं वह खुले रूप में होता है तो कहीं दबे-छुपे ढंग से। केरल में लाया गया विवादित अध्यादेश भी इसी मानसिकता की उपज था। वैसे राजनीतिक हल्कों में यह भी चर्चा है कि अध्यादेश वापसी के पीछे वजह आलोचना के साथ-साथ राज्य की विजयन सरकार का पहले से दो बड़े घोटालों सोलर घोटाले और अवैध सोना तस्करी घोटाले में घिरा होना भी है। आरोप है कि दोनों मामलों में मुख्यमंत्री विजयन के करीबी अधिकारी कर्मचारी लिप्त पाए गए हैं। ऐसे में यह अध्यादेश कोढ़ में खाज का ही काम करता।
दूसरे, यह अध्यादेश देश भर में वामपंथियों को कठघरे में खड़ा करने के लिए काफी था। क्योंकि इसके बहाने भाजपा लेफ्ट के लोकतांत्रिक आग्रहों की बखिया उधेड़ने में कसर नहीं छोड़ती। वैसे अध्यादेश वापसी पर केरल के एक वरिष्ठ वकील कालीश्वरम राज की टिप्पणी थी कि ‘आत्म निरीक्षण एक लोकतांत्रिक गुण है। केरल ने विचारशील लोकतंत्र का बढि़या उदाहरण पेश किया है।’ अगर इसे मान लें तो भी यह सवाल बाकी रहेगा कि यह अध्यादेश लाया ही क्यों गया था?