राकेश अचल
दुनिया अपनी गति से चल रही है लेकिन भारत में लोग कोरोना से होने वाली मौतों में अचानक आई बाढ़ से एक बार फिर भयभीत हैं और एक बार फिर देश के अनेक हिस्सों में ‘लॉकडाउन’ की आशंका से घरवापसी के लिए भीड़ दिखाई देने लगी है। ये सब हो रहा है सरकारी व्यवस्थाओं की नाकामी की वजह से, जो देश को कोरोना संकट को लेकर आश्वस्त ही नहीं कर पा रही हैं।
खबरें आ रही हैं कि कोरोना की रफ्तार रोकने में नाकाम सरकारों ने अपने-अपने यहां न केवल रात्रिकालीन कर्फ्यू लागू कर दिया है बल्कि महाराष्ट्र में तो बाहरी राज्यों से आने वालों के लिए कोरोनामुक्त होने का प्रमाणपत्र लाना भी अनिवार्य कर दिया है। महाराष्ट्र में प्रतिदिन पांच हजार तक नए संक्रमित मरीज सामने आ रहे हैं। महाराष्ट्र की ही तरह दिल्ली भी आक्रान्त है। वहां भी आंशिक ‘लॉकडाउन’ की बातें हो रही हैं।
देश में कोरोना के प्रसार के लिए ठीकरा जनता के सर फोड़ा जा रहा है, लेकिन जनता को इतना बेफिक्र बनाने के लिए जिम्मेदार राजनीतिक दलों से कोई कुछ नहीं कह रहा, जबकि सबने हाल ही में बिहार विधानसभा चुनावों के साथ देश के अनेक राज्यों में हुए उपचुनावों में कोरोना प्रोटोकॉल की धज्जियां उड़ाने का पाप मिलजुलकर किया। अदालतों के निर्देश के बावजूद बड़ी-बड़ी रैलियां कीं और इनमें प्रधानमंत्री से लेकर स्थानीय नेता तक शामिल हुए। चुनाव प्रचार के दौरान राज्य सरकारों ने कोरोना संक्रमण के आंकड़ों को छलपूर्वक घटाकर मामूल पर ला खड़ा किया और चुनाव समाप्त होते ही फिर से कोरोना का हौवा खड़ा कर दिया।
हकीकत ये है कि कोरोना थमा ही नहीं है, कोरोना अमूर्त है और यत्र-तत्र-सर्वत्र मौजूद है। कोरोना से निपटने के सरकारी इंतजाम नाकाफी हैं और निजी अस्पताल तथा कोरंटीन सेंटर लूट के अड्डे बने हुए हैं। कोरोना कैंसर से भी ज्यादा संघातक हो गया है। पहले कैंसर बताकर मरीजों और उनके परिजनों का भयदोहन किया जाता था, अब कोरोना इसकी जगह ले चुका है। कोरोना का प्रकोप अपनी जगह है और बदइंतजामी अपनी जगह। भारत की जनता न्यूजीलैंड की जनता नहीं है जो अपने आप कोरोना प्रोटोकॉल का पालन कर ले। भारत में आप जनता से किसी भी क़ानून का पालन बिना डंडे या दंडविधान के किसी भी सूरत में नहीं करा सकते।
कोरोना से बचाव के लिए ‘मास्क’ और ‘सोशल डिस्टेंस’ ही फिलहाल दवा है, ये कहकर ‘मास्क’ न लगाने वालों से देश में सौ रुपये से लेकर दो हजार रुपये तक जुर्माना वसूल किया जा रहा है, बावजूद इसके लोग ‘मास्क’ लगाने को राजी नहीं हैं। ‘मास्क’ न लगाने पर तो सरकारें जुर्माना वसूल रही हैं लेकिन ‘सोशल डिस्टेंस’ का उल्लंघन रोकना सरकार के बूते से बाहर है। दुर्भाग्य ये है कि सरकार खुद ‘सोशल डिस्टेंस’ का उल्लंघन करने में शामिल है। इस मामले में सरकारों के अपने मापदंड हैं और जनता के अपने।
आवागमन के सामन्य साधनों की व्यवस्था न होने से बसों में क्षमता से ज्यादा सवारियां भरी जा रही हैं, किराया तो दो-तीन गुना हो ही गया है। सरकार ने जो कुछ पैंसेजर ट्रेन शुरू की हैं, उनका किराया भी तीन गुना कर दिया है, जबकि न इन रेलों की रफ्तार बढ़ी है और न इनमें सोशल डिस्टेन्स कायम रखने के लिए कोई प्रबंध किये गए हैं। प्रशासन की तमाम कोशिशें सनक भरी हैं। लम्बे ‘लॉकडाउन’ से उबरे लोगों को एक बार फिर से ‘लॉकडाउन’ में धकेलने की स्थितियां बनाई जा रही हैं।
कोरोना की ढाल इतनी मजबूत है कि इसकी आड़ में तमाम असफलताओं, अक्षमताओं और कारगुजारियों को आसानी से छुपाया जा रहा है। हर स्तर पर छुपाया जा रहा है, हर राज्य में छुपाया जा रहा है। हर नाकामी का ठीकरा कोरोना के सिर पर फोड़ना अब चलन बन गया है। कोरोना से लड़ने की कोई समेकित नीति आज आठ माह बीतने के बाद भी नहीं बनाई जा सकी है। अब इन नाकामियों के लिए किसी एक को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता, लेकिन जो जिम्मेदार हैं वे भी तो अपनी जिम्मेदारी मानने के लिए तैयार नहीं हैं।
कोई माने या न माने, आज समूचा देश, दुनिया की तरह अपनी पीठ पर कोरोना को लाद कर चल रहा है। कोरोना के समापन की कोई सूरत नजर नहीं आती और कोरोना को मारने की दवाओं की खोज का काम इतना समय ले रहा है कि अब लोगों ने दवा का इन्तजार करना ही छोड़ दिया है। अब सब राम भरोसे है। जो समर्थ हैं वे मंहगा इलाज ले पा रहे हैं और जो समर्थ नहीं वे चुपचाप मौत की गोदी में जाकर सोते जा रहे हैं। शवदाह स्थलों पर मसान दिन-रात जागरण कर रहा है। मसान की आँखें भी खुद जागते-जागते सूज गई हैं। कब्रिस्तानों में मिट्टी को समय से पहले पलटा जा रहा है, क्योंकि नए शवों को दफन करने के लिए जगह नहीं है।
पूरी मनुष्यता के लिए ये शायद सबसे कठिन समय है। इस कठिन समय का सामना कैसे किया जाये, ये किसी की समझ में नहीं आ रहा। आज आप जब ये आलेख पढ़ रहे होंगे तब देश में कोरोना संक्रमितों की तादाद 9, 177, 722 के आगे निकल चुकी होगी। हम देश में कोरोना से 134, 254 से अधिक लोगों को खो चुके होंगे। हमारी कोशिशों ने 8, 603, 575 लोगों को कोरोना के जबड़ों से छीन लिया होगा। ये आंकड़े भयावह हैं। लेकिन लोग फिर भी निर्भीक होकर सड़कों पर सामन्य जीवन जीने के लिए कमर कसे दिखाई देते हैं। ऐसा लगता है जैसे मौत का डर मन से निकल चुका है और जिनके मन में मौत का डर है वे लोग लॉकडाउन की आशंका से दोबारा अपने घरों को लौटने लगे हैं क्योंकि सरकार किसी को भी आश्वस्त नहीं कर सकती।
हम जानते हैं कि कोई भी महामारी दुनिया से जीवन को एकदम शून्य नहीं कर सकती, लेकिन उसमें इतनी क्षमता अवश्य है कि वो हमें यानि मानवता को खून के आंसू रुलाने पर मजबूर कर दे। आपको भी खून के आंसू न रोना पड़ें इसलिए कृपाकर मास्क लगाइये, सोशल डिस्टेंस का पालन कीजिये। क्योंकि इस विपत्ति में अपनी मदद आप खुद कर सकते हैं। सरकार की भूमिका सीमिति है। आने वाले दिनों में जिंदगी रोशन बनी रहे और कोरोना के कदम आगे न बढ़ें ये प्रयास जरूरी हैं। आप भी करिये, हम भी कर रहे हैं।