क्या यह कश्मीर में पारंपरिक राजनीति का आखिरी अध्याय है?

अजय बोकिल

देर से ही सही, कांग्रेस ने गुपकार घोषणा से अपना पल्ला झाड़ लिया है। पहले खबर आई थी कि देश की दूसरी सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस जम्मू एवं कश्मीर में 6 पार्टियों के उस ‘पीपुल्स अलायंस फॉर गुपकार डिक्लेरेशन’ का हिस्सा बन रही है, जो राज्य में हो रहे डीडीसी चुनाव मिलकर लड़ने वाला है। इस अलायंस का एजेंडा जम्मू कश्मीर में धारा 370 और धारा 35 ए की वापसी कराना है। इन पार्टियों का मानना है कि इन धाराओं को हटाने से संविधान के संघीय ढांचे और कश्मीरियों की पहचान खत्म कर दी गई है। हम इसे वापस पाने के लिए संघर्ष करेंगे।

आम कश्मीरी धारा 370 खत्म करने और इस राज्य को भारत संघ में पूरी तरह विलीन किए जाने के बाद क्या सोचता है, यह जम्मू कश्मीर में 28 नवंबर से होने जा रहे जिला विकास परिषदों (डीडीसी) के चुनाव नतीजों से स्पष्ट होगा। डीडीसी के चुनाव इसलिए अहम हैं, क्योंकि ये परिषदें बहुत शक्तिशाली होंगी। राज्य में सात दशकों से धारा 370 की राजनीति करती आ रही जम्मू कश्मीर की राजनीतिक पार्टियों ने पहले इन चुनावों के बहिष्कार की बात की थी, लेकिन बाद में 6 पार्टियों ने एक गठबंधन के छाते तले ये चुनाव लड़ने का ऐलान किया। राज्य में नेशनल कांफ्रेंस,पीडीपी, वाम दल और कुछ स्थानीय पार्टियां इन चुनावों के माध्यम से नई परिस्थितियों में अपनी राजनीतिक ताकत को तौलने जा रही हैं।

विचित्र बात यह है कि जो पार्टियां कल तक एक-दूसरे की कट्टर सियासी दुश्मन रही थीं, वो एक साथ मिलकर चुनाव लड़ने की बात कर रही हैं। इसी से पता चलता है कि उनके सामने अस्तित्व का संकट है। बताया जाता है कि इस गठबंधन में अभी से दरार पड़ने लगी है। कई स्थानों पर सहयोगियों ने एक दूसरे के खिलाफ प्रत्याशी उतार दिए हैं। लेकिन सबसे अजब स्थिति कांग्रेस की हो गई थी, जिसे कश्मीर के साथ-साथ पूरे देश में राजनीति करना है। इसलिए केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने कांग्रेस पर यह कहकर निशाना साधा कि धारा 370 हटाने पर उसका स्टैंड क्या है? क्या वह इसे हटाए जाने के पक्ष में है या फिर इसकी वापसी चाहती है?

शुरुआती असमंजस के एक दिन बाद कांग्रेस ने साफ कर दिया कि वह ‘गुपकार गैंग’ में शामिल नहीं है, लेकिन वह कश्मीरी जनता के अधिकारों की लड़ाई लड़ती रहेगी। वैसे यह बयान भी कुछ गोलमाल-सा है। फिर भी कांग्रेस के रुख को लेकर उठे सवालिया निशान पर कुछ विराम लगाएगा। हकीकत यह है कि गुपकार 1 बैठक में कांग्रेस प्रतिनिधि मौजूद थे, लेकिन गुपकार 2 से उन्होंने कन्नी काट ली थी। अलबत्ता कांग्रेस को मुश्किल अगले साल पश्चिम बंगाल में होने वाले विधानसभा चुनावों में हो सकती है, जहां वह वाम दलों के साथ मिलकर लड़ने वाली है और वाम दल धारा 370 हटाने के विरोध में हैं। वे इसे देश के संघीय ढांचे आघात मानते हैं। लेकिन यहां असल सवाल यह है कि क्या कश्मीर में 5 अगस्त 2019 वाली स्थिति लौट सकती है? क्या इसे लौटाने की बात भी समय की चक्की को उल्टा चलाने जैसा नहीं है? और यह भी कि क्या कश्मीर में पारंपरिक राजनीति का यह अंतिम अध्याय है?

पहले गुपकार घोषणा की बात। गुपकार घोषणा वास्तव में वह प्रस्ताव है, जो श्रीनगर में गुपकार रोड स्थित एनसी नेता फारुक अब्दुल्ला के घर पर हुई राज्य के 8 गैर भाजपाई दलों की बैठक के बाद पारित हुआ था। यह 4 अगस्त 2019 की बात है। इसमें शामिल राजनीतिक पार्टियों ने मांग की थी कि  केन्द्र की मोदी सरकार जम्मू-कश्मीर के विशेष संवैधानिक दर्जे को कायम रखे। कश्मीर की स्वायत्तता बरकरार रखी जाए। उस बैठक में नेशनल कांफ्रेस, पीडीपी, सीपीएम, जेकेपीसी, एएनसी के अलावा कांग्रेस के प्रतिनिधि भी मौजूद थे।

साल भर बाद राज्य में डीडीसी चुनावों की घोषणा के बाद फिर दूसरी बार गुपकार बैठक हुई, जिसमें धारा 370 समर्थक दलों के ‘पीपुल्स अलायंस फॉर गुपकार डिक्लेरेशन’ के गठन का ऐलान हुआ। वरिष्ठ माकपा नेता एम.वाय. तारीगामी को इसका संयोजक बनाया गया है। अलायंस का कहना है कि उनकी लड़ाई संवैधानिक लड़ाई है। पिछले साल 5 अगस्त 2019 को कश्मीर से धारा 370 हटाने के ऐतिहासिक फैसले के बाद राज्य में काफी कुछ घटा है। कई चीजें बदली हैं। राज्य में सरकारी नौकरियों और व्यावसायिक शैक्षणिक संस्थाओं में जातिगत और आर्थिक आधार पर आरक्षण लागू हो गया है।

स्थानीय संस्थाओं को संवैधानिक रूप देने वाला अधिनियम लागू किया गया, मूल निवासी कानून को बदला गया है। राज्य के मताधिकार से वंचित लोगो को वोट देने का अधिकार दिया गया। बाहरी लोगों को राज्य में जमीन खरीदने का हक दिया गया। चुनाव से पहले सभी बड़े नेताओं को नजरबंदी से मुक्त कर दिया गया है, लेकिन अभी भी कई लोग जेल में बंद हैं। चूंकि राज्य में विधानसभा अभी स्थगित है और जम्मू-कश्मीर राज्य का दर्जा भी घटाकर केन्द्र शासित प्रदेश का कर दिया गया है, ऐसे में डीडीसी के चुनाव प्रदेश की जनता की नब्ज जानने की दृष्टि से महत्वपूर्ण होंगे।

भाजपा जैसी पार्टियों को भरोसा है कि धारा 370 हटाकर उसने बरसों पुराने नासूर का स्थायी संवैधानिक इलाज कर दिया है। अब कोई चाहे भी तो इसे वापस लागू नहीं कर सकता। क्योंकि देश का जनमत इस मामले में उसके साथ है। कश्मीरियों को तुष्टिकरण के बजाए जमीनी राजनीति की ओर जाना होगा। वैसे भी जब फारुक अब्दुल्ला जैसे वरिष्ठ नेता ने अपने बयान में प्रदेश में चीन की मदद से धारा 370 लागू करने जैसी बेतुकी बातें की तभी लगने लगा था कि धारा 370 की सियासत अब वेंटीलेटर पर है।

दरअसल कश्मीर की क्षेत्रीय पार्टियों के सामने दुविधा यह है कि वो अब आगे किस तरह की राजनीति करें? धारा 370 हटाने का डर दिखाकर और कश्मीरी पहचान को मुद्दा बनाकर लंबे समय तक कश्मीरी अवाम समर्थन हासिल किया। साथ में उसका भावनात्मक शोषण भी खूब किया। कश्मीरियों की सांस्कृतिक पहचान और राजनीतिक पहचान एकरूप करने की हरसंभव कोशिश की गई। जहां उन्हें कश्मीर घाटी में इसका राजनीतिक लाभ भी मिलता रहा, वहीं दिल्ली के साथ सियासी सौदेबाजी भी खूब की गई। लेकिन नई स्थिति में वो सारी संभावनाएं खत्म-सी हैं।

बदले हालात में कश्मीर और कश्मीरियों के सामने दो ही विकल्प हैं। या तो वो अपनी पुरानी मांग को लेकर अनंत काल तक लड़ते रहें या फिर पूरी तरह भारतीय राज्य के रूप में अपने लिए ज्यादा अधिकारों और विकास में हिस्सेदारी तथा पूर्ण राज्य का दर्जा फिर हासिल करने के लिए संघर्ष करें। अलायंस की पार्टियां राज्य विभाजन को भी मुद्दा बना रही हैं, लेकिन लद्दाख अब वापस कश्मीर के साथ आएगा, इसकी संभावना नहीं के बराबर है। क्योंकि वहां भी लद्दाखी अस्मिता के सम्मान का सवाल है। किसी भी राज्य विशेष की पहचान धर्म के साथ जोड़कर देखने का आग्रह अब समाप्ति की ओर है। यदि है भी तो बदले आवरण में। यही नई राजनीति है। भारतीय संघ में विलीनीकरण के बाद किसी राज्य की सांस्कृतिक अस्मिता खत्म हो गई हो, ऐसा न तो हुआ और न ही हो सकता है।

जम्मू-कश्मीर और खासकर कश्मीर घाटी में डीडीसी के चुनाव इस बात के दिशादर्शक होंगे कि वहां की जनता अब किस तरह की राजनीति चाहती है, किस रूप में खुद को पूरी तरह भारतीय मानती है या नहीं मानती? वह अब किस तरह का सामाजिक गठन और सामाजिक न्याय चाहती है? राज्य में 20 जिला विकास परिषदों ( डीडीसी) के चुनाव 8 चरणों में होने हैं। पहला चरण 28 नवंबर को और आखिरी 19 दिसंबर को होगा। मतगणना 22 दिसंबर को होगी। हर डीडीसी में 14 निर्वाचन क्षेत्र हैं, ‍जिनके प्रतिनिधि पार्टी आधार पर चुने जाएंगे।

कश्मीर की क्षेत्रीय पार्टियां अपना राजनीतिक वजूद बचाने इन चुनावों में हिस्सेदारी करना तो चाहती हैं, लेकिन उनका मानना है ‍कि धारा 370 और कश्मीर के विशेष दर्जे की वापसी का मुद्दा ही उन्हें राजनीतिक ताकत देगा। जबकि भाजपा का मानना है कि साल भर में विभिन्न स्तरों पर की गई राज्य की जनता के हकों की बहाली कश्मीरी और गैर कश्मीरी समाज में नया ध्रुवीकरण पैदा करेगी। इसका लाभ उसे ही होगा। इसमें कांग्रेस की उलझन यह है कि उसे कश्मीरियों के साथ बाकी देश को भी भरोसा दिलाना है कि वह किसी भी अलगाव के पक्ष में नहीं है।

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