कांग्रेस हारी या कमलनाथ की रणनीति!

मध्यप्रदेश के उपचुनाव निपट गए। इसके नतीजे अनुमानों से थोड़ा अलग और भाजपा के दावों के नजदीक रहे। लेकिन, कांग्रेस के सारे दावे और अनुमान ध्वस्त हो गए। कांग्रेस ने अपने बागियों को ‘गद्दार’ और ‘धोखेबाज’ जैसे तमगे बांटकर चुनाव का माहौल अपने पक्ष में करने की जो कोशिश की थी, सब धरी रह गई। वास्तव में जो नतीजे सामने आए वो अनपेक्षित तो माने ही जा सकते हैं। क्योंकि, जो बागी नेता दो साल पहले कांग्रेस के टिकट पर चुनाव जीते थे, उनमें से अधिकांश अब भाजपा उम्मीदवार के रूप में चुनाव जीत गए। कई तो पहले के मुकाबले कहीं ज्यादा वोटों से चुनाव जीते।

राजनीति का छिद्रान्वेषण करने वालों के लिए भी ये नतीजे अनपेक्षित ही कहे जाएंगे। भाजपा ने चुनाव में भले ही सभी 28 सीटें जीतने की बात कही हो, पर उनके नेताओं के मन में भी संशय तो था। 19 सीटों पर जीत ने उनको भी चौंकाया है। साँची, सुवासरा और हाटपिपलिया ऐसी ही सीटें रहीं, जिन्हें कांग्रेस के खाते में जोड़कर देखा जा रहा था, पर ये भाजपा ने जीत ली। ये नतीजे कांग्रेस के लिए चिंता बढ़ाने वाले हैं। उसे नए सिरे से अपनी कमजोरियों को टटोलना होगा। संगठनात्मक ढांचे को मजबूत करने की तैयारी करना होगी और सबसे बड़ी बात ये कि धरातल पर राजनीति करने की नीति बनाना होगी। अब हवा-हवाई राजनीति के दिन नहीं बचे, क्योंकि मतदाता सब जानता कौन कितने पानी में है।

हेमंत पाल

ये उपचुनाव सामान्य नहीं थे। असामान्य परिस्थिति और असामान्य राजनीतिक हालात में मध्यप्रदेश में ये उपचुनाव हुए। लेकिन, नतीजों ने स्पष्ट कर दिया कि मतदाता से बड़ा कोई नहीं होता। उसकी ख़ामोशी को उसकी सहमति समझने की गलती कतई न की जाए। उसका फैसला सर्वोपरि और हमेशा सही होता है। परिस्थितियां चाहे कोई भी हो, पार्टी और नेताओं की कमान मतदाता के अलावा किसी और के हाथ में नहीं होती। कांग्रेस को इन उपचुनाव के नतीजों ने कुछ ऐसे सबक दिए, जिससे बहुत कुछ सीखा जा सकता है। बशर्ते कि कांग्रेस उसे गंभीरता से समझे और अमल करे।

कांग्रेस ने अपने पूरे चुनाव प्रचार में ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ कांग्रेस छोड़ने वालों को अपशब्दों से नवाजा। गद्दार और धोखेबाज कहने में कोई कसर नहीं छोड़ी। लेकिन, इस बात का ध्यान नहीं रखा कि जिसे वो गद्दार कह रही है, क्या मतदाता भी वही सोच रहा है। अब मतदाताओं के फैसले ने साबित कर दिया कि उनकी नजर में वे न तो गद्दार हैं और न धोखेबाज। बेहतर होता कि कांग्रेस ये फैसला मतदाताओं पर छोड़ती कि इन नेताओं ने जो किया वो गद्दारी थी या धोखेबाजी।

कांग्रेस ने ये पूरा चुनाव नकारात्मक प्रचार तंत्र की रणनीति से लड़ा। सोशल मीडिया से लगाकर मंच तक के प्रचार में न तो भाषा की गरिमा का ध्यान रखा और न जमीन पर वास्तविक एकजुटता दिखाई, जिसकी जरूरत थी। ये कांग्रेस की कोई चुनावी रणनीति थी या अतिआत्मविश्वास ये समझ से परे है। जब सिंधिया ने अपने समर्थकों के साथ विद्रोह किया, तब पार्टी ने जो मानसिकता बनाई थी, उसमें उपचुनाव तक में कोई बदलाव नजर नहीं किया। कांग्रेस ने अपने चुनाव प्रचार में इतनी नकारात्मकता भर दी थी, कि सिंधिया समर्थक भाजपा उम्मीदवारों के प्रति मतदाताओं में सहानुभूति पैदा हो गई। इसी का नतीजा है कि भाजपा के उम्मीदवारों को अनुमान से ज्यादा वोट मिले। साँची, सांवेर, सुवासरा और हाटपीपलिया ऐसे ही इलाके हैं, जहाँ के भाजपा उम्मीदवारों ने अपने आपको नकारात्मकता से बचाए रखा और नतीजा सामने है।

भाजपा के मुकाबले कांग्रेसी उम्मीदवारों का अपेक्षाकृत कमजोर होना भी हार का बड़ा कारण है। कमलनाथ ने सर्वे के जरिए उम्मीदवार तय करने का जो फार्मूला खोजा था, वो पूरी तरह फेल हो गया। ये सर्वे कब हुआ, कहाँ हुआ और किसने किया ये कोई नहीं समझ सका। सर्वे की आड़ में कई सीटों पर ऐसे चेहरों को उतारा गया, जिनमें जीतने का कोई माद्दा नहीं था। भाजपा से लौटे प्रेमचंद गुड्डू को साँवेर से चुनाव लड़ाना, बदनावर में टिकट बदलकर 72 साल के कमल पटेल को उम्मीदवार बनाना और करीब 9 दलबदलुओं को उम्मीदवार बनाना ऐसे ही फैसले थे, जो कांग्रेस की हार का कारण बने।

देखा जाए तो ये कांग्रेस से ज्यादा कमलनाथ की मनमानी वाले फ़ैसलों की हार है। सही चेहरों को टिकट न दिया जाना और अपना आदमीवाद चलाने की रणनीति पूरी तरह फेल हो गई। कमलनाथ प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष थे, पर उनका संगठन कहीं नजर नहीं आया। उम्मीदवार तय करने से लगाकर, रणनीति और चुनाव प्रचार तक में एक ही व्यक्ति नजर आता रहा, न कि पार्टी संगठन।

कांग्रेस और भाजपा के संगठनों में सबसे बड़ा अंतर यही है कि भाजपा हमेशा चुनाव मोड पर रहती है और कांग्रेस को घोषणा के बाद ही चुनाव की याद आती है। कतिपय मतभेदों के बावजूद सभी चुनाव में भाजपा एक नजर आती है। जबकि, कांग्रेस न तो एकजुट है और न कभी नजर आई। पार्टी में हमेशा सिर-फुटव्वल का माहौल दिखाई देता रहता है। कांग्रेस का संगठनात्मक ढांचा भी बिखरा हुआ है। हर चुनाव के वक्त देखा गया है कि कांग्रेस अपने उम्मीदवार को टिकट देने के बाद उसे अकेला छोड़ देती है। यदि जीत गया तो उसे पार्टी की जीत माना जाता है, पर उसकी हार को व्यक्तिगत हार की तरह साबित करने की कोशिश होती है।

टिकट देने के बाद कांग्रेस संगठन न तो स्थानीय नेताओं को जोड़ने की कोशिश करता है और न सेबोटेज करने वालों को संगठन का कोई भय रहता है। इसके विपरीत भाजपा छोटे-बड़े सभी चुनाव को प्रतिष्ठा का मुद्दा बनाकर मैदान में उतरती है और उसकी तैयारी भी दिखाई देती है। प्रदेश कांग्रेस का बिखराव इस बार के उपचुनाव में भी साफ़ नजर आया। आठ महीने का लम्बा समय मिलने के बाद भी चुनाव के प्रति तैयारी और गंभीरता का भारी अभाव रहा। नेताओं ने सोशल मीडिया और अन्य मीडिया में बयानबाजी को ही अपनी जिम्मेदारी समझ लिया था, जिसकी हवा निकलते देर नहीं लगी।

सबसे ज्यादा गौर करने वाली बात ये भी रही कि इन उपचुनाव में हवा-हवाई बातें करने वालों और ऊल-जुलूल दावे करने वालों को भी मतदाताओं ने बाहर का रास्ता दिखा दिया। फिर वो इमरती देवी हों, पारुल साहू हों या कमलनाथ। सिंधिया समर्थक भाजपा उम्मीदवारों में सबसे ज्यादा मुखरता इमरती देवी ने ही दिखाई। फिजूल के बयान और जीत के दावे उन पर भारी पड़ गए। कमलनाथ की ‘आइटम’ वाली टिप्पणी को भी इमरती देवी ने बेवजह तूल देकर चुनावी मुद्दा बना दिया था, जो निश्चित रूप से उनकी हार के कारणों में से एक है।

सुरखी से पारूल साहू ने भी जीत के दावों में रियायत नहीं बरती। लेकिन, कई विरोधों के बावजूद वे गोविंद राजपूत की जीत को नहीं रोक सकी। कुछ यही स्थिति प्रेमचंद गुड्डू की भी थी, जिन्होंने तुलसी सिलावट पर कई बार गलतबयानी की, पर जवाब में सिलावट शांत रहे। विपरीत परिस्थितियां के बावजूद तुलसी सिलावट ने अभी तक के अपने चुनाव में सबसे ज्यादा वोटों से जीत हासिल की। ऐसे ही एक नेता साँची के डॉ. प्रभुराम चौधरी हैं, जिनका कोई बयान पूरे उपचुनाव में सुनाई या दिखाई नहीं दिया, पर वे 28 सीटों में सबसे ज्यादा वोटों से जीते।

दरअसल, मतदाता की मानसिकता कभी नकारात्मकता पसंद नहीं करती। उसके पास अपनी बात कहने  का माध्यम नहीं होता, पर नतीजों के जरिए वो अपनी बात जरूर कह देता है। इसीलिए ये उपचुनाव कांग्रेस के लिए एक सबक हैं कि उसे अपना संगठन मजबूत करना होगा और आपसी गुटबाजी का इलाज करना होगा। हर नेता की अपनी कांग्रेस वाला फार्मूला अब तक चल गया, अब नहीं चलेगा।

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