कोरोना से जूझती बेपटरी जिंदगी

राकेश अचल

दुनिया में कोरोना का प्रसार कम नहीं हुआ है। कोरोना के कारण बेपटरी हुई जिंदगी अपने-आप पटरी पर लौटना चाहती है,  लौट भी रही है, लेकिन कोरोना की रफ्तार कम होने का नाम नहीं ले रही है। कोरोना के मामले में हम अमेरिका के पीछे चल रहे हैं। कोरोना और जिंदगी के बीच खो-खो का खेल चल रहा है। दवा बनी नहीं है और दुआएं बेअसर हो चुकी हैं। जो कोरोना का शिकार बनता है अपने नसीब से वापस सुरक्षित लौट आता है। भारत जैसे देश में जिंदगी ही नहीं अर्थव्यवस्था तक बेपटरी है, लेकिन अब सब थक चुके हैं। कोई भी अमिताभ बच्चन की सलाह पर सोशल डिटेन्सिंग का पालन करने को तैयार नहीं है।

आज तड़के मैं श्रीमती जी के साथ अपने शहर में मावा की एक भरोसेमंद दुकान पर मावा खरीदने गया था। मुझे कल इसी दुकान से बैरंग लौटना पड़ा था। आज हम समय से पहले दुकान पर गए तो देखा वहां पहले से भीड़ जमा है। मैंने भीड़ में जाने से मना कर दिया, लेकिन श्रीमती जी जान हथेली पर रखकर भीड़ में जा मिलीं। उन्हें भी भीड़ ने प्राथमिकता नहीं दी। वो तो भला हो एक किशोर का जिसने श्रीमती जी को बारी से पहले मावा दिलाने में मदद कर दी। कमोबेश यही हालत बाजार में हर दुकान पर है।

हमारा शहर ग्वालियर ऐतिहासिक शहर है। इस शहर ने अभी तक गांव को अपने भीतर छिपाकर रखा है,  जो त्‍योरों पर निकल कर फुटपाथों पर आ जाता है। मुमकिन है कि आपके शहर में भी त्यौहारों के इस दौर में बाजार फुटपाथों पर आ जाता हो। जब बाजार फुटपाथों पर आता है तो जिंदगी भी बेफिक्र होकर इसका हिस्सा बन जाती है। जितनी भीड़ मावा की दुकान पर है उतनी ही भीड़ अंतिम संस्कार का सामान बेचने वाले की दुकान पर। लोगों के पास पैसा है या नहीं… अब ये सवाल बेमानी हो गया है। कोरोनाकाल में बीमार हुए बाजार ही नहीं अखबार भी सोने के जेवरों के पूर्ण पृष्ठ वाले विज्ञापनों से भरे पड़े हैं। जाहिर है कि जेवरों के खरीदारों पर कोरोना का कोई असर नहीं पड़ा है।

जान हथेली पर रखकर जीना कला नहीं है, मजबूरी है। मजबूरी में अब सेनेटाइजर भी अपना महत्व खोता जा रहा है। मास्क भी नाक और मुंह से खिसककर नीचे आता जा रहा है। सवाल यही है की कोई आखिर कब तक एहतियात बरते? कोरोना से पीड़ितों की संख्या का आंकड़ा रोज घटता-बढ़ता रहता है लेकिन अब कोई कोरोना की इस घड़ी पर ध्यान नहीं देता। सब भूल गए हैं कि भारत में कोरोना से अब तक 8, 684, 039 लोग संक्रमित हो चुके हैं या 128, 165 लोग अपनी जान गंवा चुके हैं। अब कोरोना से मरना किसी को चौंकाता नहीं है। सबने मान लिया है कि- ‘जिसकी आ गयी है, वो जाएगा।‘

कोरोना के चलते राजनीतिक दलों ने बिहार विधानसभा के चुनावों के अलावा अनेक प्रदेशों में खासतौर पर मध्यप्रदेश में जम्बो उप चुनाव भी लड़ लिए। कोरोना की वैक्सीन पहली बार घोषणा के काम आई। हालाँकि न ‘नौ मन तेल था और न राधा नाची’। लेकिन राजनीति को होना था सो हुई। कोरोना के चलते देश में अपराध भी हो रहे हैं और बड़ी अदालतें बड़े लोगों की सुनवाई कर उन्हें राहत भी दे रहीं हैं। आफत केवल छोटे लोगों की है क्योंकि छोटी अदालतें अब तक बंद हैं। छोटे लोगों को त्वरित न्याय की जरूरत भी नहीं होती। उनकी व्यक्तिगत आजादी अर्णब की आजादी जैसी महत्वपूर्ण नहीं होती। क्योंकि छोटा आदमी चीखता-चिल्लाता नहीं है। सवाल नहीं करता, किसी का झंडा नहीं उठाता, किसी की चिलम नहीं भरता।

भारत की ही तरह अमेरिका में भी कोरोना की रफ्तार थम नहीं रही है लेकिन लोगों ने कोरोना की परवाह करना छोड़ दिया है। अमेरिका में कोरोना से अब तक 10, 708, 630 लोग संक्रमित हो चुके हैं,  247, 397 अपनी जान से हाथ धो चुके हैं। मरीजों को टेंटों में कोरन्टाइन होना पड़ रहा है। यानि जिंदगी हारने को तैयार नहीं है। जाहिर है आखिर में हारेगा कोरोना ही। कोरोना की गति मनुष्य की आबादी बढ़ने की रफ्तार का मुकाबला तो नहीं कर सकती न। दुनिया के 219 देशों में से कुछ ही ऐसे हैं जहां कोरोना कोई जान नहीं ले पाया हालाँकि कोरोना ने दस्तक हर देश में दी।

कोरोना की आड़ में नाकामियां छिपाने वाली सरकारें जरूर बेशर्म साबित हुई हैं। अनेक राज्यों में लॉकडाउन के बाद अनेक चरणों में दी गयी ढील के बावजूद जनजीवन और सरकारी मशीनरी अब तक मामूल पर नहीं आई है। सार्वजनिक परिवहन आज भी लंगड़ा है। रेलें बंद हैं और जो चालू हैं उनके लिए सवारियां नहीं है क्योंकि रेलों में न तो सुरक्षा के पूरे इंतजाम हैं और न रियायतें। कोरोना की आड़ में सिर्फ उनकी चांदी है जो सत्ता के नजदीक हैं। सत्ता धीरे-धीरे अपनी जिम्मेदारियों का बोझ काम करते हुए निजी क्षेत्रों को सरकारी कामकाज सौंपती जा रहीं है। हवाई अड्डों के संचालन से लेकर रेलों का संचालन भी निजी हाथों में जा रहा है।

कोरोना-काल दरअसल लोकतंत्र की जड़ों में भी क्षार डाल रहा है। जितनी भी लोकतांत्रिक व्यवस्थाएं हैं पंगु पड़ी हैं। सरकारी दफ्तरों में कोई,  किसी की सुनने को तैयार नहीं हैं। अराजकता की गंभीर चुनौतियाँ देश के सामने हैं,  लेकिन कोई कुछ कर पाने की स्थिति में भी नहीं है। कोरोना को छोड़ कुछ भी पोजेटिव्ह नहीं है। और पोजेटिव्ह कोरोना आम जनता के साथ-साथ समाज को भी पंगु बना रहा है। लोकतंत्र के सभी स्तम्भ इस महामारी की चपेट में हैं। परेशान आदमी जाये तो जाये कहाँ? कोरोना और जनता के बीच चल रही जंग के साथ ही बाजारों में दिखाई दे रही भीड़ शेयर बाजार के लिए सुखद घड़ियाँ लेकर आई है। शेयर बाजार उछल रहा है। दाढ़ियां भी बढ़ रहीं हैं,  कुछ पेट में और कुछ चेहरों पर।

देखिये और उम्मीद रखिये की जन जीवन बहुत जल्द मामूल पर लौटेगा। अर्थयवस्था के बारे में मै कुछ कह नहीं सकता। अर्थव्यवस्था तो सरकार के हाथों की कठपुतली है। उसे सरकार ही नचा सकती है। अर्थव्यवस्था की तरह जनता भी केवल नाचना जानती है।

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