गिरीश उपाध्याय
मध्यप्रदेश में उपचुनाव के निर्णायक परिणाम अब सबके सामने हैं। आने वाले दिनों में इनके अर्थ और अनर्थ पर थोड़ी बहुत बहस होगी, फिर राजनीति की रेलगाड़ी उसी पुरानी पटरी पर पुरानी चाल से चलने लगेगी। यूं तो हर चुनाव जनता और राजनेता, सरकार और राजनीतिक दल सभी को कोई न कोई सबक देकर जाता है, लेकिन इस बार के उपचुनावों से बहुत गहरे सबक मिलने की उम्मीद की जा रही थी। नतीजों ने उम्मीद लगाए बैठे लोगों को निराश नहीं किया है और कुछ नए किस्म के सबक राजनीति और लोकतंत्र को दिये हैं।
चुनाव नतीजों में कौन हारा, कौन जीता, वोटों का अंतर कितना रहा, किसको कितने प्रतिशत वोट मिले जैसे विश्लेषणों को बाकी लोगों के लिए छोड़ते हुए मैं मोटे तौर पर दो चार बातें कहना चाहूंगा। सबसे पहली बात, यह जीत भाजपा के संगठन और उसकी संगठन शक्ति की है। राजनीति कर रहे लोगों को संगठन की रचना और संचालन सिखाने के लिए भाजपा के पास आज भी बहुत कुछ है और बाकी दलों को उससे सीखना चाहिए।
गद्दारी और बगावत, बिकाऊ और टिकाऊ जैसे नारों के बीच यह मुश्किल ही नहीं लगभग असंभव काम था कि एक समय ‘दुश्मन’ रहे व्यक्ति को कंधे पर बिठाकर, उसके सिर पर जीत का सेहरा भी पहनवा दिया जाए। भाजपा खुद भीतर से बहुत डरी हुई थी। लेकिन शुरुआती नाराजी और उबाल के बाद पार्टी का कार्यकर्ता अंतत: संगठन के लिए, संगठन के साथ खड़ा हुआ और उसने पार्टी को अपनी पीठ पर बिठाकर यह वैतरणी पार करवा दी।
उपचुनाव से पहले बहुत हल्ला था कि इस बार कांग्रेस की तरफ से पार्टी नहीं खुद जनता चुनाव लड़ रही है और वह गद्दारों और बिकाऊ माल को जिंदगी का सबसे बड़ा सबक सिखाएगी। लेकिन कांग्रेस को निराश होना पड़ा। यह पूछा जा सकता है कि जनता ने ऐसा क्यों किया? सबके पास अपना अपना जवाब हो सकता है लेकिन मुझे लगता है बात राजनीतिक दल और उसके नेतृत्व में भरोसे की है। लोगों ने कांग्रेस और उसके नेतृत्व के बजाय भाजपा और उसके नेतृत्व की सरकार चलाने की क्षमता और टिकाऊपन पर ज्यादा भरोसा किया।
उपचुनाव से पहले जनता में गुस्से की जो बात कही जा रही थी, निश्चित रूप से गुस्सा रहा होगा। लेकिन किसी को यह पता नहीं था कि यह गुस्सा कैसा है और इसका नजला किस पर गिरेगा। बात होती रही गद्दारों और बिकाऊ माल को सबक सिखाने की और उधर संभवत: मतदाताओं के मन में गुस्सा इस बात का पनपा कि जो पार्टी अपने चुने हुए जन प्रतिनिधियों को ही संभाल कर न रख पाए वह उनके वोट का मान कैसे रख पाएगी।
जो पार्टी और नेतृत्व अपनी मूर्खताओं से बनी बनाई सरकार गिरने का सबब बन जाए, वो आने वाले दिनों में भी ऐसी मूर्खता नहीं करेंगे और स्थायी नेतृत्व दे सकेंगे इसकी क्या गारंटी है। संभवत: इसीलिये लोगों ने बहुत से उन उम्मीदवारों को नए चिह्न पर फिर से चुन लिया जिन्हें वे 2018 में किसी और चिह्न पर चुन चुके थे। यानी व्यक्ति में उनका भरोसा फिर भी कायम रहा, पार्टी में नहीं। इस लिहाज से कांग्रेस ने सिर्फ अपनी सत्ता ही नहीं खोई अपनी जमीन भी खोई है।
लेकिन इस उपचुनाव से भाजपा को भी एक सबक लेना चाहिये। लोग यदि उस पर भरोसा कर रहे हैं तो सिर्फ इसलिए कि उन्हें तुलनात्मक रूप से वह ठीक लगती है। पर इसका मतलब यह नहीं कि लोगों का भरोसा और सत्ता की चाबी हर बार इस तरह जोड़तोड़ से हासिल की जाए। यदि हम सचमुच लोकतंत्र को मजबूत होते देखना चाहते हैं, तो जरूरी है कि राजनीति में शुचिता, नैतिकता और ईमानदारी की पुनर्स्थापना हो। यह समय मतदाताओं को कोसने का नहीं, बल्कि उन्हें स्वस्थ और ईमानदार लोकतंत्र की स्थापना के लिए और अधिक जागरूक करने का है। इस लिहाज से उपचुनाव का बड़ा सबक यही है कि राजनीतिक दल मतदाताओं को समझें भी और समझाएं भी।