गरीबी रेखा का मानदंड बदलने की कवायद

प्रमोद भार्गव

केंद्र सरकार के ग्राम पंचायत एवं विकास मंत्रालय ने नए सिरे से गरीबी रेखा तय करने के लिए ‘वर्किंग पेपर’ जारी किया है। अब इस पर्चे में गरीबी रेखा में मौजूद नागरिकों के घर, शिक्षा, वाहन, स्वच्छता आदि जानकारियों की प्रविष्टी की जाएगी। दरअसल विश्व-बैंक ने भारत को ‘निम्न मध्यम आय’ श्रेणी में रखा है। इस श्रेणी के लोगों का विश्व-बैंक के दिशा-निर्देशों के अनुसार प्रतिदिन औसत खर्च 75 रुपए होना चाहिए। चूंकि भारत में गरीबी रेखा के दायरे में आने वाले लोगों की आय 75 रुपए प्रतिदिन नहीं है, इसलिए गरीबी रेखा के वर्तमान मानदंडों में नीतिगत बदलाव लाया जाना आवश्यक हो गया है। विडंबना है कि आजादी के 70 साल बाद भी गरीबों के लिए कोई निश्चित मानदंड निर्धारित नहीं हो पाए हैं। जबकि इस नजरिए से गरीबों की आमदनी तय करने की अनेक कोशिशें हो चुकी हैं, लेकिन गरीबी तय करने की कोई एक कसौटी नहीं बन पाई है।

इस यक्ष प्रश्न को सुलझाने की जबावदेही जाने-माने अर्थशास्त्री और नीति आयोग के उपाध्यक्ष रहे अरविद पनगढ़िया को सौंपी गई थी। गरीबी रेखा तय करने के लिए 16 सदस्यीय टॉस्क फोर्स का भी गठन किया गया था। चूंकि नीति आयोग देश के ढांचागत विकास और लोक-कल्याणकारी योजनाओं की भूमिका तैयार करता है, इसीलिए उसके पास आधिकारिक सूचनाएं और आंकड़े भी होते हैं। उम्मीद थी कि टॉस्क फोर्स एक सर्वमान्य फॉमूर्ला सुझाएगा, लेकिन लंबी जद्दोजहद के बाद फोर्स ने गरीबी रेखा की कसौटी सुनिश्चित करने से इनकार कर दिया था।

गरीबी की स्थिति तय करने की कवायद 1960 से निरंतर चल रही है। कोई सरकार एक रेखा तय करती है, तो विपक्ष उस पर यक्ष प्रश्न खड़े कर देता है, किंतु उसी विपक्ष पर जब कसौटी तय करने की जिम्मेदारी आती है तो बगलें झांकने लगता है। जबकि यही सरकारें, सरकारी कर्मचारियों को छठवें और सातवें वेतनमान देकर एक झटके में चार-पांच गुना वेतन बढ़ाने में कोई गुरेज नहीं करतीं। सांसदों और विधायकों की तन्ख्वाहें भी आनन-फानन बढ़ा दी जाती हैं। यहां तक की भोग-विलास से जुड़ी सुख-सुविधाएं बढ़ाने में भी परहेज नहीं किया जाता। किंतु जब बारी मेहनतकश गरीब की आती है, तो अकसर बहाना ढूंढ लिया जाता है।

इन बहानों से पता चलता है कि सरकार चाहे संप्रग की रही हो, या राजग की, इनके भीतरी एजेंडे में गरीबी दूर करना शामिल नहीं है। हां, आयगत असमानता और महंगाई बढ़ाकर तथा प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष कर लगाकर और उद्योगपतियों को करों में छूट देकर गरीब के हालात और बदतर बनाने में जरूर कोई संकोच नहीं होता। यही वजह है कि देश में गैर-बराबरी की खाई दिन-प्रतिदिन चैड़ी हो रही है।

ऑक्सफेम की रिपोर्ट के मुताबिक भारत के 63 अरबपतियों के पास केंद्रीय बजट से अधिक संपत्ति है। इसी तरह क्रेडिट सुइसे  एजेंसी के अनुसार वैश्विक धन के बंटवारे के बारे में जारी रिपोर्ट से खुलासा हुआ है कि भारत में सबसे धनी एक फीसदी आबादी के पास देश का 53 प्रतिशत धन है। इसके उलट 50 फीसदी गरीब जनता के पास देश की सिर्फ 4.1 प्रतिशत धन-संपत्ति है। साफ है, सामाजिक, आर्थिक, स्वास्थ्य और शैक्षिक न्याय के सरकारों के तमाम दावों के बावजूद असमानता सुरसा-मुख की तरह बढ़ रही है।

इसका नतीजा यह हुआ है कि साल 2000 में देश के सबसे धनी 10 फीसदी लोगों के पास 36.8 प्रतिशत धन-संपदा थी, जो आज 65.9 फीसदी से भी ऊपर पहुंच चुकी है। गौरतलब है 1998 से 2003 तक केंद्र में भाजपा नेतृत्व वाली अटलबिहारी वाजपेयी सरकार थी, फिर 2003 से 2013 तक कांग्रेस नेतृत्व वाली मनमोहन सिंह सरकार और अब 6 साल से भाजपा गठबंधन सरकार सत्तारूढ़ है। मसलन सरकार चाहे किसी भी विचारधारा की रही हो, आर्थिक रुझान, आर्थिक रुप से सक्षम तबके को और धनी बनाने के ही रहे हैं। इस आर्थिक असमानता को केवल गरीबी और अमीरी के नजरिए से देखना, व्यापक राष्ट्रहित नहीं है, क्योंकि बढ़ती विषमता की इसी कोख में अशांति, हिंसा, अराजकता और राजनीतिक उथल-पुथल के बीज अंगड़ाई ले रहे हैं।

भारत में लोक-कल्याणकारी नीतियां दलीय एजेंडों में शामिल रहती हैं, लेकिन जब दल सत्तारुढ़ होते हैं तो इन नीतियों को नजरअंदाज कर दिया जाता है। दरअसल भारत में गैर-बराबरी अमेरिका से कहीं ज्यादा है। भारत में जितना राष्ट्रीय धन पैदा हो रहा है, उसका बहुत बड़ा हिस्सा चंद पूंजीपतियों की तिजोरी में बंद हो रहा है। क्रेडिट सुइसे की रिपोर्ट के मुताबिक 2000-15 के बीच भारत में 2.284 खरब डॉलर धन पैदा हुआ, जिसका 61 प्रतिशत हिस्सा अधिकतम धनी, महज एक प्रतिशत पूंजीपतियों के पास चला गया। 20 प्रतिशत धन अन्य 9 फीसदी पूंजीपतियों की जेब में गया। शेष बचा महज 19 प्रतिशत जो देश की 90 फीसदी आबादी में बंटा। देश की यही बड़ी आबादी फटेहाल है।

तो क्या यह मान लिया जाए, कि कहीं गरीब का पेट ठीक से भरने न लग जाए, इसलिए गरीबी रेखा बार-बार तय करने के उपाय किए जाते हैं? शायद इस हकीकत को अनुभव करने के बाद ही पूर्व राष्ट्रपति केआर नारायणन (1997-2002) को कहना पड़ा था कि देश में बड़ी मात्रा में खाद्यान उपलब्ध है। इसके बावजूद कोई नागरिक भूखा सोता है, तो इसका मतलब है कि उसके पास अनाज खरीदने के लिए पर्याप्त धन नहीं है। यह स्थिति आज भी बरकरार है, क्योंकि 2019 की जो भूख सूचकांक रिपोर्ट आई है, उसमें भारत 94वें स्थान पर है। जबकि 2018 में 102वें स्थान पर था। देश में 14 प्रतिशत आबादी अभी भी कुपोषित हैं। संयुक्त राष्ट्र की ताजा रिपोर्ट में कहा गया है कि कोरोना प्रकोप के चलते आठ करोड़ अतिरिक्त लोग भारत में गरीब हो जाएंगे। मसलन गरीबी और भुखमरी का दायरा और बढ़ जाएगा।

मनमोहन सिंह सरकार ने जब देश में गरीबों की संख्या निर्धारित करने के लिए सुरेश तेंदुलकर समिति की रिपोर्ट को आधार बनाया था, तब उसकी खिल्ली उड़ाई गई थी। इस समिति ने विश्व बैंक की गरीबी मापने की कसौटी को आधार बनाया था। इसके तहत तब खरीदने की क्षमता को ध्यान में रखते हुए सवा डॉलर प्रतिदिन खर्च क्षमता को गरीब होने या न होने को कसौटी माना गया। इस समिति ने पैमाना दिया कि गांव में रोज 27 और शहरों में 31 रुपए खर्च क्षमता से नीचे के व्यक्ति को गरीब माना जाए। इसी बूते संप्रग सरकार ने घोषणा कर दी थी कि देश में सिर्फ 21 फीसदी, मसलन 27 करोड़ लोग गरीब हैं।

भाजपा समेत तमाम विपक्ष की तीखी आलोचना के बाद सरकार ने इस रिपोर्ट को ठंडे बस्ते में डाल दिया और अर्थशास्त्री आर. रंगराजन की अध्यक्षता में गरीबी रेखा तय करने के लिए नई समिति बना दी। इस समिति की रिपोर्ट नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद तैयार हुई। इसमें गांव में रोजाना 32 और शहर में 47 रुपए खर्च की क्षमता रखने वाले व्यक्ति को गरीब माना गया। इस हिसाब से करीब 36 करोड़ लोग गरीबी रेखा के दायरे में आते। लेकिन मोदी सरकार ने गरीब हितैषी रुख दिखाते हुए रिपोर्ट को गरीबी की सटीक कसौटी मानने से इंकार तो किया ही, संवेदनशीलता जताते हुए यह यक्ष प्रश्न भी खड़ा किया कि 32 और 47 रुपए मात्र से कोई व्यक्ति खाद्य वस्तुओं और सेवाओं का उपभोग कैसे कर सकता है?

इसके बाद यही जिम्मेवारी अरविंद पनगढ़िया को सौंप दी गई थी। उनकी समिति भी कोई परिणाम नहीं दे पाई। इससे लगता है कि उन्होंने गरीबी रेखा के निर्धारण को गंभीर विषय व चुनौती माना ही नहीं? लिहाजा हाथ खड़े कर दिए। हालांकि पिछली दो रिपोर्टों से तो यह जाहिर हुआ कि समितियों ने गरीबी के बजाय भुखमरी की रेखा मापने में कहीं ज्यादा कश्मकश की है। बहरहाल समितियों के नतीजों से यह तो साफ हुआ है कि गरीबी दूर करना सरकारों के एजेंडे में ही नहीं है। क्योंकि आज जो भी नए सर्वे आ रहे हैं, उनसे यह स्पष्ट संकेत मिल रहे हैं कि देश में उत्तरोत्तर सरकारों का मकसद केवल गरीबों को जीवित बनाए रखना रह गया है, इसीलिए राज्य सरकारें सस्ते अनाज से लेकर सस्ती थाली और सस्ते भोजनलायों का इंतजाम कर रही हैं।

बुंदेलखंड में गरीबों की स्थिति इतनी बदतर है कि उन्हें ठीक से एक वक्त का भोजन भी नसीब नहीं हो रहा है, इसीलिए समाजसेवी संस्थाओं ने ‘रोटी बैंक’ तक खोल दिए हैं। घर-घर से रोटी लाकर ये लोग जैसे-तैसे गरीबों का पेट भरते हैं। सरकार भले ही, दुनिया में सबसे तेज बढ़ती अर्थव्यवस्था का दावा करे, किंतु जब तक सबसे गरीब और कमजोर व्यक्ति के लिए सस्ते या मुफ्त भोजन के प्रबंध बंद नहीं हो जाते, तब तक किसी भी आर्थिक वृद्धि का कोई अर्थ नहीं है?

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here