टपोरी और असभ्य होती सियासत

राकेश अचल

देश की राजनीति अब स्तरहीन होने के साथ ही टपोरी संस्कृति से घिरती दिखाई दे रही है। अब इस राजनीति में असहमति और प्रतिपक्ष के लिए या तो कोई ठौर बचा नहीं है या फिर इसे बहुत सीमित किया जा रहा है। बिहार के औरंगाबाद में राजद के अध्यक्ष और प्रतिपक्ष के युवा नेता तेजस्वी यादव के ऊपर पादुका प्रहार इसी गिरावट का ताजा-तरीन प्रमाण है।

राजनीति में गिरावट के संकेत तो बहुत पहले से मिल रहे थे लेकिन बीते छह सालों में गिरने की ये रफ्तार और तेज हो गयी है। इस गिरावट के दृश्य संसद से सड़क तक दिखाई दे रहे हैं। यदि संसद में एक महिला सांसद की हंसी को असुरों जैसा बताया जाता है, तो सड़क पर एक महिला मंत्री को ‘आयटम’ भी कहा जा सकता है। अब राजनीति की शब्दावली शायद नए सिरे से गढ़ी जा रही है जो कि नयी पीढी को ज्यादा मुफीद लगती है।

बिहार में डेढ़ दशक से सत्ता में जमे सुशासन बाबू यानि नीतीश कुमार की सहनशक्ति लगता चुक गयी है। वे कुर्सी से चिपके रहने के लिए कृत संकल्पित दिखाई देते हैं। उनकी हठधर्मी से एनडीए से पासवान की पार्टी अलग हो गयी और अब प्रतिपक्ष चप्पलें खाने के लिए अभिशप्त है। आने वाले एक सप्ताह में बिहार में क्या-क्या और नहीं होगा, कहा नहीं जा सकता। क्योंकि अभी महारथी तो मैदान में उतरे ही नहीं हैं।

बिहार विधानसभा के चुनाव में एक नयी बात ये है कि मौजूदा मुख्यमंत्री का मुकाबला युवा तुर्कों से है। एक और राजद के तेजस्वी हैं तो दूसरी तरफ हाल ही में दिवंगत हुए केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान के बेटे चिराग पासवान।  छोटे-मोटे दलों की बात तो मैं कर ही नहीं रहा। बिहार राजनीतिक रूप से जाग्रत प्रदेश है भले ही आर्थिक रूप से कमजोर रहा हो। यहां से संपूर्ण क्रान्ति का शंखनाद होता है, यहीं से मैला आँचल के फ़णीश्वरनाथ रेणु निकलते हैं,  यहीं से देश को पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद मिलते हैं और यहीं से लालू तथा नीतीश जैसे लोग भी राजनीति में प्रकट होते हैं।

सब तरह से ‘सु-संस्कृत’ बिहार में विधानसभा चुनाव के समय चप्पलों का उछाला जाना अच्छा संकेत नहीं है। मुमकिन है कि ये चप्पल राजद के ही किसी असंतुष्ट कार्यकर्ता की हो और मुमकिन है कि ये चप्पल किसी भाजपा कार्यकर्ता की रही हो। अब चप्पल का न तो डीएनए जांचा जा सकता है और न ही इसे किसने फेंका या फिंकवाया, की जांच के लिए एसआईटी का गठन हो सकता है। सीबीआई जाँच की मांग तो हो ही नहीं सकती। लेकिन खतरा ये है कि आने वाले दिनों में यदि चप्पल का जवाब चप्पल से दिया गया तो कठिनाई पैदा हो सकती है,  क्योंकि अभी तो बिहार में प्रधानमंत्री से लेकर राहुल गांधी तक को जनता का सामना करने जाना है।

असहमति जताने के लिए पहले केवल काले झंडे इस्तेमाल किये जाते थे। बात आगे बढ़ी तो विरोध द्रवित हुआ और काली सियाही का इस्तेमाल होने लगा, सड़े टमाटर और अंडे बरसाने का शाकाहारी प्रयोग भी असहमति जताने के लिए किया गया, लेकिन जूते-चप्पल का हिंसक इस्तेमाल अब तेजी से हो रहा है। आप इसे राजनीति में गिरावट मानें या न मानें लेकिन मै मानता हूँ। इसलिए मानता हूँ क्योंकि अब तक कोई दूसरा तरीका सामने आया नहीं है।

देश को हमारे मध्यप्रदेश ने राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री दिए हैं इसलिए हम बिहार से कुछ कम नहीं हैं, लेकिन हमारे यहां अभी बातों से काम चल रहा है। जूते-चप्पलों की बारी नहीं आयी है। हमारे यहां विधानसभा उपचुनावों के दौरान एक पूर्व क्या अभूतपूर्व मुख्यमंत्री रहे कमलनाथ ने एक महिला मंत्री को ‘आयटम’ कह दिया तो प्रत्युत्तर में एक मंत्री ने कांग्रेस की एक महिला प्रत्याशी को ‘रखैल’ कह डाला।

इस शब्दावली से जाहिर है कि भाजपा हो, कांग्रेस हो या इन्ही दो दलों से निकले दूसरे दल हों, सबके पास भाषा का संकट है। सभी राजनीतिक दलों की शब्दावली दूषित हो चुकी है। राजनीतिक दलों की भाषा सुधारने के लिए या तो अब कोई संसदीय समिति बनाई जाये या फिर राजनीति में कुछ स्थान भाषाविदों के लिए आरक्षित किया जाये ताकि वे नेताओं की भाषा को समृद्ध कर सकें,  उसे संस्कारित कर सकें। भाषा भी दरअसल एक हथियार है,  लेकिन यदि इसमें जंग लगती है तो ‘सेप्टिक’ होने का खतरा बढ़ जाता है।

मजे की बात ये है कि छोटे नेता अगर दूषित भाषा का इस्तेमाल करते हैं तो बड़े नेता इससे अपने आपको असंबद्ध कर लेते हैं। जो साहसी होते हैं वे अपने से छोटे नेताओं की बदजुबानी के लिए खेद भी प्रकट कर देते हैं और जो अधिक साहसी होते हैं,  वे माफी भी मांग लेते हैं।  लेकिन जब बड़े नेता बदजुबानी करते हैं तो छोटे नेताओं के पास माफी मांगने या खेद जताने का कोई विकल्प नहीं होता। बड़े नेताओं की बदजुबानी अध्यादेश जैसी होती है जो क़ानून बनने तक मान्य की जाती है।

बहरहाल हमारी चिंता राजनीति में भाषा और व्यवहार में आयी गिरावट को लेकर है। आने वाले दिनों में राजनीति की भाषा और संश्लेषित होना चाहिए। भाषा के अहिंसक होने के बाद ही हम राजनीति को अहिंसक बना सकते हैं। अन्यथा तमंचा चलाने और गाली देने में कोई ख़ास अंतर नहीं रह जाता। राजनीतिक भाषा की गंगा में शुचिता का प्रवाह ऊपर से नीचे की तरफ आना चाहिए, अन्यथा संविद पात्रा की पीढ़ी की जो राजनीतिक भाषा है वो तो निराश करती है। पात्रा से मतलब सिर्फ पात्रा से नहीं, बल्कि उनकी समूची पीढ़ी से है। अब संसदीय और असंसदीय भाषा में भेद करना बड़ा कठिन हो गया है।

हमारी पीढ़ी ने राजनीति में संस्कृत निष्ठ भाषा का इस्तेमाल होते देखा है, इसलिए नयी पीढ़ी के अपेक्षकृत आज की राजनीतिक भाषा पढ़-सुनकर हमारी पीढ़ी के लोगों को ज्यादा तकलीफ होती है। लेकिन तय है कि कल जब आप हमारी जगह आएंगे,  तब आपको भी तकलीफ होगी। अब राजनीति संसद और सड़क तक सीमित नहीं है, बल्कि टीवी के जरिये हमारे शयनकक्ष तक जा पहुंची है। मैं तो कहता हूँ कि मतदाताओं को मतदान करते समय अपने प्रतिनिधि की भाषा को भी ध्यान में रखना चाहिए। बकलोली करने वाले विदूषक जैसे नेताओं से मतदाता हाथ ही जोड़ लें तो बेहतर हैं।

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