अजय बोकिल
यूं तो दुर्गा पूजा अथवा दुर्गोत्सव पश्चिम बंगाल का सबसे बड़ा धार्मिक-सामाजिक पर्व है, लेकिन इस बार इस त्योहार पर राजनीतिक रंग कुछ ज्यादा ही चढ़ा नजर आ रहा है। क्योंकि राज्य में अगले साल विधानसभा चुनाव होने हैं, जिसमें तृणमूल कांग्रेस और भाजपा का असली शक्ति परीक्षण होना है। यही वजह है कि मुख्यमंत्री ममता बैनर्जी पूजा पंडालों के माध्यम से लगातार राजनीतिक संदेश देने की कोशिश कर रही हैं, वहीं पहली प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी एक पूजा पंडाल का शुभारंभ करने वाले हैं।
वैसे ये पूजा पंडाल सियासी मंशाओं के साथ-साथ समकालीन सामाजिक हालात की प्रतिच्छाया भी होते हैं। इस मायने में दुर्गा प्रतिमाएं पारंपरिक के साथ कलात्मक और सामाजिक सरोकारों के नवाचार की झांकी भी होती हैं। इस साल कोलकाता के बेहला इलाके में बारिशा क्लब की पूजा प्रतिमा में एक प्रवासी मजदूर मां की अपने बेहाल बच्चों के साथ मार्मिक झांकी की बड़ी चर्चा है। ये प्रतिमा स्त्री की अदम्य इच्छाशक्ति, ममता और संषर्घ क्षमता का प्रतीक भी बन गई है।
बंगाल के पूजा पंडाल केवल देवी प्रतिमाओं के भव्य आराधना स्थल ही नहीं होते, उनमें जन मानस की सोच, पीड़ा और सामाजिक उथल-पुथल का मार्मिक प्रतिबिम्ब भी दिखाई पड़ता है (ऐसी कुछ झांकियां हमारे यहां भी बनती हैं)। लिहाजा कोविड 19 के कारण देश में अचानक लागू लॉक डाउन के कारण लाखों भूखे-प्यासे प्रवासी मजदूरों की पैदल घर वापसी की मार्मिक कहानियां भी इस बार पूजा पंडालों में प्रतिबिम्बित हो रही हैं। बारिशा क्लब के पूजा पंडाल में प्रदर्शित एक प्रवासी मजदूर मां के रूप में ऐसी दुर्गा रूपांकित की गई है, जिसके हाथों में शस्त्र न होकर एक हाथ में निर्वस्त्र नन्हा बेटा कार्तिक और दूसरे हाथ में खाली झोला है।
इस मां की आंखों में असुर संहार का रौद्र भाव न होकर केवल पीड़ा है और चेहरे पर ममता। मां के पीछे उसकी तीन बेटियां हैं। जिनमें से एक के हाथ में कटोरा है तो दूसरी एक बतख को खिला रही है। तीसरी बेटी खाली मटकी फोड़ती दिखाई गई है। ये मां अपने चारों बच्चों के साथ पैदल चली जा रही है। परंपरागत दुर्गा प्रतिमा से हटकर इस प्रतिमा में कोई असुर नहीं है। कलाकार ने दैत्य के रूप में भूख को दिखाया है। प्रवासी मजदूर के रूप में स्त्री की अदम्य इच्छाशक्ति को दर्शाने वाली इस अनूठी और प्रेरक प्रतिमा को बनाने वाले कलाकार हैं रिंटू दास। रिंटू के मुताबिक उन्हें इस नवाचारी देवी प्रतिमा के निर्माण की प्रेरणा लॉक डाउन के दौरान सुनी प्रवासी मजदूरों की दर्दनाक कहानियों से मिली। इस पूजा पंडाल की थीम ही है ‘त्राण।‘
दुर्गापूजा बंगाली उत्सवधर्मिता और देवी आस्था का प्राण है। इस दौरान पूरा बंगाल एक अलग रंग में रंगा नजर आता है। कोरोना के कारण इस बार बंगाल में दुर्गापूजा की वैसी धूम नहीं है, जैसे हर साल होती है। सोशल डिस्टेसिंग व सावधानियों के चलते राज्य भर में दुर्गा पूजा का उत्साह अपेक्षाकृत फीका है। बावजूद इसके लोग दुर्गा पूजा को लेकर उत्साहित हैं। क्योंकि यह बंगाल की अर्थव्यवस्था का भी एक अहम घटक है। एक रिपोर्ट के मुताबिक बंगाल में दुर्गा पूजा का आर्थिक आकार करीब डेढ़ लाख करोड़ रूपये का है, जो पश्चिम बंगाल की जीडीपी का लगभग दस फीसदी है।
यूं बंगाल में दुर्गापूजा का चलन पांच सौ वर्षों से है। कहते हैं कि इसकी औपचारिक शुरुआत सबसे पहले अचलाबाड़ी में सवर्ण रायचौधुरी परिवार में लक्ष्मीकांत गंगोपाध्याय ने 1610 में की थी। बारिशा रायचौधुरी परिवार का पैतृक गांव माना जाता है। 1757 में नबकृष्ण देब ने शोभा बाजार में दुर्गा पूजा की शुरुआत की और इसका एक स्वरूप निर्धारित किया। दुर्गा पूजा सामाजिक हैसियत का प्रतीक भी बन गई।
लेकिन बड़े पैमाने पर दुर्गापूजा की शुरुआत ‘बारोवारी’ से मानी जाती है। 1790 में 12 बंगाली ब्राह्मण परिवारों ने एक साथ मिलकर हुगली के गुप्तिपाड़ा में उत्सव के रूप में दुर्गा पूजा प्रारंभ की। उसके बाद रानी रासमणि के यहां दुर्गा पूजा के साथ रात भर चलने वाले लोक नाट्य ‘जत्रा’ का आयोजन भी होने लगा। तब तक इसे बंगाली बाबुओं का उत्सव ही ज्यादा माना जाता था। लेकिन दुर्गा पूजा को एक सार्वजनिक उत्सव और सामाजिक सरोकारो से जोड़ने का क्रम 1909 में (बंगाल विभाजन विरोधी आंदोलन के साथ) शुरू हुआ। जब कोलकाता के भवानीपुर में भवानीपुर सनातन धर्मोत्साहिणी सभा ने बारोवारी दुर्गा पूजा आयोजन किया।
उसी समय महर्षि श्री अरविंद ने प्रसिद्ध दुर्गा स्तोत्र का प्रकाशन अपने समाचारपत्र ‘धर्म’ में किया। जल्द ही दुर्गा पूजा उत्सव धार्मिक आस्था के साथ जनचेतना और सामाजिक राजनीतिक गतिविधियों का माध्यम भी बन गया। आज पूरे बंगाल में 37 हजार पूजा पंडाल स्थापित हैं और इतनी ही पूजा समितियां भी हैं। इन पूजा समितियों पर कब्जा किसी भी राजनीतिक पार्टी की पकड़ को दर्शाता है। लेफ्ट के राज में कम्युनिस्ट पार्टियों ने पूजा समितियों से एक दूरी बनाकर रखी थी। हालांकि उन्होंने दुर्गा पूजा को रोका भी नहीं। लेकिन ममता बैनर्जी ने इनका इस्तेमाल अपनी पार्टी तृणमूल कांग्रेस की पकड़ निचले स्तर बनाने में किया। उसे हिलाना आसान नहीं है।
यह बात अब बंगाल में कमल खिलाने का सपना देख रही भाजपा को समझ आ रही है। सो,उसने भी अपने स्तर पूजा पंडाल बनाना और दुर्गोत्सव का आयोजन शुरू कर दिया है। इसका आयोजन भाजपा महिला मोर्चा पूर्व क्षेत्र सांस्कृतिक केन्द्र के ऑडिटोरियम में कर रहा है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी इस पूजा पंडाल का आभासी शुभारंभ करेंगे। दूसरी तरफ राज्य की मुख्यमंत्री और टीएमसी प्रमुख अभी 69 पूजा पंडालों का उद्घाटन कर चुकी हैं। ममता, राज्य में भाजपा से मिल रही कड़ी राजनीतिक चुनौती से वाकिफ हैं और उन पर मुस्लिम परस्त होने के आरोपों की काट वो खुद को धर्मनिरपेक्ष होने के साथ-साथ धर्मसापेक्ष होने के रूप में प्रस्तुत करके कर रही हैं।
ममता ने भाजपा द्वारा उन पर लगाए मुस्लिम परस्त और हिंदू विरोधी होने के आरोपों का जवाब पूजा पंडालों का अनुदान 25 हजार से बढ़ाकर 50 हजार करने, दुर्गा पूजा में पूजा पंडालों को बिजली बिल में 50 फीसदी छूट देने की घोषणा से दिया है। टीएमसी कार्यकर्ता हर आयोजन में ‘जोय बांगला’ का नारा लगाने से नहीं चूकते। ममता भाजपा को ‘गैर बंगालियों’ की पार्टी कहती हैं। उन्हें यह भी पता है कि राज्य में 27 फीसदी मुसलमानों का समर्थन बनाए रखकर वो अगला चुनाव भी जीत सकती हैं।
भाजपा की मुश्किल यह है कि उसके पास ममता की काट के रूप में कोई दमदार और लोकप्रिय बंगाली चेहरा नहीं है। उसने राज्य में हिंदुत्व की लहर उठाने के प्रयोग के रूप में रामनवमी और हनुमान जयंती भी मनाई। उसने नेताजी सुभाषचंद्र बोस, श्यामाप्रसाद मुखर्जी, ईश्वरचंद्र विद्यासागर का महिमा गान भी किया, लेकिन फिर भी उसकी छवि ‘बंगालियों की पार्टी की नहीं बन पा रही है। पिछले लोकसभा चुनाव में 18 सीटें जीतने की वजह मोदी का जादू था।
हालांकि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता, केन्द्रीय मंत्री अमित शाह के दौरों तथा भाजपा महामंत्री कैलाश विजयवर्गीय की अनथक मेहनत से भाजपा ने राज्य में अपना वोट बैंक काफी बढ़ाया है। लेकिन विधानसभा चुनाव में भी बंगाली मतदाता का रुख लोकसभा जैसा रहेगा, यह दावे से नहीं कहा जा सकता। दोनों पार्टियों के कार्यकर्ताओं में आए दिन खूनी संघर्ष भी होता रहता है। भाजपा का लक्ष्य अगले विधानसभा चुनाव में बंगाल में भगवा लहराना है। ममता इस हमले को बंगाली अस्मिता की ढाल से थामने की कोशिश कर रही हैं।
ऐसे में इस घनघोर राजनीतिक टकराव का सौम्य रूप दुर्गा पूजा में भी दिखाई पड़ रहा है। भाजपा दुर्गोत्सव के माध्यम से खुद को ‘बंगाली’ होने का अहसास दिलाने की कोशिश कर रही है। लेकिन टीएमसी जैसी क्षेत्रीय पार्टी की तरह ‘एक्स्ट्रीम’ पर जाना उसके लिए संभव नहीं है। दुर्गा पूजा के राजनीतिक सरोकार अपनी जगह हैं, लेकिन सुकून की बात यह है कि पूजा पंडाल अपने सामाजिक सरोकारों के प्रति सजग हैं। बारिशा क्लब की झांकी इसी का प्रमाण है।