हलाल करो या झटका दो, आपकी मर्जी

राकेश अचल

हिन्दुस्तान की अदालत कभी-कभी सचमुच बड़े काम करती है और ये काम होता है बेकाम की याचिकाओं को खारिज करने का। सुप्रीम कोर्ट को हर दिन कितनी याचिकाएं ख़ारिज करना पड़ती हैं, मुझे नहीं पता। देश के क़ानून में तरह-तरह की याचिकाओं का प्रावधान है, इसलिए इनका सदुपयोग कम, दुरुपयोग ज्यादा होता है। सुप्रीम कोर्ट में अखंड भारत मोर्चा नामक संगठन की ओर से अर्जी दाखिल कर प्रिवेंशन ऑफ क्रुअल्टी टू एनिमल एक्ट की धारा-28 को चुनौती देते हुए हलाल कर पशुओं के वध करने के तरीके को भी चुनौती दी गई थी। उक्त कानून में प्रावधान किया गया है कि अपने धर्म के हिसाब से पशुओं का वध कानून में अपराध नहीं है। हलाल, झटका जैसे तरीके को कानून की धारा-28 के तहत प्रोटेक्ट किया गया है। हलाल में नस काटी जाती है और झटका में एक बार में सिर को अलग किया जाता है।

देश की सबसे बड़ी अदालत ने माना की ये याचिका शरारत से ज्यादा कुछ नहीं है। ये हमारा क़ानून ही है कि लोगों को हर तरह की जनहित याचिकाएं लगाने की अनुमति देता है। इसी का दुरुपयोग कर इस तरह की याचिकाएं लगाईं जाती हैं जो अदालतों का समय बर्बाद करती हैं। सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस संजय किशन कौल की अगुवाई वाली बेंच ने याचिकाकर्ता की मंशा पर सवाल उठाते हुए कहा कि कोर्ट देश के लोगों के खानपान के व्‍यवहार/आदतों में दखल नहीं दे सकता। अदालत ये तय नहीं कर सकती कि कौन वेजिटेरियन होगा और कौन नॉन वेजिटेरियन। अगर कोई हलाल मीट खाना चाहता है तो वह हलाल मीट खा सकता है। अगर कोई झटका मीट खाना चाहता है तो वह खा सकता है।

हलाल प्रैक्टिस मुस्लिमों में प्रचलित है जबकि झटका विधि हिंदुओं में प्रचलित है। याचिकाकर्ता का कहना था कि हलाल के जरिये पशुओं को मारने से उन्हें ज्यादा तकलीफ होती है। ऐसे में भारत जैसे सेक्युलर देश में इसकी इजाजत नहीं होनी चाहिए। झटका विधि से पशु को तकलीफ से नहीं गुजरना पड़ता है। सुप्रीम कोर्ट ने याचिका रिजेक्ट करते हुए कहा कि याचिका नुकसान पहुंचाने वाले प्रकृति की है।

पिछले दिनों जब तब्लीगी जमात पर कोरोना फ़ैलाने का मामला आया तो भी सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया गया। लेकिन सुप्रीम कोर्ट दिल्ली सरकार, केंद्र सरकार और अन्य अथॉरिटीज को कोरोना मरीजों की पहचान धर्म के आधार पर न करने का निर्देश देने की मांग करने वाली याचिका खारिज कर चुका है। इस तरह की याचिकाएं सुनना और फिर उन्हें ख़ारिज करना एक मजबूरी है और इसका लाभ लगातार उठाया जा रहा है। कुछ याचिकाएं सचमुच जनहित की होती हैं लेकिन अधिकांश का निहितार्थ सुर्खियां बटोरने से ज्यादा कुछ और नहीं होता।

आपको ये जानकर हैरानी होगी कि देश के सर्वोच्च न्यायालय में संसद और विधानसभाओं के लिए चुने जनप्रतिनिधियों के विरुद्ध लंबित मामलों के जल्द निपटारे संबंधी मुद्दे की सुनवाई चल रही है। इसी दौरान सर्वोच्च न्यायालय ने सभी उच्च न्यायालयों को आदेश दिया कि वह जनप्रतिनिधियों के विरुद्ध चल रहे आपराधिक मामले कितने व कितनी देर से लंबित हैं उसकी सूचना दें। सर्वोच्च न्यायालय को देश के विभिन्न उच्च न्यायालयों से मिली जानकारी के अनुसार देश के नेताओं के विरुद्ध विभिन्न अदालतों में 4442 मुकदमे चल रहे हैं और इनमें से 2556 ऐसे मामले हैं जो वर्तमान सांसदों तथा विधायकों के विरुद्ध हैं।

एक जनहित याचिका के दौरान न्यायालय की खंडपीठ के सामने पंजाब के एक नेता का आजीवन कारावास का 36 वर्ष पुराना मामला सामने आया तो खंडपीठ ने पूछा कि यह मामला 36 वर्षों से क्यों लंबित है? उल्लेखनीय है कि देश के सभी हाईकोर्टों ने वर्तमान और पूर्व सांसदों व विधायकों के खिलाफ लंबित आपराधिक मामलों का ब्‍योरा सुप्रीम कोर्ट को सौंपा है। सर्वोच्च न्यायालय की वेबसाइट के मुताबिक 19,492 मामले कर-विवादों के हैं, जो अंतिम सुनवाई के लिए तैयार हैं, जिनमें से बहुत से दो दशक से भी अधिक पुराने हैं।

सवाल ये है कि देश की छोटी-बड़ी अदालतें बेसिर-पैर की याचिकाओं को सुने या फिर असली और जरूरी मामलों को सुने? राष्ट्रीय न्यायिक डाटा ग्रिड (एनजेडीजी) के आंकड़ों को सही माना जाये तो पूरे भारत में हाईकोर्ट, जिला कोर्ट और तालुका कोर्ट के समक्ष कुल तीन करोड़ 77 लाख मामलों में से करीब 37 लाख मामले पिछले 10 सालों से लंबित पड़े हुए हैं। झटका और हलाल का सवाल खड़ा करने वाली याचिकाएं अदालतों के इस बोझ को और बढ़ाती हैं।

आंकड़े कहते हैं कि लंबित मामलों को लेकर जिला अदालतें उच्च न्यायालयों से बेहतर हैं। देश भर में 25 उच्च न्यायालयों के समक्ष 47 लाख से अधिक मामले लंबित हैं। इनमें से 9 लाख 20 हजार (19.26 प्रतिशत) से अधिक मामले 10 से अधिक वर्षों से लंबित हैं और 1 लाख 58 हजार (3.3 प्रतिशत) मामले 20 से अधिक वर्षों से। वहीं 46,754 मामले तीन दशक या उससे अधिक समय से लंबित हैं। कोरोना काल में ये बोझ और बढ़ गया है। इसे निपटाने के लिए अभी तक कोई कार्य योजना सरकार या अदालतों ने नहीं बनाई है। इससे आने वाले दिनों में देश में न्याय के लिए भटकते लोगों की तकलीफें और बढ़ने वाली हैं। अब जब अदालतें नियमित रूप से अपना काम शुरू करें तब कहीं इस विषय पर काम शुरू हो। अभी तो देश की सरकारें मंदिर खुलें या नहीं जैसे मुद्दों में उलझी हुई हैं।

देश में अदालतों का दरवाजा खटखटाने का हक सबको है लेकिन अदालतों का समय बर्बाद करने का हक किसी को नहीं। बावजूद इसके बड़ी संख्या में ऐसे लोग हैं जो जानबूझकर अदालतों के कीमती समय की हत्या शरारतन करते हैं। इन पर रोक लगना चाहिए। हलाल और झटका जैसे मुद्दों पर याचिकाएं लगाने वाले लोगों के खिलाफ विधिक कार्रवाई ही एकमात्र विकल्प हो सकता है।

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