अभिव्यक्ति की आजादी’ और लक्ष्मण रेखाओ पर खड़े सवाल…

अजय बोकिल

सर्वोच्च अदालत के एक अहम फैसले तथा इसी से जुड़े दूसरे मामले की सुनवाई के दौरान प्रधान न्यायाधिपति की टिप्पणी से देश में ‘अभिव्यक्ति की आजादी’ और उसकी परिसीमा का मुद्दा फिर चर्चा में है। शाहीन बाग प्रकरण में अपने निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि विरोध प्रदर्शन का संवैधानिक अधिकार सब को है, लेकिन इसकी आड़ में सार्वजनिक स्थान पर कब्जा नहीं किया जा सकता। जबकि तब्लीगी जमात से जुड़े मामले में एक याचिका पर सुनवाई में चीफ जस्टिस एस.ए.बोबडे ने गंभीर टिप्पणी की कि आज ‘अभिव्यक्ति की आजादी’ का सबसे ज्यादा दुरुपयोग हो रहा है। इन पर बहुत गंभीरतापूर्वक विचार करने की जरूरत है। बेशक आज जरूरत इस बात पर विचार की भी है कि कोर्ट को ऐसी टिप्पणी करने की नौबत क्यों आई? और ऐसा होने देने के लिए कौन जिम्मेदार है, तंत्र की मनमानी या व्यक्ति की स्वच्छंदता?

यूं तो ये दोनों मुकदमे अलग-अलग हैं, लेकिन इनमें समान बिंदु ‘अभिव्यक्ति की आजादी’ यानी बोलने या अपनी बात कहने की सार्वजनिक स्वतंत्रता का है। चूंकि ये अब मानवाधिकार में ही शामिल हैं अत: इनके औचित्य पर तो कोई सवाल है ही नहीं (यहां चीन जैसे एकाधिकारवादी कम्युनिस्ट अथवा कुछ तानाशाही वाले देशों को छोड़ दें) तो यह अधिकार मनुष्य की गरिमा और उसकी चेतनता से जुड़ा है। भारतीय संविधान में भी अभि‍व्यक्ति की आजादी एक मौलिक अधिकार है। संविधान इसकी रक्षा की गारंटी देता है।

एक लोकतांत्रिक तथा बहुभाषी, बहुजातीय और बहुधर्मी देश होने के बावजूद बुनियादी रूप से यह हमारे एक होने और रहने की जमानत भी है। इसे खत्म करने का अधिकार किसी को नहीं है। न ही ऐसी किसी कोशिश का समर्थन किया जा सकता है। लेकिन शाहीन बाग प्रकरण ने लोकतांत्रिक ढंग से  विरोध प्रदर्शन के औचित्य के साथ इस प्रश्न को भी रेखांकित किया है कि क्या ऐसा विरोध प्रदर्शन उन तमाम लोगों को मुश्किल में डाल कर किया जाना चाहिए, जो आपके समर्थन में नहीं हैं या फिर तटस्थ हैं? क्या ध्यानाकर्षण का यह तरीका पूरी तरह निर्दोष है?

ध्यान रहे कि देश में सीएए तथा एनआरसी कानून लागू करने के खिलाफ दिल्ली के शाहीन बाग इलाके में महिलाओं (जिनमें ज्यादातर मुस्लिम थीं) ने अंखड धरना शुरू किया था। शुरू में माना गया था कि यह स्वत:स्फूर्त है और इन दो कानूनों को लेकर अधिकांश मुसलमानों के मन में उठ रही आशंकाओं  सार्वजनिक अभिव्यक्ति है। इसकी शुरुआत 15 दिसंबर 2019 को हुई। आंदोलनकारियों की मांग थी कि उनके विरोध को स्वीकार करते हुए सरकार यह कानून वापस ले। चूंकि सरकार इस कानून को एक दूरगामी रणनीति और एजेंडे के तहत लाई थी, इसलिए उस पर पुनर्विचार की मांग स्वीकार करने की संभावना नहीं के बराबर थी।

एक तर्क यह भी दिया गया था कि इस आंदोलन का असल मकसद दिल्ली विधानसभा चुनावों को प्रभावित करना और आम आदमी पार्टी को चुनाव जीतने से रोकना है। लेकिन चुनाव नतीजों ने साबित कर दिया कि इस शाहीन बाग विरोध प्रदर्शन का इस्तेमाल सभी राजनीतिक दलों ने अपने हिसाब से कर लिया। नतीजों के बाद भी आंदोलनकारी पहले की तरह ही सड़क पर बैठे रहे। यूं दिल्ली में विरोध प्रदर्शन की जगहें तय हैं, लेकिन संभवत: पहली बार किसी सार्वजनिक रास्ते को इतने लंबे आंदोलन के लिए इस्तेमाल किया गया। इस उम्मीद में कि आम रास्ता बंद करने से सरकार से बातचीत का रास्ता खुलेगा।

लेकिन वैसा कुछ नहीं हुआ। उल्टे केन्द्र सरकार की जांच एजेंसियों ने बाद में ‘खुलासा’ किया कि शाहीनबाग आंदोलन पूरी तरह प्रायोजित था। इसका एक राजनीतिक मकसद था और इसके लिए बाकायदा फंडिंग की गई थी। जिसमें मोदी सरकार के खिलाफ घरेलू मुस्लिम महिलाओं का कुशलता से ‘इस्तेमाल’ कर लिया गया। हालां‍कि आंदोलन के कर्ता-धर्ता इसे पूरी तरह झूठ बताते हैं। लेकिन तमाम कोशिशों के बाद भी वो पूरे देश को यह बात नहीं समझा पाए कि जब सीएए पड़ोसी देशों के मुसलमानों को भारतीय नागरिकता न देने को लेकर है तो भारतीय मुसलमान उसका विरोध क्यों कर रहे हैं? आंदोलन के समर्थकों का तर्क था कि यह कानून संविधान में समानता के अधिकार का उल्लंघन करता है।

दूसरा मुद्दा एनआरसी का था। जिसके बारे में कहा गया कि देश के हर मुसलमान को यहां रहना है तो अपनी पहचान बतानी होगी। इस में आंशिक सचाई थी, लेकिन यह आशंका अपने सात्विक रूप में लोगों तक पहुंचती, उसके पहले ही यह आंदोलन ‘हिंदू-मुसलमान’ में बंटकर बिखरने लगा। उधर देश की राजधानी का एक प्रमुख मार्ग बंद होने से आम लोगों को काफी परेशानी होने लगी। मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा तो उसने रास्ता खुलवाने के लिए अपनी तरफ से वार्ताकार नियुक्त किए। लेकिन वो भी मामला सुलझाने में नाकाम रहे।

काफी मशक्कत के बाद आंशिक रूप से रास्ता खुला। पर इसने आंदोलन के प्रति शुरू में उपजी सहानुभूति और समर्थन को फीका कर दिया। इसके बाद कोरोना के हल्ले के बीच सरकार ने रातों-रात आंदोलनकारियों को भी बोरिया बिस्तर समेत घर भिजवा दिया। जिस ऐतिहासिक ढंग से यह विरोध आंदोलन खड़ा किया गया था, उसी नाटकीय ढंग से उसे बिखेर भी दिया गया। इस पूरे आंदोलन का एक बिंदु जायज था कि केन्द्र सरकार को आंदोलनकारियों से एक बार बात जरूर करनी चाहिए थी।

सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में यह बात स्पष्ट रूप से कही है कि हर किसी सार्वजनिक स्थल पर विरोध प्रदर्शन को सही ठहराना अभिव्यक्ति की आजादी की गलत व्याख्या है। अगर कहीं ऐसा हो तो प्रशासन को तुरंत कार्रवाई करनी चाहिए न कि ऐसा करने के लिए कोर्ट के कंधे पर बंदूक रखने की कोशिश करनी चाहिए। यह सही भी है।

इसी तरह कोरोना प्रकोप की शुरुआत में दिल्ली में आयोजित तब्लीगी इज्तिमा में शामिल विदेशी जमातों को देश में कोरोना फैलाने का दोषी ठहराते हुए मीडिया में जिस ढंग से दुष्प्रचार किया गया, उसके खिलाफ जमायते-इस्लामी-ए-हिंद ने सर्वोच्च अदालत का दरवाजा खटखटाया था। जमात का कहना है कि मीडिया में प्रायोजित मुहिम चलाकर यह सिद्ध करने की कोशिश की गई कि सिर्फ मुसलमान ही भारत में कोरोना फैलाने के लिए जिम्मेदार हैं।

सुनवाई में मीडिया के एक वर्ग और  सोशल मीडिया की गैर जिम्मेदार भूमिका चिंता जताते हुए चीफ जस्टिस एस.ए.बोबडे ने कहा कि आज अभिव्यक्ति की आजादी का सर्वाधिक दुरुपयोग हो रहा है। उन्होंने इस बारे में केन्द्र सरकार के हलफनामे को बकवास बताया। केन्द्र सरकार ने हलफनामे में कहा था कि उसके पास ‘खराब रिपोर्टिंग’ का कोई उदाहरण नहीं है।

इन दोनो मामलों में मुख्‍य समानता यह है कि ‘अभिव्यक्ति की आजादी’ की आड़ में अपने राजनीतिक एजेंडे चलाने की पुरजोर कोशिश की गई। दोनों में एक समुदाय विशेष को टारगेट बनाने की कोशिश की गई। मामला इतना गड्डमड्ड करने की कोशिश हुई कि कौन ‘टारगेट’ और कौन ‘मोहरा’ यह फर्क करना भी मुश्किल हो गया। जहां शाहीन बाग मामले में भारत और मोदी सरकार की छवि मुस्लिम विरोधी चित्रित करने की थी तो तब्लीगी जमात मामले में कोरोना का सारा दोष जमातों पर मढ़ने का लगभग स्पष्ट एजेंडा था।

अभिव्यक्ति की आजादी’ के इस संवेदनशील मुद्दे की लक्ष्मण रेखा पर भी कुछ सवाल खड़े हैं। यह बात सही है कि हर पब्लिक प्लेस पर विरोध प्रदर्शन की इजाजत नहीं दी जानी चाहिए। आखिर आम जनता के कष्ट बढ़ाकर आप उसका नैतिक समर्थन कैसे हासिल कर सकते हैं? हालांकि ‘पब्लिक प्लेस’ पर विरोध अथवा समर्थन को लेकर राजनीतिक दलों और सरकारों की‍ व्याख्या अपनी सुविधानुसार और सिलेक्टिव होती है।

मसलन यदि सत्तारूढ़ दल को राजनीतिक जमावड़े से लेकर  कवि सम्मेलन तक कराना हो तो वह सार्वजनिक स्थल का ‘सदुपयोग’ होगा। भले ही आम लोगों को कितनी ही परेशानी उठानी पड़े। लेकिन अगर यही काम सत्ता के विरोध के ‍लिए किया जाएगा तो वह ‘दुरुपयोग’ होगा। इस दुराग्रह को भी खत्म करना जरूरी है। जहां तक कोरोना के लिए जमातियों को टारगेट करने की बात है तो वो एजेंडा लंबा इसलिए नहीं टिक पाया क्योंकि कोरोना जमातियों को मीलों पीछे छोड़ अब समाज के हर वर्ग और देश के हर कोने में फैल चुका है। वह छोटे बड़े या विचारधाराओं में भी भेदभाव नहीं कर रहा।

कोई भी महामारी किसी धर्म के पंखों पर नहीं चलती और न ही चेहरों को चीन्ह कर उसे अपनी चपेट में लेती है। लेकिन मीडिया का एक वर्ग इस सचाई को भी किसी दबाव या पूर्वाग्रह के चलते अपने चश्मे से दिखाने की कोशिश करता है। ‘अभिव्यक्ति की आजादी’ का अर्थ अगर हर बात का विरोध करना नहीं है तो हर मामले में सरकार के अनुकूल पुंगी बजाना भी नहीं है।

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