राकेश अचल
देश में आपातकाल के बाद राजनीति में जन्मा गठबंधन धर्म पूरे 49 साल बाद फिर खतरे में पड़ता दिखाई दे रहा है। बिहार विधानसभा के चुनाव इस गठबंधन धर्म की गठरी बांधते दिखाई दे रहे हैं। ये गठबंधन कांग्रेस और भाजपा की अगुवाई में देश की सत्ता के इर्द-गिर्द होते आये हैं लेकिन अब लगता है कि दोनो बड़े दल इस गठबंधन से आजादी चाहते हैं।
आपको गठबंधन का भविष्य जानने से पहले गठबंधन का अतीत देखना पडेगा। आमतौर पर देश को आपातकाल के बाद बना पहला गैर कांग्रेसी गठबंधन याद है, लेकिन हकीकत ये है कि ये गठबंधन आपातकाल से बहुत पहले तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी के खिलाफ 1971 में बन चुका था। 1971 के चुनाव में इन्दिरा गांधी का मुकाबला करने के लिए जनसंघ, कांग्रेस(ओ), स्वतंत्र पार्टी और एसएसपी ने राष्ट्रीय डेमोक्रेटिक फ्रंट (एनडीएफ) का गठन किया। इसे स्वतंत्र भारत के राजनीतिक इतिहास का पहला पूर्ण गठबंधन कहा जा सकता है।
लेकिन इंन्दिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस (आर), जो कांग्रेस (आई) बन गया था, ने विपक्ष को बुरी तरह से पछाड़ते हुए 352 सीटें प्राप्त कीं और एनडीएफ को विपक्ष में बैठना पड़ा। इस नाकाम गठबधन से पहले राज्यों में गठबंधन की राजनीति जन्म ले चुकी थी। 1067 में देश में पहली गठबंधन सरकार मध्यप्रदेश में बनी थी, हालाँकि वो भी ज्यादा दिन टिक नहीं सकी।
देश में भारत पाक युद्ध के बाद जब ‘इमरजेंसी’ लागू हुई तब लोगों के बीच ‘दुर्गा’ की छवि रखने वाली इंदिरा, अचानक एक दमनकारी नेता के रूप में बदल गयीं और इसके साथ ही उनके इस कदम ने ‘कांग्रेस पार्टी’ के एकछत्र राज को चुनौती दे दी थी। उनके इस फैसले के खिलाफ उस समय पूरा विपक्ष एकजुट हो गया था। यही पहली बार था जब सभी ने गठबंधन बनाकर 1977 का चुनाव लड़ने का फैसला किया।
इस चुनाव में कई विपक्षी पार्टियां मिलकर लोगों के पास गईं जिसमें कांग्रेस (ओ), जनसंघ और लोकदल तथा कांग्रेस (आर) से अलग हुए नेता, जनता पार्टी में आकर शामिल हो गए। जब इस चुनाव के नतीजे आए तब कांग्रेस की बहुत करारी हार हुई। सबसे बड़ी बात इंदिरा गाँधी ने भी अपनी लोकसभा सीट गँवा दी। इसमें राजनारायण ने इंदिरा गांधी को रायबरेली सीट पर हरा दिया। इस चुनाव में कांग्रेस की सीट 350 से घटकर 153 पर सिमट गयी।
कांग्रेस की ऐतिहासिक हार के बाद जनता पार्टी ने सरकार बनाई और इसके साथ ही मोरारजी देसाई देश के पहले ऐसे प्रधानमंत्री बने जो गठबंधन से बनी सरकार के मुखिया थे। हालांकि, उनकी ये सरकार ज्यादा समय तक टिक नहीं पायी। 1979 में वह सरकार गिर गयी और मोरारजी देसाई को प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा। सरकार गिरने का कारण था भाजपा की दोहरी सदस्यता। जनसंघ के अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी का जनता पार्टी से अलग हो जाना।
कांग्रेस के खिलाफ गठबंधन सरकार का प्रयोग नाकाम होने के बाद कांग्रेस ने इसे छद्म तरीके से और कमजोर किया। कांग्रेस और सीपीआई के समर्थन से जनता (एस) के नेता चरण सिंह 28 जुलाई, 1979 को प्रधानमंत्री बन गए। इन्हें ही पिछली सरकार गिराने के लिए मुख्य कारक माना जा रहा था। उनके प्रधानमंत्री बनने के बाद तत्कालीन राष्ट्रपति नीलम संजीव रेड्डी ने चरण सिंह को 20 अगस्त तक लोकसभा में बहुमत साबित करने का निर्देश दिया।
लेकिन, मामला तब उलटा पड़ गया जब इंदिरा गांधी ने 19 अगस्त को चरण सिंह सरकार को संसद में बहुमत साबित करने में साथ न देने का ऐलान कर दिया। और इसी के साथ चरण सिंह को लोकसभा में बहुमत साबित करने से पहले ही प्रधानमन्त्री पद से इस्तीफा देना पड़ा। इस तरह यह दूसरी बार हुआ जब गठबंधन कि सरकार औंधे मुंह गिर गयी। 1979 में लोकसभा भंग होने के बाद मध्यावधि चुनाव हुए और इंदिरा गांधी 14 जनवरी, 1980 को एक बार फिर प्रधानमंत्री बनने में सफल हो गयीं।
देश की राजनीति में दिलचस्पी रखने वालों को याद होगा कि 90 के दशक में एक के बाद एक अल्पमत या गठबंधन सरकारें आईं। दरअसल, 1989 से 1999 के बीच आठ अलग-अलग सरकारें बनीं। जिसमें कई छोटी पार्टियों का प्रभाव बहुत बढ़ गया क्योंकि उनके पास जो थोड़ी बहुत सीटें थीं, वो गठबंधन सरकार बनाने के लिए बेहद अहम थीं।
शुरुआत से बात करें तो 1989 के चुनाव से पहले जन मोर्चा, जनता पार्टी, लोकदल और कांग्रेस (एस) एक साथ मिलकर जनता दल बना। जिसके बाद वीपी सिंह ने कुछ अन्य वाम और दक्षिणपंथी पार्टियों के साथ मिल कर नेशनल फ्रंट का निर्माण किया। इसी का नेतृत्व करते हुए उन्होंने 1989 का लोकसभा चुनाव लड़ा। इस चुनाव में जनता ने किसी एक पार्टी को बहुमत नहीं दिया था।
दरअसल, इसमें कांग्रेस को 197 सीटें मिलीं और जनता दल को 143 इसी के साथ पहली बार भाजपा को 85 सीटें मिली। हालांकि, कांग्रेस अभी भी सबसे बड़ी पार्टी थी लेकिन इसके बावजूद राजीव गांधी ने सरकार बनाने से मना कर दिया। उनके मना करने के बाद वीपी सिंह के नेतृत्व में नेशनल फ्रंट की सरकार बनी। जिसे वाम दल और भाजपा ने अपना समर्थन दिया।
गठबंधन के जरिये बनी इस सरकार का हाल भी वही हुआ जो पिछली दो गठबंधन सरकारों का हुआ था। दरअसल, साल 1990 में वीपी सिंह द्वारा लागू की गयी मंडल कमीशन की सिफारिशों को वजह बताते हुए भाजपा ने समर्थन वापस ले लिया। इसी के साथ यह सरकार भी गिर गयी। इसके बाद सरकार टूटती और फिर बनती। इसी कड़ी में 1996 के चुनाव में न कांग्रेस और न ही भाजपा को पूर्ण बहुमत मिला। इस दौरान जोड़-तोड़ से बनी अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार महज़ 13 दिन चलकर गिर गयी।
कुछ दिनों बाद, 13 पार्टियों ने मिल कर यूनाइटेड फ्रंट बनाया और इस फ्रंट ने 1996 से 1998 तक दो सरकारें बनाईं। इन सरकारों में एचडी देवेगौड़ा से लेकर आईके गुजराल तक प्रधानमंत्री बने और इनकी सरकार भी अपने कार्यकाल के पूरे होने से पहले ही गिर गयी। मजे की बात ये कि हर बार सरकार गिरने की वजह कांग्रेस का समर्थन वापस ले लेना रहा।
देश की सत्ता तक पहुँचने के लिए गठबंधन का सहारा लेने वाले राजनितिक दल तमाम असफलताओं के बावजूद गठबंधन से भागे नहीं, करते रहे। साल 1998 के चुनाव से पहले एनडीए (नेशनल डेमोक्रेटिक अलायंस) बनाया गया, जिसमें 13 पार्टियों ने मिलकर एक नया गठबंधन बनाया। लिहाज़ा, 1998 के लोकसभा चुनाव में अटल बिहारी वाजपेयी एक बार फिर देश के प्रधानमंत्री बनने में सफल हो गए। अटल बिहारी का अपना कार्यकाल पूरा करने का सपना एक बार और टूट गया। इस बार उनकी सरकार सिर्फ 13 महीने तक ही चल पायी। इस बार एआईएडीएमके ने सरकार से समर्थन वापस ले लिया।
देश में गठबंधन की पहली कामयाब सरकार वर्ष 1999 में बनी जब एनडीए को लोकसभा चुनाव में पूर्ण बहुमत मिला और अटलजी ने इस बार पांच साल का कार्यकाल पूरा किया। इसके बाद कांग्रेस के नेतृत्व में गठित यूपीए ने दस साल तक सरकार चलाई जिसके प्रधानमंत्री डॉक्टर मनमोहन सिंह थे। भारत में इस समय एनडीए की सरकार है जिसका नेतृत्व प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कर रहे हैं, लेकिन किसान क़ानून के मुद्दे पर ये गठबंधन भी दरकने लगा है।
अकाली दल ने इस गठबंधन से अपने आपको अलग कर लिया है। अकाली दल के अलग होने से एनडीए की सरकार को कोई खतरा नहीं है किन्तु ये इस बात का संकेत अवश्य है कि गठबंधन से एक बार फिर राजनितिक दलों का मोह भंग होने लगा है। बिहार विधानसभा चुनावों में एनडीए के साथी लोजपा के चिराग पासवान बहकते नजर आ रहे हैं। उपेंद्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोक समता पार्टी (रालोसपा) भी असमजंस की स्थिति में है।
बिहार विधानसभा चुनाव के लिए महागठबंधन में कांग्रेस का पेंच फंस गया है। इस बीच कांग्रेस स्क्रीनिंग कमेटी की बैठक के बाद अध्यक्ष अविनाश पांडेय 243 सीटों के लिए प्रत्याशियों के नाम लेकर दिल्ली लौट गए हैं। बताया जा रहा है कि महागठबंधन के सबसे बड़े घटक राष्ट्रीय जनता दल ने कांग्रेस को 58 विधानसभा सीटों तथा एक लोकसभा सीट पर चुनाव लड़ने का प्रस्ताव दिया है, जिसपर वह राजी नहीं है। डैमेज कंट्रोल के प्रयास जारी हैं। अगर बात नहीं बनी तो कांग्रेस ने महागठबंधन से अलग होकर सभी सीटों पर चुनाव लड़ने की घोषणा पहले से कर दी है। हालांकि, इस पर अंतिम फैसला पार्टी आलाकमान सोनिया गांधी को करना है।
आपको याद होगा कि उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के समय भी ऐसे गठबंधन बनते और बिगड़ते रहे हैं। गठबंधन कमजोर पड़ने से राजनीति में मोलतोल का धंधा नए सिरे से परवान चढ़ रहा है। गठबंधन की राजनीति देश हित में है या नहीं ये कहना अभी कठिन है लेकिन इससे अस्थिरता और कड़वाहट तो बढ़ ही रही है। गठबंधन की विश्वसनीयता बनाये रखने में यदि बड़े राजनीतिक दल कामयाब न हुए तो बिहार विधानसभा चुनाव के बाद देश की राजनीति में कुछ न कुछ बदलाव जरूर दिखाई देगा।