राकेश अचल
जिंदगी भर खाकी वर्दी पहनने वाले भारतीय प्रशासनिक और पुलिस सेवा के बहुत से अफसर सेवानिवृत्त होते ही खादी पहनकर समाज सेवा करने के लिए आतुर होते हैं। इस मामले में नया नाम बिहार के पुलिस महानिदेशक गुप्तेश्वर पांडेय का है। बिहार के इस मुंहफट लोकसेवक ने स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति की अर्जी देकर राजनीति में उतरने के संकेत दिए हैं। बिहार में कुछ लोग पांडेय जी को ‘रॉबिनहुड’ बनते देखना चाहते हैं।
देश की राजनीति है ही इतनी चाशनीदार की हर कोई इसमें डुबकी लगाने को आतुर होता है। एक जमाने में मैं भी श्रीकांत वर्मा बना चाहता था, लेकिन नहीं बन पाया। ठीक इसी तरह जैसे कि पांडेय जी ‘रॉबिनहुड’ बनना चाहते हैं, लेकिन वे बन सकते हैं। तीन-चार दशक तक भारतीय नौकरशाही से लोकशाही की तरफ मुड़ने वाले अधिकारियों की फेहरिस्त बहुत लम्बी है। अखिल भारतीय सेवाओं से निकले लोग देश के राष्ट्रपति पद तक पहुंचे हैं, इसलिए इसमें हैरानी की कोई बात नहीं है। केवल पुलिस और प्रशासन की सेवाओं से निवृत्त लोग ही राजनीति में आते हों ये बात भी तो नहीं है। न्यायिक सेवाओं से निवृत्त लोग भी राजनीति में आते हैं। देश के पूर्व प्रमुख न्यायाधिपति रंजन गोगोई तो ताजा मिसाल हैं ही।
राजनीति में हर बिरादरी के लोग हैं। पूर्व सेनाध्यक्ष हैं, किसान हैं, मजदूर हैं, सिपाही हैं, पटवारी हैं। पत्रकार तो हैं ही, इसलिए गुप्तेश्वर पांडेय का राजनीति की ओर उन्मुख होना मुझे हैरान नहीं करता, हैरान करने वाली कोई बात है भी नहीं। लेकिन सब पांडेय जी की तरह राजनीति में कामयाब भी हो सकेंगे या नहीं ये सवाल हर समय बना रहता है। बना रहेगा, क्योंकि शासकीय सेवा में रहने वाले अधिकारी सियासत में घुटनों के बल चल भी पाते हैं और नहीं भी चल पाते।
हमारे एक मित्र थे स्वर्गीय अयोध्यानाथ पाठक। बिहार के ही थे। 1964 बैच के आईपीएस थे। शुरू से राजनीति में उनकी दिलचस्पी थी। वे जब मध्यप्रदेश में डीआईजी थे तब खुलकर मैदान में आ गए थे। प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री स्वर्गीय अर्जुन सिंह को उनकी अदाएं बेहद पसंद थीं। पाठक जी ने राजनीति में प्रवेश पाने के लिए तत्कालीन लोकसभा अध्यक्ष रहीं श्रीमती मीरा कुमार का दामन पकड़ा था। उनका स्वभाव भी गुप्तेश्वर पांडेय जी जैसा ही था। परम वाचाल थे। सम्पन्न थे और पुलिस महानिदेशक बनने तक उन्होंने बिहार से अपनी जड़ें कटने नहीं दी थी, लेकिन सेवानिवृत्त होने के बाद वे न वापस बिहार जा पाए और न मध्यप्रदेश की राजनीति में कदम रख पाए। वे अपना सपना अपने साथ लेकर गए।
हमारे प्रदेश में अभी एक और आईपीएस अफसर हैं राजाबाबू सिंह। अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक हैं। सीमावर्ती यूपी में बांदा के रहने वाले हैं। जमीन से जुड़े हैं। रामभक्त हैं और नौकरी में आने से पहले राममंदिर-बाबरी मस्जिद आंदोलन में भी सक्रिय रहे हैं। वे भी खाकी त्यागकर खादी का वरण करने के लिए तैयार बैठे हैं। उनका आचरण है भी जनसेवकों जैसा। लेकिन क्या उनका सपना साकार होगा ये रामजी ही जानते हैं। राजाबाबू 1994 बैच के आईपीएस अफसर हैं।
ऐसे अफसर राजनीति में आएँ तो राजनीति की सूरत बदल सकती है, लेकिन ‘मन हौंसिया और करम (भाग्य) गढ़िया’ हो तो कुछ नहीं होता। भापुसे से सेवानिवृत्त हुए हमारे एक और मित्र डॉ. हरिसिंह राजनीति में प्रवेश के लिए ऐड़ी-चोटी का जोर लगाकर भी कामयाब नहीं हो पाए। उन्हें कोयला निगम की संचालकी से ही संतोष करना पड़ा। एक पूर्व आईएएस संसद तक पहुंचे, उनका नाम भागीरथ प्रसाद था, लेकिन सबकी किस्मत में राजनीति बदी नहीं होती।
बहरहाल जिन गुप्तेश्वर पांडेय जी की आज धूम है मुझे उनसे मिलने का सौभाग्य प्राप्त है। सौभाग्य इसलिए की ऐसे लोगों से मिलना सबकी किस्मत में नहीं होता। मैं कोई दो साल पहले उनसे बिहार में मिला था। वे हमारे दामाद के घर पटना में आये थे। उनसे मिलकर आपको लगेगा ही नहीं की वे किसी राज्य के पुलिस प्रमुख हैं। मुझे वे बेहद सरल लेकिन चपल लगे। उनकी चपलता ही उनकी विशेषता है। वे एक बार पहले भी नौकरी छोड़कर राजनीति में आते-आते रह गए थे, लेकिन अब मुझे लगता है की वे राजनीति में आ ही जायेंगे। उन्हें राजनीति में आ भी जाना चाहिए, क्योंकि राजनीति में आजकल जैसे लोग आ रहे हैं, वे निराश ही करते हैं।
बिहार की राजनीति का जो स्वरूप है उसमें गुप्तेश्वर पांडेय जी के लिए बहुत गुंजाइश है। वे शिखाधारी बाम्हन हैं और इसकी घोषणा करते हुए उन्हें परहेज भी नहीं है, इसलिए उनकी स्वीकार्यता असंदिग्ध है। वे जिस दल के साथ खड़े होंगे, उस दल के लिए उपयोगी होंगे। अब सवाल ये है कि पांडेय जी की पसंद क्या है? पांडेय जी को पढ़ना उतना आसान नहीं है जितना लोग समझते हैं। बहुचर्चित सुशांत सिंह राजपूत केस में उन्होंने रिया चक्रवर्ती के खिलाफ जिस तरह तर्कपूर्ण ढंग से टिप्पणियां की थीं वे अब उनके काम आ सकती हैं। वे बाम्हन होते हुए भी एक ठाकुर के लिए मोर्चे पर थे। बिहार की राजनीति में इसकी इजाजत नहीं है लेकिन उन्होंने जोखिम लिया और इसके पीछे उनकी दूरदृष्टि थी।
बिहार में विधानसभा के चुनाव होना हैं ऐसे में यदि कोई राजनीतिक दल उन्हें अपना प्रत्याशी बनाता है तो शायद ही उसे निराश होना पड़े। वे सुशासन बाबू के लिए भी उतने ही उपयोगी हैं जितने कि सुशील मोदी के लिए। बिहार की ‘लालू ब्रांड’ राजनीति में कोई पांडेय जी को परास्त नहीं कर पायेगा, हाँ यदि अब पांडेय जी पीछे हटे तो उनके लिए मुश्किल हो जाएगी। लोग अब उन्हें छोड़ेंगे नहीं। उन्हें बिहार में राजनीति का नया ‘राबिनहुड’ बनना ही पडेगा भले वे रॉबिनहुड की तरह काम न कर पाएं। आजकल राजनीति में जिस अभिनय की जरूरत है उसमें पांडेय जी का कोई सानी नहीं है।
राजनीति के पर्दे उठाकर देखें तो आप पाएंगे की देश के हर प्रमुख राजनीतिक दल ने नौकरशाहों को अपनाया है। भाजपा और कांग्रेस में तो सेवानिवृत्त नौकरशाह और सेनानायक भरे पड़े हैं, छोटे दलों में भी ऐसे लोगों की कमी नहीं है। मुझे लगता है की देश की जनता भी पूर्व नौकरशाहों को आसानी से आत्मसात कर लेती है। जब जनरल वीके सिंह राजनीति में खप सकते हैं तो गुप्तेश्वर पांडेय क्यों नहीं? पांडेय जी तो जिंदगी भर जनता के बीच ही रहे हैं, वीके सिंह तो नौकरी से मुक्त होने के बाद जनता के बीच आये थे।
बहरहाल तमाशा जारी है। देश का मीडिया परेशान है कि किसे सुर्ख़ियों में रखे और किसे छोड़े, क्योंकि मीडिया के सामने एक तरफ पांडेय जी हैं तो दूसरी तरफ दीपिका पादुकोण। दर्शक तो सबके मजे लेता ही है। हम और आप भी इससे अछूते नहीं हैं। कोई अछूता नहीं है। टीवी का पर्दा किसी को अछूत रहने ही नहीं देता। राजनीति भी टीवी की सहोदर है। इसलिए प्रतीक्षा कीजिये राजनीति के नए संस्करण की।