अजय बोकिल
बावजूद इस शाश्वत सत्य के कि झूठ बोलना महापाप है, वास्तविक जीवन में इंसान इसी लक्ष्मण रेखा का सर्वाधिक उल्लंघन करता है। दुनिया को सच बोलने की सीख देते-देते वह स्वयं कितनी बार झूठ बोल जाता है, उसे भी पता नहीं होता। ये झूठ बोलना कभी सच को छुपाने, कभी अर्द्धसत्य बताने तो कभी झूठ को ही सच के रैपर में पेश करने की नीयत से होता है। राजनीति में यह तीसरा प्रकार सबसे ज्यादा हावी होता है और इसका इस्तेमाल भी खूब किया जाता है।
झूठ कब, कितना और कैसे बोला जाए, यह व्यावहारिक राजनीति की पाठशाला का एक बेहद जरूरी चेप्टर है, जिसे ठीक से याद करने में लोगों को बरसों भी लग जाते हैं। दुनिया में कई बड़े नेता और राष्ट्राध्यक्ष बड़ी बेशरमी से झूठ बोलते हैं, बोले जाते हैं। इसे उनकी दबंगई और जलवा माना जाता है। दरअसल नैतिकता की दृष्टि से जिसे दुर्गुण माना जाता है, राजनीति में वही ‘सद्भगुणों’ में शुमार होता है।
इस मुद्दे पर चर्चा से पहले इस सवाल पर बात जरूरी है कि लोग आखिर झूठ बोलते क्यों हैं? क्यों तमाम सांसारिक गतिविधियों को जारी रखने अथवा उसे बढ़ाने के लिए कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में, कभी न कभी झूठ बोलना क्यों जरूरी है? इस पर समाज विज्ञानियों और मनोवैज्ञानिकों ने काफी विचार और शोध किया है। इसके जो कारण बताए जाते हैं, उनमे पहला तो यह कि झूठ बोलने के पीछे वजह सच को छुपाने की होती है। लेकिन इस प्रक्रिया में झूठ का लगातार द्विगुणन ही होता जाता है। क्योंकि एक झूठ को छिपाने के लिए दूसरा और दूसरा छिपाने के लिए तीसरा झूठ बोलना पड़ता है। यह सिलसिला सच पर से पर्दा उठने की हद तक जारी रह सकता है।
दूसरा, कुछ लोग झूठ बोलने के आदी होते हैं। वो बचपन से ही झूठ बोलने लगते हैं। शायद इसलिए कि उन्हें लगता है कि सच बोलने से वह हासिल नहीं हो सकता है, जो झूठ से आसानी से प्राप्त हो सकता है। ऐसे लोगों की खूबी यह होती है कि वो यह मानने को भी तैयार नहीं होते कि वो झूठ बोल रहे हैं। अर्थात झूठ बोलना उनके दैनंदिन जीवन का हिस्सा बन जाता है।
कई बार झूठ खुद को दूसरे से बेहतर साबित करने के लिए भी बोला जाता है। यह तरकीब तात्कालिक रूप से काम भी आती है, क्योंकि झूठ अपने साथ हमेशा एक आवरण लेकर चलता है। आप इसको कितना तान सकते हैं, यह आप पर है। इसके विपरीत सच निर्वस्त्र होता है। फिर भी उससे आंखें चार करने में हमें डर लगता है। लेकिन अगर वह सामने आ जाए तो मन सितंबर में बारिश के बाद धुले आसमान की तरह साफ हो जाता है।
बहुत कम लोग ऐसे होते हैं, जिनकी टेक सच बोलना ही होती है। ऐसे लोग हर खतरा उठाकर भी सच बोलते हैं। यह जानते हुए भी कि निहित स्वार्थ उन्हें भी झूठा साबित कर देगा। दरअसल व्यवस्था और राजनीति का सच परिस्थिति और हित सापेक्ष होता है। यानी जो अभी सही है, वह बदली परिस्थिति में पूरी तरह गलत भी हो सकता है या फिर उसे ऐसा सिद्ध किया जा सकता है। यानी आज का ‘गलत’ कल का ‘सही’ हो सकता है। सियासत में दलबदल इसका बढि़या उदाहरण है।
दूसरे पक्ष में रहते हुए जिसे ‘गीली लकड़ी’ बताया जाता है, उसे अपने पक्ष में आते ही तगड़ी आंच देने वाले डूंड के रूप में पारिभाषित किया जाता है। सियासत में झूठ और सच धूप-छांव के खेल की तरह होता है। चुनाव के मुहाने पर दलबदल करने वाले नेता को उसकी मूल पार्टी निकम्मा बताने में देर नहीं करती तो जिस पार्टी में वह दाखिल होता है, वह उसे सर्वगुण सम्पन्न बताने में जरा भी गुरेज नहीं करती।
एक स्थापना यह है कि चूंकि सच कड़वा होता है, इसीलिये दवा के रूप में भी उसका उपयोग सरल नहीं होता। यहां झूठ सेनेटाइजर अपने साथ लेकर चलता है। यानी एक झूठ बोलने के बाद दिमाग और दिल को सेनेटाइज किया और अगला झूठ बोलने के लिए फिर तैयार। जो लोग सच कह नहीं पाते या जो सच सह नहीं पाते, उनके लिए झूठ अपने साथ सोशल मीडिया जैसे कई टोटके साथ रखकर चलता है। क्योंकि वहां झूठ को सच और सच को झूठ बनाने का एडवांस कोर्स चलता है।
कहा जाता है कि झूठ के सीने में हमेशा यह डर छुपा रहता है कि कहीं वह बेनकाब न हो जाए। लिहाजा ज्यादातर मामलों में वह मास्क लगाए ही रखता है। कई दफा सच को बचाने के लिए भी लोग झूठ बोलते हैं मानकर कि सही वक्त आने पर एफडी तुड़वाने की माफिक सच दुनिया को बता देंगे। बाज दफा झूठ का विस्तार इतना हो चुकता है कि सच को सच की तरह पेश करने की कोशिश भी झूठ की रजाई में दब जाती है।
एक दलील यह है कि मनुष्य को झूठ बोलकर किसी का दिल नहीं दुखाना चाहिए। सही है। लेकिन बात अगर सत्ता स्वार्थ और षड्यंत्रों की हो तो झूठ खुद को सफेदी में लपेट कर ही पेश हुआ करता है। झूठ की एक खूबी यह है कि वह इंसान को फुलाए रखता है। चौतरफा नंदन वन का माहौल बनाए रखता है। वह किसी ऐसे सच को ऊपर नहीं आने देता, जो झूठ का नकाब खींच सकता है। कई बार अदालतों में भी सच को छुपाने के लिए झूठी गवाही दी जाती है।
राजनीतिक-सामाजिक संदर्भों में देखें तो आत्ममुग्धता और झूठ के बीच एक दोस्ताना रिश्ता है। झूठ आत्ममुग्धता के लिए ऑक्सीजन सिलेंडर का काम करता है, तो आत्ममुग्धता झूठ को अपना जीवन साथी मानकर चलती है। इस दोस्ती से ऐसा आभासी संसार आकार लेने लगता है, जहां व्यक्ति, संगठन, दल या समाज अपने आप को ‘एकमेवाद्वितीयम’ समझने लगते हैं। यानी जो हमने सोचा, समझा और कहा, वही जीवन का अंतिम सत्य है।
शारीरिकी की दृष्टि से पूछा जा सकता है कि झूठ का उत्पत्ति स्थल कौन सा है और वह कहां सुरक्षित छुपता है? वैज्ञानिकों के मुताबिक मस्तिष्क का प्रीफ्रंटल कार्टेक्स ही हमारी झूठ बोलने की क्षमता में वृद्धि करता है। दिमाग का यह हिस्सा ये भी तय करता है कि हमें झूठ बोलना है या सच बोलना। विशषज्ञों के अनुसार झूठ बोलना मनुष्य के दिमाग की सबसे नाजुक और याचित सिद्धी है। बच्चों को तो झूठ बोलना सीखना पड़ता है, क्योंकि उनके मन का कोरा कैनवास सच की तरह बेदाग होता है। कहते हैं कि जिनके मस्तिष्क के फ्रंटल लोब चोटिल हो जाते हैं, वो झूठ नहीं बोल पाते हैं।
झूठ बोलने की मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया के बारे में बताया जाता है कि लोग झूठ छिपाने की तुलना में सच ज्यादा आसानी से बोल सकते हैं। लेकिन झूठ बोलने के कारण अलग-अलग हो सकते हैं। मसलन अपनी छवि को बचाने के लिए, झूठ बोलने की आदत के चलते, किसी के साथ रिश्ते या जज्बे को छुपाने के लिए, लोगों को प्रभावित करने के लिए, किसी विवाद को टालने या उसकी तीव्रता कम करने के लिए या फिर तात्कालिक संतुष्टि या गुमराह करने की नीयत से भी झूठ बोला जाता है।
विडंबना यह है कि झूठ अक्सर सच की रक्षा का दावा करते हुए बोला जाता है। इसके मूल में स्वार्थों और दुर्भावना का बचाव होता है। यह स्वार्थ सत्ता का भी हो सकता है और नितांत निजी भी। राजनीति के एरिना में आकर झूठ और सच की परिभाषा इतनी गड्डमड्ड हो जाती है कि इन दोनों के बीच नैतिकता की लक्ष्मण रेखा किस चतुराई से पोंछ दी जाती है, साधारण आदमी को पता भी नहीं चलता। शायद इसीलिए नेताओं और ‘वन टू का फोर’ करने वालों का दिमाग सबसे ज्यादा तेज और मेहनती होता है। यह बात अलग है कि झूठ को इस बात का अहसास शायद ही होता हो कि वह सच नहीं बल्कि झूठ ही है।