गुलजार: कभी चरखा चलाया, कभी चांद चुराया

हेमंत पाल

गुलज़ार, फिल्मों के ऐसे गीतकार जिनके गीतों की खनक कुछ अलहदा है। उनके गीतों के लफ्ज़ उनके श्वेत परिधान की तरह उजले और ठसकदार आवाज की तरह ठस्की से भरपूर होते हैं। गीतों में छायावाद या प्रयोगधर्मिता उनका शगल रहा है। शब्दों के बियाबान से वे दूसरी भाषाओं से ऐसे अनोखे शब्द चुनकर लाते हैं, कि सुनने वाला भी हैरान हो जाए। कानों को सुरीला लगने के बावजूद उनके गीतों को गुनगुनाना आसान नहीं होता। क्योंकि, दो चार बार सुनने के बाद भी उनके गीतों के कई शब्दों को समझना मुश्किल होता है। ‘गुलामी’ फिल्म के एक गीत में फ़ारसी के शब्दों ‘ज़ेहाल-ए-मिस्कीन मकुन बारंजिश बाहाल-ए-हिजरा बेचारा दिल है’ को आखिर कोई कैसे समझे।

शब्दों के साथ चुहलबाजी गुलज़ार का पुराना शगल है। अपनी पहली ही फिल्म ‘बंदिनी’ के गीतों में उन्होंने ‘मोरा गोरा ऱंग लइले, मोहे श्याम रंग दइदे’ लिखकर चौंकाने की शुरुआत की थी, जो आज भी जारी है। लेखन में उर्दू समेत अन्य भाषाओं के शब्दों की बहुलता पर गुलजार का कहते हैं कि मेरे लिखने की भाषा हिन्दुस्तानी है। जिस भाषा का प्रयोग बोलने में करता हूं, उसी में लिखता हूँ।

शब्दों की इस प्रयोगयात्रा में उन्होंने कभी ‘चप्पा चप्पा चरखा’ चलाया तो कभी चर्च के पीछे बैठकर चैन चुराने की बात की। ‘घर’ फिल्म के गीत ‘तेरे बिना जिया जाए ना’ में ‘जीया’ और ‘जिया’ का पारस्परिक संगम छायावाद का बेहतरीन उदाहरण है। ‘परिचय’ फिल्म के गीत ‘सारे के सारे गामा को लेकर गाते चले’ में उन्होंने सरगम का जो प्रयोग किया है, वो अद्भुत है। ‘मेरे अपने’ में उनका एक गीत ‘रोज अकेली जाए रे चांद कटोरा लिए’ गीत में उन्होंने रात को चांद का कटोरा थमाने की कोशिश बताया, जो ऐसी कल्पनाशीलता है, जो सहज नहीं कही जा सकती।

‘किताब’ फिल्म में बाल मनोविज्ञान को गीतों से समझाने के लिए उन्होंने ‘धन्नो की आंख में रात का सुरमा’ जैसे शब्द रचे। ‘चल गुड्डी चल बाग में पक्के जामुन टपकेंगे’ और ‘जंगल-जंगल बात चली है’ के अलावा ‘मासूम’ फिल्म के लिए उन्होंने ‘लकड़ी की काठी…काठी पे घोडा’ जैसी रचनाएं लिखी, जो बच्चों के प्रति उनके मनोभावों को व्यक्त करती हैं। वे खुद कहते हैं कि बच्चों के लिए लिखना अच्‍छा लगता है।  हर लिखने वाले को बच्चों के लिए लिखना चाहिए। बच्चे संवेदनशील होते हैं, उनसे बतियाना मेरा प्रिय शगल है। कभी तो लगता है कि मैं आज भी बच्चा ही हूं।

गुलजार के गीतों में कुछ शब्दों का प्रयोग बहुत ज्यादा दिखाई देता रहा है। उनके गीतों में ‘चाँद’ नए-नए रूपों में मौजूद है। लाज, लिहाज, ताना और आत्मीयता लगभग हर एक प्रसंग के लिए गुलजार ने चाँद को याद किया। ‘चाँद’ यहां इच्छाओं का बिम्ब बन गया है। चाँद से यह नजदीकी गुलजार में इतनी गहरी है कि कभी वे चाँद चुराकर चर्च के पीछे बैठने की बात करते हैं, कभी कहते हैं ‘शाम के गुलाबी से आँचल में दीया जला है चाँद का, मेरे बिन उसका कहां चाँद नाम होता।’ उनके गीतों में एक भूखे इंसान को चाँद में भी रोटी नजर आती है ‘आज की रात फुटपाथ से देखा मैंने रात भर रोटी नजर आया है वो चांद मुझे।’ ये ऐसे कुछ चंद उदाहरण हैं जो गुलजार के एक शब्द के अलग-अलग प्रयोग बताते हैं।

उर्दू जुबान में फ़िल्मी गीत लिखने वालों में गुलजार के अलावा और भी शायर हैं। पर, गुलजार ने हिंदी के साथ उर्दू, अरबी, फ़ारसी और लोक भाषाओं का जो संगम बनाया वो बेजोड़ है। वे हिंदी और उर्दू को एक करने वाली हिंदुस्तानी जुबान के उस मोड़ पर खड़े दिखाई देते हैं, जहां कविता, कहानी और गीत आकर मिल जाते हैं। उन्होंने एक नई परंपरा की शुरुआत भी की, जिसमें हिंदी, उर्दू के साथ राजस्थानी, भोजपुरी, पंजाबी जैसी भाषाओं के शब्दों को भी अपनी रचनाओं में उपयोग किया।

उन्होंने एक ही माला में अलग-अलग भाषाओं के शब्दों को पिरोने में परहेज नहीं किया। फिल्मों के संसार में गुलजार के कई रूप हैं। वे गीतकार के अलावा पटकथाकार, संवाद लेखक और निर्देशक भी हैं। लेकिन, गुलजार को ज्यादा प्रसिद्धि उनके गीतों के कारण मिली। उनके गीत ही उन्हें सिनेमा के शौकीनों से सीधा जोड़ते हैं। उनकी सबसे बड़ी खासियत ये है कि वे बदलते परिवेश और सिनेमा की मांग के अनुरूप अपने आपको ढालते रहे। ‘बंदिनी’ से गीतों का सफर शुरू करने वाले गुलजार ने अपने गीतों के जरिए कई विविधताओं के दर्शन कराए। उनका मन बच्चों और युवाओं से लगाकर हर वर्ग को समझता है।

‘बंटी और बबली’ तथा ‘झूम बराबर झूम’ जैसी कमर्शियल फिल्मों के गीतों की जबर्दस्त लोकप्रियता इस बात की मिसाल है कि वे हर सुर में शब्द पिरो सकते हैं। उन्हें बाजारू गीत लिखने से भी कभी परहेज नहीं किया। ‘कजरारे कजरारे तेरे नैना कारे कारे नैना’ का जादू दर्शकों के सिर चढ़कर बोला था। ‘झूम बराबर झूम’ के शीर्षक गीत पर तो युवा पीढ़ी झूम उठी।  लेकिन, कौन सोच सकता है कि ‘ओमकारा’ के ‘बीड़ी जलई ले जिगर से पिया’ जैसा गीत भी गुलजार की कलम से जन्म लेगा।

गैर पारंपरिक शब्दों के बावजूद हर रंग के गीत लेखन का नतीजा ये रहा कि गुलजार को 12 बार फिल्म फेयर पुरस्कार नवाजा गया। ये उनके गीतों की सामाजिक स्वीकार्यता भी दर्शाता है। वे अकेले गीतकार हैं जिनका नाम ‘ऑस्कर’ जीतने वालों की लिस्ट में भी है।

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