प्रमोद भार्गव
भारत सरकार और राज्य सरकारें चिकित्साकर्मियों को कोरोना योद्धा का दर्जा दे रही हैं। इस सम्मान के वास्तव में वे अधिकारी हैं। क्योंकि यह जानते हुए भी वे सांप से खेल रहे हैं कि इसके मुंह में जहर है। अलबत्ता यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि संसद में जब समाजवादी पार्टी के सांसद रविप्रकाश वर्मा ने सवाल पूछा कि अब तक देश में कितने चिकित्सक और चिकित्साकर्मियों की मौतें हुई हैं तो इसके उत्तर में स्वास्थ्य राज्य मंत्री अश्विनी चैबे का उत्तर आश्चर्य में डालने वाला रहा। उन्होंने कहा कि केंद्र सरकार के पास कोरोना संक्रमण से प्राण गंवाने वाले चिकित्सकों के आंकड़े नहीं हैं, क्योंकि यह मामला केंद्र का विषय न होकर राज्य का विषय है।
निश्चित ही यह विषय राज्य का है, लेकिन राज्यों से आंकड़े जुटाना केंद्र के लिए कोई मुश्किल काम इस कंप्यूटर युग में नहीं है? इसी तरह सरकार ने कोरोना काल में मृतक पुलिसकर्मियों और प्रवासी मजदूरों के आंकड़े देने में असमर्थता जता दी। चौबे का यह बयान दर्शाता है कि वे कोरोना योद्धाओं के प्रति चिंतित नहीं हैं। हांलाकि भारतीय चिकित्सा संगठन (आईएमए) ने अगले दिन ही कोरोना काल में सेवाएं देते हुए शहीद 382 चिकित्सकों की सूची जारी कर दी। आईएमए ने इन्हें त्याग की प्रतिमूर्ति और राष्ट्रनायक मानते हुए प्राण गंवाने वाले चिकित्सकों को शहीद और परिवार को मुआवजा देने की मांग भी की हैं। यह सूची 16 सितंबर 2020 तक कोरोना काल के गाल में समाए चिकित्सकों की है।
कोरोना से शहीद हुए चिकित्सकों की इस सूची में केवल एमबीबीएस डॉक्टर हैं। इनके अलावा आयुर्वेद, होम्योपैथी और अन्य वैकल्पिक चिकित्सा से जुड़े डॉक्टर भी कोरोना की चपेट में आकर मारे गए हैं। अभी तक कुल 2238 एमबीबीएस चिकित्सक कोविड-19 से संक्रमित हो चुके हैं। चिकित्सकों के प्राणों का इस तरह से जाना, निकट भविष्य में चिकित्सकों की कमी को और बढ़ा सकता है।
इस सब के बावजूद स्वास्थ्यकर्मियों के हौसले पस्त नहीं हुए हैं। विपरीत परिस्थितियों में इलाज करना मुश्किल होने के बावजूद उनका उत्साह बरकरार हैं। जबकि अस्पतालों में विषाणुओं से बचाव के सुरक्षा उपकरण पर्याप्त मात्रा में नहीं हैं, बावजूद डॉक्टर जान हथेली पर रखकर इलाज में लगे हैं। यह विषाणु कितना घातक है, यह इस बात से भी पता चलता है कि चीन में फैले कोरोना वायरस की सबसे पहले जानकारी व इसकी भयावहता की चेतावनी देने वाले डॉ. ली वेनलियांग की मौत हो गई है।
चीन के वुहान केंद्रीय चिकित्सालय के नेत्र विशेषज्ञ वेनलियांग को लगातार काम करते रहने के कारण कोरोना ने चपेट में ले लिया था। वेनलियांग ने मरीजों में सात ऐसे मामले देखे थे, जिनमें सॉर्स जैसे किसी वायरस के संक्रमण के लक्षण दिखे थे और उन्होंने इसे मनुष्य के लिए खतरनाक बताने वाला चेतावनी से भरा एक वीडियो भी सार्वजनिक किया था। भारत में वैसे भी आबादी के अनुपात में चिकित्सकों की कमी हैं। बावजूद वे दिन-रात अपने कर्तव्य के पालन में जुटे हैं।
दरअसल कोरोना वायरस संक्रमण से हमारे चिकित्सक और चिकित्साकर्मी सीधे जूझ रहे हैं। चूंकि ये सीधे रोगियों के संपर्क में आते है, इसलिए इनके लिए विशेष प्रकार के सूक्ष्म जीवों से सुरक्षा करने वाले बायोसूट और एन-5 मास्क पहनने को दिए जाते हैं। बायो सूट को ही पीपीई अर्थात व्यक्तिगत सुरक्षा उपकरण कहा जाता है। यह एक प्रकार से बारिश में उपयोग में लाई जाने वाली बरसाती जैसा होता है। किंतु लगातार काम करते रहने के दौरान अदृश्य कोरोना विषाणु कब स्वास्थ्कर्मियों को हमला बोल दे, इसका अंदाज लगाना मुश्किल है।
भारत में चिकित्सकों की असमय मौत इसलिए चिंताजनक है, क्योंकि विश्व स्वास्थ्य संगठन 1000 की आबादी पर एक डॉक्टर की मौजदूगी अनिवार्य मानता है, लेकिन भारत में यह अनुपात 0.62 है। 2015 में राज्यसभा में केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री जेपी नड्डा ने बताया था कि देश में 14 लाख ऐलौपैथी चिकित्सकों की कमी है। किंतु अब यह कमी 20 लाख हो गई हैं। इसी तरह 40 लाख नर्सों की कमी है। अब तक सरकारी चिकित्सा संस्थानों की शैक्षिक गुणवत्ता और चिकित्सकों की कार्यप्रणाली पर सवाल उठते रहे हैं, लेकिन ध्यान रहे कि लगभग 60 प्रतिशत मेडिकल कॉलेज निजी क्षेत्र में हैं।
कोरोना के इस भीषण संकट में सरकारी अस्पताल और मेडिकल कॉलेज तो दिन-रात रोगियों के उपचार में लगे हैं, लेकिन जिन निजी अस्पतालों और कॉलेजों को हम उपचार के लिए उच्च गुणवत्ता का मानते थे, उनमें से ज्यादातर ने इस संकटकाल में तालाबंदी कर दी है। जिला और संभाग स्तर के अधिकांश निजी अस्पताल बंद रहे थे। हालांकि अब ये अस्पताल खुलने लगे है, लेकिन रोगी में कोरोना के लक्षण देखते ही उसे अस्पताल से बाहर का रास्ता दिखा देते हैं।
एमसीआई द्वारा जारी 2017 की रिपोर्ट के अनुसार देश में 10.41 लाख ऐलोपैथी डॉक्टर पंजीकृत हैं। शेष या तो निजी अस्पतालों में काम करते हैं या फिर निजी प्रेक्टिस करते हैं। इसके उलट केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार पंजीकृत ऐलोपैथी डॉक्टरों की संख्या 11.59 लाख है, किंतु इनमें से केवल 9.27 लाख डाक्टर ही नियमित सेवा देते हैं।
देश में फिलहाल 11082 की आबादी पर एक डॉक्टर का होना जरूरी है। लेकिन घनी आबादी वाले बिहार में 28,391 की जनसंख्या पर एक डॉक्टर है। उत्तर-प्रदेश, झारखंड, मध्य-प्रदेश और छत्तीसगढ़ में भी हालात बहुत अच्छे नहीं है। यदि देश की कुल 1.35 करोड़ आबादी का औसत अनुपात निकालें तब भी 1445 लोगों पर एक ऐलोपैथी डॉक्टर होना आवश्यक है। कोरोना महामारी के चलते स्पष्ट रूप से देखने में आ रहा है कि देश के ज्यादातर निजी चिकित्सालय बंद हैं, साथ ही जो ऐलोपैथी डॉक्टर निजी प्रेक्टिस करते हैं, उन्होंने भी फिलहाल रोगी के लिए अपने दरवाजे बंद कर दिए हैं।
ऐसे में केंद्र व राज्य सरकारों को इस कोरोना संकट से सबक लेते हुए ऐसे कानूनी उपाय करने होंगे कि बढ़ते निजी चिकित्सालयों और निजी प्रैक्टिस पर लागम लगे तथा सरकारी अस्पताल व स्वास्थ्य केंद्रों की जो श्रृंखला गांव तक है, उसमें चिकित्सकों व स्वास्थ्यकर्मियों की उपस्थित की अनिवार्यता के साथ उपकरण व दवाओं की उपलब्धता भी सुनिश्चित हो।