अजय बोकिल
लोकसभा में केन्द्रीय श्रम मंत्री संतोष गंगवार का यह बयान हैरान करने वाला था कि सरकार के पास उन प्रवासी मजदूरों का कोई आंकड़ा तक नहीं है, जिन्हें कोरोना लॉकडाउन के दौरान हुए हादसों में अपनी जानें गंवानी पड़ी थीं। ये मजदूर काम-धंधा छूट जाने के बाद परिजनों के साथ दो जून की रोटी और सुरक्षित छत की उम्मीद में अपने गांवों को निकले थे, लेकिन मौत ने उन्हें बीच रास्ते से उठा लिया। लोकसभा में विपक्षी बीजू जनता दल के सांसद भर्तृहरि मेहताब ने प्रश्न पूछा था कि देश में कोरोना लॉकडाउन के दौरान कितने प्रवासी मजदूरों की जानें गईं? क्या सरकार ने उनके परिजनों को कोई मुआवजा दिया है?
केंद्रीय श्रम मंत्री ने जवाब में कहा कि सरकार के पास लॉकडाउन में प्रवासी मजदूरों की मौत का कोई आंकड़ा नहीं है। लिहाजा मुआवजा देने का सवाल ही नहीं उठता। इस पर संसद में काफी हंगामा हुआ। कांग्रेस सांसद राहुल गांधी ने विदेश से एक शायराना ट्वीट किया-’’मोदी सरकार नहीं जानती कि लॉकडाउन में कितने प्रवासी मजदूर मरे और कितनी नौकरियां गईं।’ उन्होंने कुछ काव्य पंक्तियां भी कोट की- ‘तुमने ना गिना तो क्या मौत ना हुई? हां मगर दुख है सरकार पे असर ना हुआ, उनका मरना देखा जमाने ने, एक मोदी सरकार है जिसे खबर ना हुई।’
कांग्रेस सांसद दिग्विजयसिंह ने कहा- ‘’कभी-कभी मुझे लगता है कि या तो हम सब अंधे हैं या फिर सरकार को लगता है कि वो सबका फायदा उठा सकती है।‘’ हालांकि सरकार ने इस मामले में इतना जरूर माना कि लॉकडाउन के दौरान पूरे देश में 1 करोड़ से ज्यादा प्रवासी मजदूर विभिन्न कोनों से अपने गृह राज्य पहुंचे हैं।
ध्यान रहे कि देश में कोरोना प्रकोप के बाद पूरे देश में सख्ती से लागू लॉकडाउन के दूसरे हफ्ते से ही पूरे मुल्क में मजदूरी और छोटे काम-धंधे करने वालों के सामने रोजी-रोटी का गहरा संकट खड़ा हो गया था। उनकी जेबें खाली थीं और पेट भरने का कोई सुनिश्चित जरिया नहीं बचा था। हालांकि इस परिस्थिति में भी कुछ स्वयंसेवी संस्थाओं ने भूखे प्रवासी मजदूरों के लिए अन्न क्षेत्र चलाए और कुछ राज्य सरकारों ने मुफ्त अनाज बांटने की योजनाएं भी चलाईं। लेकिन समस्या के आकार की तुलना में ये बहुत बौनी साबित हुईं।
एक तो रोजगार का छिनना, ऊपर से कोरोना संक्रमण के डर ने समूचे देश में प्रवासी मजदूरों में एक मनोवैज्ञानिक आतंक पैदा कर दिया। वे घोर अनिश्चितता और संचार साधनों के अभाव में हजारों मील का सफर पैदल ही तय करने चल पड़े। दुर्भाग्य से इन भूखे-प्यासे मजदूरों में से कई को रास्ते में दुर्घटनाओं में अपने प्राण गंवाने पड़े। कुछ लोग लापरवाही के कारण रेल से कट मरे तो कुछ को उन ट्रकों ने टक्कर मार कर मौत की नींद सुला दिया, जिन्हें उन मजदूरों ने घर पहुंचाने का साधन समझा था। तमाम शहरों और कस्बों को छोड़कर छोटे बच्चों, परिजनों के साथ गृहस्थी सिर पर लादे चप्पल घिसते हुए लाखों प्रवासी मजदूरों के अपने गांव निकल पड़ने की वो तस्वीरें हर संवेदनशील आंख को नम कर गई थीं। देश के इतिहास का वो ऐसा अभूतपूर्व और अनचाहा घटनाक्रम था, जो शायद ही भुलाया जा सकेगा। और जो अदूरदर्शी व्यवस्था के कारण उपजा था।
यहां सवाल ये कि लॉकडाउन के उन दो महिनों में आखिर कितने प्रवासी मजदूरों ने अपनी जानें गंवाईं? कुछ स्वयंसेवी संस्थाओं ने इसका हिसाब रखा है। ऐसी ही एक संस्था ‘सेव लाइफ फाउंडेशन’ ने माह अप्रैल और मई 2020 के बीच अलग-अलग हादसों में मारे गए प्रवासी मजदूरों के सम्बन्ध में एक विस्तृत अध्ययन रिपोर्ट जारी की थी। ये रिपोर्ट जून में तब जारी हुई थी, जब देश में अनलॉक-1 शुरू हो गया था। रिपोर्ट के मुताबिक लॉकडाउन अवधि में अपने गांव लौटने के इच्छुक 198 प्रवासी मजदूरों की दुर्घटनाओं में मौत हुई थी।
लॉकडाउन के दौरान सभी तरह का आवागमन बंद था। केवल अत्यावश्यक सेवाओं से जुड़े वाहन चल रहे थे। लेकिन इन वाहनों की वजह से भी देश में कुल 1 हजार 461 दुर्घटनाएं हुईं, जिनमें कुल 750 लोग मारे गए, जिनमें 198 प्रवासी मजदूर थे। इन हादसों का एक कारण लॉकडाउन में वाहनों की तेज रफ्तार और ड्राइवरों की थकान भी था। 43 फीसदी दुर्घटनाएं वाहनों की आमने-सामने की भिड़ंत के कारण हुईं। याद रहे कि देश में कोरोना प्रकोप के कारण देशव्यापी लॉक डाउन 25 मार्च से 31 मई तक लागू था।
एसएलएफ की रिपोर्ट के मुताबिक राज्यवार आंकड़े देखें तो लॉकडाउन में हुए हादसों में प्रवासी मजदूरों की सर्वाधिक 94 मौतें उत्तर प्रदेश में हुईं। उसके बाद मध्यप्रदेश 38, बिहार 16, तेलंगाना 11 तथा महाराष्ट्र में 9 प्रवासी मजदूरों ने जान गंवाईं। सेव लाइफ फाउंडेशन के संस्थापक पीयूष तिवारी के अनुसार चौथे चरण में सर्वाधिक मौतों की वजह राज्य सरकारों द्वारा लॉकडाउन में ढील देते जाना था।
सरकार के पास ऐसी मौतों का डाटा न होने का तर्क इसलिए भी बोदा है, क्योंकि प्रवासी मजदूरों के व्यापक पैमाने पर स्थलांतरण और विपक्ष की आलोचनाओं के बाद केंद्र सरकार ने ही राज्यों से सीमाएं सील करने को कहा था। केन्द्र ने ही परेशान प्रवासी मजदूरों को उनके घरों तक पहुंचाने के लिए स्पेशल श्रमिक ट्रेनें चलाईं। मप्र में शिवराज सरकार सहित कई राज्यों ने हादसों में मारे गए प्रवासी मजदूरों के परिजनों को मुआवजे का ऐलान भी किया। उदाहरण के लिए महाराष्ट्र के औरंगाबाद में रेल पटरी पर सो रहे 16 प्रवासी मजदूरों की रेल से कटकर मौत की दिल दहला देने की घटना के बाद मध्यप्रदेश व महाराष्ट्र सरकार ने 5-5 लाख रुपये मुआवजा देने की घोषणा थी। हादसे के बाद रेल पटरी पर बिखरी सूखी रोटियां अपनी कहानी खुद कह रही थीं।
एक और स्वतंत्र अध्येता समूह माइग्रेंट वर्कर्स सॉलिडीरिटी नेटवर्क के अनुसार लॉकडाउन के दौरान अप्रैल, मई, जून के बीच कुल 971 लोगों ने अपनी जान गंवाई, जिसके पीछे वजह भूख, थकान, इलाज की सुविधा न मिलना, पुलिस की सख्ती और शराब न मिलना भी था। वैसे केन्द्र सरकार ने इतना जरूर माना कि लॉकडाउन के दौरान देश भर में कुल 1 करोड़ 4 लाख 66 हजार 152 लोगों (प्रवासी मजदूरों) ने घर-वापसी की। इसमें सर्वाधिक 32 लाख 49 हजार 638 मजदूर यूपी और 15 लाख 612 मजदूर बिहार से थे।
यह बात हजम होने वाली नहीं है कि अगर सरकार ने प्रवासी मजदूरों की संख्या का डाटा एकत्रित किया तो फिर हादसों में मरने वाले प्रवासी मजदूरों का डाटा क्यों छोड़ दिया? या सरकार ये आंकड़ा इसलिए नहीं बताना चाहती कि ऐसा करने पर मृतकों के परिजनों को मुआवजा देना पड़ेगा? मान लिया। लेकिन जो प्रवासी मजदूर हादसों में मरे, उनकी संख्या कुल स्थलांतरित प्रवासी मजदूरों की तुलना में मात्र 0.001 प्रतिशत है। ऐसे में मृतकों के परिजनों को मुआवजा देना भी पड़ता तो सरकार पर कोई बड़ा आर्थिक बोझ तो नहीं पड़ता।
वैसे भी प्रवासी मजदूरों की असमय मौत कोई राजनीति का मुद्दा नहीं है। यह मानवता और राजनीतिक संवेदनशीलता का सवाल है। और फिर यह भी आश्चर्यजनक है कि जो आंकड़े सबको पता हैं, वो सरकार को ही पता नहीं हैं। इन हादसों में हुई मौतों के आंकड़े मीडिया में छपे हैं, सरकार ने उसका कभी खंडन नहीं किया। तो फिर उसकी जानकारी संसद को देने में सरकार को क्या दिक्कत है, समझना मुश्किल है। सरकार इसे अपनी बदनामी मानती है तो यह भी सही नहीं है, क्योंकि ये सवाल भले एक विपक्षी सांसद ने पूछा हो, लेकिन मौत की राह पर धकेल दिए गए वो प्रवासी मजदूर किसी एक पार्टी, विचारधारा अथवा संगठन से जुड़े नहीं थे। उनकी मौतों को स्वीकारने में क्या परेशानी होनी है?
इस डिजीटल युग में जब शत्रु देश चीन के पास हमारे शीर्ष नेताओं तक का एक-एक डाटा हो, वहीं हमारी सरकार अपने ही प्रवासी मजदूरों की मौतों से अनभिज्ञ हो, इसे किस रूप में समझें? हो सकता है वो बदनसीब प्रवासी मजदूर किसी के वोटर (अधिकांश प्रवासी मजदूर चुनाव में वोट नहीं कर पाते। क्योंकि वो जहां काम करते हैं, वहां वोटर लिस्ट में उनका नाम नहीं होता और जहां होता है, वहां वो मतदान के दिन शायद ही पहुंच पाते हैं) भी नहीं थे, इसलिए सरकार ने उनके सिर गिनना भी जरूरी न समझा हो।