अरुण कुमार त्रिपाठी
मेरे एक विद्यार्थी ने पिछले शिक्षक दिवस पर मुझे रामचंद्र गुहा की पुस्तक `गांधीः ईयर्स दैट चेंज्ड द वर्ल्ड 1914-1948’ भेंट करते हुए लिखा `प्रिय अरुण सर को जिन्होंने नैतिक होना सिखाया’ उस विद्यार्थी का यह वाक्य मेरे कंधे पर हल के भारी बोझ की तरह लदा हुआ है। मैं उसे न तो उतार पा रहा हूं और न ही लेकर चल पा रहा हूं। यह युग मुझे बार बार अनैतिक होने को प्रेरित करता है, पक्षपाती होने को मजबूर करता है और उस विद्यार्थी का यह वाक्य मुझे बार बार नैतिक और निष्पक्ष होने के लिए बाध्य करता है।
मुझे नैतिक होने के लिए वह व्यक्ति (गांधी) भी बाध्य करता है जिस पर लिखी गई पुस्तक मुझे भेंट में मिली थी। नैतिकता की इस अनवरत धारा के अतीत में अगर गांधी हैं तो भविष्य में वह विद्यार्थी हैं जिसने मुझसे नैतिकता के कुछ सूत्र प्राप्त किए होंगे और परोक्ष रूप से यह उम्मीद की होगी कि मैं उन्हें बना रहा हूं। कभी प्रसिद्ध शिक्षक और शायर फिराक गोरखपुरी कहा करते थे कि जब भी मैं शायरी करने चलता हूं तो मेरे सामने गालिब आकर खड़े हो जाते हैं, मीर खड़े हो जाते हैं, तुलसी खड़े हो जाते हैं। इस तरह मैं दुविधा में पड़ जाता हूं कि मैं शायरी करूं तो कैसे करूं।
उसी तरह एक शिक्षक के सामने ज्ञान और नैतिकता के इतने ऊंचे पर्वत शिखर हैं कि वह उनके समक्ष ऊंट बनकर खड़ा हो सकता है और अपने बौनेपन का अहसास ही कर सकता है। डॉ. राधाकृष्णन, रघपतिसहाय फिराक गोरखपुरी, एएन झा, जीएन झा, बेनीप्रसाद, ताराचंद, बीरबल साहनी, प्रोफेसर आरपी रस्तोगी, प्रोफेसर आशुतोष मुखर्जी, राधाकमल मुखर्जी, राधाकुमुद मुखर्जी, श्यामाचरण दुबे, एमएन श्रीनिवास, आचार्य नरेंद्रदेव, विजय देव नारायण साही, प्रोफेसर राजबली पांडे, डॉ. राम विलास शर्मा, प्रोफेसर केसी पांडे, प्रोफेसर अवतार सिंह, प्रोफेसर केसी पांडे, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, प्रोफेसर नामवर सिंह, प्रोफेसर रणधीर सिंह, प्रोफेसर पीके त्रिपाठी, प्रोफेसर विपिन चंद्र, प्रोफेसर गोपाल शरण, प्रोफेसर राजेंद्र अवस्थी, कृष्ण नारायण कक्कड़ जैसे तमाम शिक्षकों की लंबी श्रृंखला है जिनकी कक्षाओं में बैठने के लिए भीड़ उमड़ती थी और जो नहीं बैठ पाते थे वे बाहर खड़े होकर ताकझांक कर कुछ सुन लेते थे और ज्ञान और विवेक की कुछ गंध पा लेते थे। उनका क्लास लेना या परिसर में मौजूद रहना ही किसी विश्वविद्यालय के वातावरण को ज्ञान के लिए आवेशित कर देता था और प्रेरित करता था नैतिक होने के लिए।
लेकिन मेरे विद्यार्थी ने जिस किताब के माध्यम से मुझ पर नैतिकता का बोझ लादा वह किताब तो गांधी पर लिखी गई है और गांधी मानवता के महानतम शिक्षकों में से एक हैं। गांधी की कक्षा तो किसी चारदीवारी में कैद नहीं है वह तो सेवाग्राम आश्रम के उस पीपल के पेड़ की तरह खुली है जिसकी पथरीली धरती पर बैठकर प्रार्थना की तरह ही हर कोई शिक्षा लेने के लिए आमंत्रित है। गांधी हमें सत्य का अन्वेषी बनाते हैं और नैतिक होना सिखाते हैं। शायद हम नैतिक हुए बिना सत्य के अन्वेषी बन नहीं सकते। इसीलिए गांधी जो पहले कहते थे कि ईश्वर ही सत्य है वे बाद में कहते हैं कि सत्य ही ईश्वर है। एक शिक्षक अपने विद्यार्थी को सत्य को पहचानना ही सिखाता है। अगर कोई शिक्षक विद्यार्थी के आसपास और उसके भीतर के सत्य का भान करा देता है तो विद्यार्थी जीवन जीना अपने आप सीख लेता है।
लेकिन सवाल उठता है कि गूगल गुरु के इस युग में किसी शिक्षक की कितनी आवश्यकता है? आखिरकार वह अपने विद्यार्थी को ऐसा क्या दे सकता है जो गूगल और शोधगंगा या तमाम वेबसाइट पर उपलब्ध नहीं है? विद्यार्थी विकीपीडिया, टेड टॉक्स, आनलाइन कोर्सेज के माध्यम से इतना पा रहे हैं कि शिक्षक उससे ज्यादा क्या दे सकते हैं? आप सब ने वह विज्ञापन देखा होगा जिसमें शाहरुख खान बाइजूज नामक ऐप का प्रचार करते हैं। अब उनका उपयोग महज प्रचार तक सीमित नहीं है। वह विद्यार्थियों की मजबूरी बनता जा रहा है। विशेषकर कोरोना काल से पहले जो परिवर्तन धीरे धीरे हो रहा था वह अब और तेज हो गया है। पिछले छह माह से ज्यादातर विद्यार्थी एकलव्य हो गए हैं और शिक्षक द्रोणाचार्य। जाति और शासक वर्ग से जुड़े इस तनावपूर्ण संबंध का आर्थिक पहलू इस युग में भी मौजूद है। जिन विद्यार्थियों के पास मोबाइल, कंप्यूटर और इंटरनेट की सुविधा नहीं है वे शिक्षा से वंचित हो रहे हैं।
संभव है देर सबेर वे भी किसी सरकारी सहायता या किसी की व्यक्तिगत मदद से शिक्षा के साइबर संसार में प्रवेश कर ले जाएं। लेकिन जिस संसार में गुरु या शिक्षक के बिना प्रवेश दुर्लभ है वह है नैतिकता का संसार। मेरे एक मित्र कहते हैं कि आप गूगल बाबा के इस युग में विद्यार्थियों को न तो नया ज्ञान दे सकते हैं और न ही नई सूचनाएं। जिनके भी पास इंटरनेट की सुविधा उपलब्ध है वे शिक्षकों की पीढ़ी से कई गुना ज्यादा सूचनाओं से लैस हैं। आप उन्हें एक सूचना को याद करने की सलाह देंगे वे आपको दस सूचनाएं बता देंगे।
फिर ऐसा क्या है जो गुरु या शिक्षक उन्हें दे सकता है? मेरे उन मित्र का कहना है कि आप उन्हें नैतिक बल दे सकते हैं। साहस दे सकते हैं। सद्-असद विवेक दे सकते हैं। वे वह कथा सुनाते हैं जिसमें चार पंडितों ने जीवनदायिनी विद्या सीखी थी उनके साथ एक विद्याविहीन साथी भी था लेकिन वह कामनसेंस से लैस था। जब उन लोगों ने जंगल में एक मरे शेर को जीवित करना चाहा तो उनके उस अज्ञानी साथी ने कहा कि रुक जाओ। वे नहीं माने तो वह पेड़ पर चढ़ गया और बच गया जबकि बाकी दोस्त शेर के पेट में समा गए।
इसलिए व्यक्ति में नैतिक बल और सूझबूझ होना चाहिए। कई बार आपदा आने पर ज्ञान धरा रह जाता है और काम सूझबूझ ही आती है। आजकल राष्ट्रवाद का बड़ा जोर है। राष्ट्रवाद के आगे सारा ज्ञान और सद-असद विवेक दो कौड़ी का हो गया है। जिनके हाथ में राष्ट्रवाद की कमान है वे किसी को भी राष्ट्रद्रोही सिद्ध कर देते हैं और उसके विवेक को खारिज कर देते हैं। यहां पिछली सदी के मानवता के दो महान शिक्षकों के टकराव में वह द्वंद्व दिखाई पड़ता है। गांधी और आंबेडकर जब पहली बार मिलते हैं तो आंबेडकर कहते हैं कि महात्मा जी मेरा कोई देश नहीं है। जिस देश में हमारी स्थिति कुत्ते और बिल्लियों से बदतर हो उसे हम कैसे अपना देश मान सकते हैं।
गांधी जी कहते हैं कि आपके पास देश है वह आप के काम से साबित हो रहा है। लेकिन आंबेडकर कहते हैं कि उनके पास देश नहीं सद्-असद विवेक है और उन्होंने जो कुछ किया है उसी के सहारे किया है। रोचक तथ्य यह है कि दुनिया को भारत के यह महान उपहार वास्तव में सद्-असद विवेक की ही शिक्षा दे रहे हैं। लेकिन वे जहां खड़े हैं वहां से दुनिया और अपने समय को देखने का उनका नजरिया अलग अलग है। एक दूसरे के विवेक का आदर करना ही सच्ची शिक्षा है और यही एक शिक्षक दे सकता है।
शिक्षा और शिक्षक के समक्ष आज के दौर में उपस्थित चुनौतियों को जुआल नोवा हरारी एकदम अलग ढंग से पेश करते हैं। वे `ट्वेंटी वन लेसन्स फार ट्वेंटी फर्स्ट सेंचुरी’ में कहते हैं इस दौर में शिक्षकों के सामने बड़ी चुनौती यह है कि हम अपने विद्यार्थियों को कौन सा कौशल सिखाएं, रोजगार पाने के लिए और कौन सा कौशल अपने परिवेश को समझने के लिए सिखाएं। आज के शिक्षकों के पास इसका कोई जवाब नहीं है कि 2050 का विश्व कैसा होगा। उनकी बात छोड़ दीजिए जो समाज को त्रेता युग में ले जाना चाहते हैं या वे जो परशुराम की मूर्ति लगाना चाहते हैं या खलीफा का शासन स्थापित करना चाहते हैं।
आज परिवर्तन ही सबसे बड़ा स्थिरांक हो चुका है। जब आने वाली प्रौद्योगिकी हमारे शरीर की संरचना, हमारे दिमाग और मन के स्वरूप को बदलने लगेगी तो हम नहीं जानते कि आने वाला समय कैसा होगा। हम नहीं जानते कि आने वाले समय में सेना कैसी होगी, नौकरशाही कैसी होगी, नर नारी संबंध कैसे होंगे और क्लासरूम कैसे होंगे। हम सूचना को ज्ञान में और ज्ञान को विवेक में कैसे ढालेंगे, इसकी पद्धति भी तय नहीं हो पा रही है। दिक्कत यह है कि पुरानी कहानियां बिखर रही हैं और हम कोई नई कहानी गढ़ नहीं पा रहे हैं।
जो लोग नई शिक्षा नीति पर बहुत ज्यादा मुग्ध हैं वे यह नहीं बता पा रहे हैं कि शिक्षा का निजीकरण या उसका पौराणीकरण कैसे भविष्य की इस चुनौती का मुकाबला करेगा? अगर वह मानव संबंधों की जटिलताओं को नहीं समझेगा तो भावी पीढ़ी को आने वाले विश्व की झलक कैसे दे पाएगा? वे यह भी नहीं बता पा रहे हैं कि यह शिक्षा नीति कितने दिनों तक नई बनी रहेगी? विद्या, ज्ञान और विवेक राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था से कभी पूरी तरह से स्वतंत्र नहीं रहा। लेकिन पश्चिम में सेक्यूलर शिक्षा की अवधारणा ने और भारत में जंगलों में रहने वाले ऋषियों की परंपरा ने उसे सत्ता के दबाव से मुक्त रखने का प्रयास किया था।
सत्य वही है जो दूसरे की बातों को एकदम खारिज न करे और यह माने कि कभी दूसरे की बातें ज्यादा प्रामाणिक हो सकती हैं। हमारा ही ज्ञान श्रेष्ठ है और हमारे ही मूल्य मानवता के रक्षक हैं ऐसा मानने वाले देश और सभ्यताएं ही दुनिया में सभ्यताओं का संघर्ष खड़ा करते हैं। यही सांप्रदायिता की जड़ है और इसी सोच के साथ विद्यालयों और विश्वविद्यालयों को एक संगठन और पार्टी का काडर तैयार करने की मशीन बनाया जा रहा है।
वहां विद्यार्थियों को नैतिक होने की बजाय जोड़ तोड़, हिंसा और एकतरफा सोचने की ट्रेनिंग दी जा रही है। वहां ज्ञान की प्रशांत साधना से लोगों को प्रेरित करने की बजाय ढोल नगाड़े बजाकर दूसरों को आतंकित किया जा रहा है। वहां प्रश्न करने और आलोचना करने का साहस छीना जा रहा है और वैसे शिक्षकों पर निरंतर हमले हो रहे हैं जो कुछ नया करना और कहना चाहते हैं। परिसरों का लोकतांत्रिक और अकादमिक परिवेश नष्ट किया जा रहा है। आखिर उन लोगों ने कहां से शिक्षा पाई होगी जो लाइब्रेरी में पढ़ने वाले विद्यार्थियों पर लाठी चार्ज करते हैं या नौकरशाही में घुसपैठ पर कार्यक्रम चलाते हैं।
इसका मतलब यह नहीं कि पहले सब कुछ ठीक था। पहले भी भेदभाव होता था और उसमें जातिवाद और एक खास विचारधारा का दबाव रहता था। लेकिन शैक्षणिक संस्थानों और शिक्षकों ने लंबे संघर्ष के बाद जो स्वायत्तता हासिल की थी वह, राष्ट्रवाद, निजीकरण और नए अलगोर्थिम के माध्यम से क्षीण हो रही है। हरारी, कार्ल मार्क्स और फेडरिक एंजिल्स के 1848 के कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि जो कुछ ठोस है वह सब हवा हो रहा है। तब वे सामाजिक और आर्थिक संबंधों को बदलने की बात कर रहे थे। उसी बात को इक्कीसवीं सदी में लागू करते हुए वे कहते हैं कि जो कुछ भौतिकता और बोध से संबंधित है वह भी हवा हो रहा है। इक्कीसवीं सदी में स्थिरता की कल्पना नहीं की जा सकती। अगर आपको अपने भविष्य पर नियंत्रण रखना है तो तेज दौड़ना होगा।
ऐसे में एक शिक्षक का दायित्व अपने विद्यार्थी के भीतर तेज दौड़ने के कौशल का विकास करना है तो साहस और उस सद्-असद विवेक का विकास भी करना है जिससे उसका विद्यार्थी इस तेज रफ्तार वाली दुनिया में लड़खड़ाए नहीं। उसका तन और मन संतुलित रहे। इसीलिए आज इस बदलते युग में हमें अपने विद्यार्थियों के भीतर सद-असद का वह विवेक जागृत करना है जिससे वे आने वाले समय में हिंदू-मुस्लिम, दलित- सवर्ण, पूरब-पश्चिम, भारत-चीन, भारत-पाक के द्वंद्व में फंस कर कट न मरें। वे अपने देश और दुनिया को पशुबल से नहीं नैतिक बल से चलाना सीखें।
यहां फिर वही सवाल उठता है कि यह शिक्षा देने वाले शिक्षक कहां से लाएं? मेरे कंधे पर उस विद्यार्थी का नैतिकता का वाक्य एक भारी हल की तरह रखा हुआ है जो तमाम संकोच के बावजूद ज्ञान की नई खेती करते रहना चाहता है। क्या आप भी वैसा महसूस करते हैं?