करैरा में बसपा ने कांग्रेस के लिए संकट बढ़ा दिया है

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करैरा उपचुनाव- बसपा इफेक्‍ट

डॉ. अजय खेमरिया

अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित शिवपुरी जिले की करैरा विधानसभा के लिए बसपा ने राजेन्द्र जाटव को टिकट देकर उपचुनाव को त्रिकोणीय बना दिया है। कांग्रेस से यदि प्रागीलाल जाटव को टिकट मिलता है तो दोनों प्रमुख दलों से दलबदलू प्रत्याशी ही मैदान में होंगे क्योंकि प्रागीलाल जाटव पिछले तीन चुनाव में बसपा के टिकट पर यहां लड़ते आये है। बसपा ने अपने कोर कैडर के कार्यकर्ता राजेंद्र जाटव को टिकट देकर यह संदेश देने की कोशिश की है कि उपचुनाव में उसकी भूमिका वोट कटवा की नहीं रहने वाली है।

यह तथ्य है कि इस विधानसभा क्षेत्र में बसपा का कैडर जिले की अन्य सीटों की तुलना में बेहतर है। दलित ओबीसी का एक कॉम्बिनेशन यहां पिछले चार चुनावों से डेवलप हुआ है। 2003 में बीजेपी के कद्दावर नेता रणवीर सिंह रावत की अप्रत्याशित पराजय इसी कॉम्बीनेशन का नतीजा थी। बसपा के दलित वोटरों के साथ पाल, बघेल, कुशवाहा जैसी ओबीसी जातियां जुड़ती रही हैं। 2008 में लाखन बघेल तत्कालीन  दयाराम गड़रिया फैक्टर के संग इस कॉम्बीनेशन के बल पर भी एमएलए बनने में सफल हुए थे।

बसपा से राजेंद्र जाटव के टिकट होने का आशय यही है कि जाटव वोटों में सीधा विभाजन होगा ही औऱ इसका नुकसान निसन्देह कांग्रेस को होना है। बसपा छोड़कर कांग्रेस से टिकट के दावेदार प्रागीलाल जाटव की दावेदारी असन्दिग्ध है और अब उनके सामने अपनी पुरानी पार्टी के कैडर औऱ कांग्रेस के असंतुष्ट खेमे को साधने की चुनौती होगी।

करैरा में बीजेपी की प्रमुख चाबी रणवीर सिंह रावत हैं। 2003 में चुनाव हारने के बावजूद श्री रावत ने खुद को इस विधानसभा के निर्णायक क्षत्रप के रूप में बरकरार रखा है। बीजेपी में उनके विरोधी भी उन्हें खारिज करने का साहस नहीं करते हैं। बीजेपी में उनके कद का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि पार्टी ने अपनी नई कार्यकारिणी में उन्हें महामंत्री जैसे अहम पद की जिम्मेदारी दी है। इससे पहले वे मप्र किसान मोर्चा के अध्यक्ष थे।

श्री रावत का सभी जातियों में सतत सम्पर्क है। यहां रावत के अलावा लोधी, बघेल, कुशवाहा, परिहार, ब्राह्मण, वैश्य जातियां भी अच्छा चुनावी दखल रखती हैं। इनके स्थानीय नेता भी यहां सक्रिय हैं। जाटव, लोधी, रावत, परिहार, कुशवाहा, बघेल, यादव, ब्राह्मण, वैश्य, मुस्लिम, ठाकुर, मांझी, प्रजापति जैसी प्रमुख जातियां इस विधानसभा में हैं। ठाकुर, वैश्य ब्राह्मण, यादव, रावत जाति के विधायक यहां आरक्षण से पूर्व जीतते आये हैं। इस विधानसभा में बीजेपी की लगातार दो हार असल में पिता पुत्र की हार हुई है जिन्हें बारी बारी से पार्टी ने टिकट दिया।

मौजूदा उपचुनाव में बीजेपी के जसवंत जाटव को लेकर जमीन पर कोई खास उत्साह यहां नजर नहीं आता है। 18 महीने का उनका कार्यकाल जातिवाद और रेत के कारोबार की प्रतिध्वनि ज्यादा करता है। असल में बीजेपी का करैरा का गणित जाटव बनाम अन्य के पोलराइजेशन पर भी टिका रहता है। यह तथ्य है कि दलित वर्ग के सर्वाधिक जाटव विधायक बीजेपी से बनते हैं लेकिन इस बिरादरी ने वोट के मामले में उतनी ही दूरी बना रखी है। जहाँ कांग्रेस के जाटव उम्मीदवार होते है वहां नॉन जाटव का फैक्टर काम करता है।

करैरा में अब संभव है बीजेपी कांग्रेस और बसपा तीनों से जाटव उम्मीदवार ही मैदान में आयें। पूर्व विधायक शकुंतला खटीक को लेकर कांग्रेस सशंकित है, वह पहले सिंधिया के साथ चली गई थीं बाद में टिकट की चाह में वापिस कांग्रेस का झंडा पकड़ लिया। शकुंतला की रिपोर्ट भी आरम्भिक सर्वे में ठीक नहीं बताई गई है।

संभव है कांग्रेस टिकट नहीं मिलने पर शकुंतला सहित अन्य दावेदार बीजेपी का दामन थाम लें। कर्मचारी नेता शिवचरण करारे, मानसिंह फौजी, केएल राय भी यहाँ से टिकट के दावेदार हैं लेकिन कमलनाथ का मन प्रागीलाल जाटव को उतारने का है और सब कुछ ठीक रहा तो प्रागी ही जसवंत को टक्कर देंगे। लिहाजा करैरा में कांग्रेस छोड़ने वाले चेहरों में अभी और भी इजाफा संभव है।

सबसे अहम मुद्दा यहां बीजेपी में जसवंत की स्वीकार्यता ही है। बसपा का यहाँ प्रभाव 1998 से लगातार बढा है। 2003 में बीजेपी यहां वोटों के मिजाज के लिहाज से बहुत मजबूत है लेकिन सवाल उसके कार्यकर्ताओं के खड़े होने का है। लोधी, रावत, यादव, परिहार, कुशवाहा, ब्राह्मण, वैश्य, ठाकुर, पाल जैसी प्रमुख जातियों में उसके पास यहां मजबूत स्थानीय नेताओं की कतार है। पार्टी का संगठनात्मक ढांचा भी यहां तुलनात्मक रूप से बेहतर है।

अगर कैडर को एक्टिवेट करने में पार्टी नेतृत्व सफल रहा तो यहां पार्टी की संभावनाओं को खारिज नही किया जा सकता है। 2013 और 2018 में बीजेपी की पराजय का मूल कारण पार्टी कैडर की अरुचि और उम्‍मीदवार को स्वीकार न करना ही था। लोकसभा के नतीजे इस तथ्य की पुष्टि करते हैं। 2014 और 2019 की रिजल्ट शीट इसकी गवाह है। इसलिए बेहतर होगा पार्टी संगठन, मुख्यमंत्री और सिंधिया चुनावी बिसात बिछाने से पहले पार्टी कैडर को मजबूती से भरोसे में लें। अन्यथा 2018, 2013 के विधानसभा/लोकसभा के नतीजे केस स्टडी के लि उपलब्ध हैं।

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