विजय बहादुर सिंह
कल विष्णु पुराण में विष्णु अपनी जीवन संगिनी लक्ष्मी से कह रहे थे कि जो शासक जनता के कोश के प्रति अपने सत्ता -स्वार्थों और महत्व स्थापन के लिए स्वेच्छाचार बरतता है, वह कभी भी भारतीय शास्त्रों के अनुसार अच्छा शासक नहीं हो सकता। सच्चा भारतीय शासक वही है जो असुर सम्राट प्रह्लाद और पुत्र विलोचन की तरह हमेशा अपनी जनता के सुख से सुखी और उसके दुख को अपना दुख मानता है। राजकोष को अपने बाप की जागीर नहीं समझता। उसे जनकल्याणकारी कामों पर खर्च न कर आत्मसुरक्षा, आत्मदंभ के स्थापन के लिए बरतता है। ऐसा शासक जनता का सच्चे हितों का विरोधी शासक है। वह भारतीय शासकों की श्रेष्ठ पंक्ति में कभी आ ही नहीं सकता ।
अब तो स्थिति और आगे निकल गई है। राजधानियों को चमकाने पर खूब खर्च किया जा रहा है। दूसरी ओर सड़क और पुल के अभाव में जनता डूब रही है, बेघर हो रही है। मूर्तियों और मंदिरों पर भारी बजट बढ़ा कर और खर्च कर जनता के पुलों और सड़कों के हिस्से का पैसा डकारा जा रहा है। क्या हम कभी सोचेंगे कि बजट का कितना हिस्सा सरकार और उसकी नौकरशाही के बीच बंदरबाट की भेंट चढ़ जाता है। तब सड़कें और पुल क्या ईमानदारी से बन पाएँगे?
जरा लालकिले, ताजमहल, हावड़ा का पुल देखिए। ये सदियों से खड़े हैं और दूसरी ओर हमारे जनप्रतिनिधियों द्वारा बिहार, मध्यप्रदेश में बनवाए जाते पुलों को देखिए। ये सब लोग राम के भक्त होने का पाखंड करते हैं। क्या हमारे राम ऐसे और यही थे? क्या यही रामराज्य और धर्म का शासन है? मित्रो! जरा यह भी सोचिए…
देवताओं का भक्त तो रावण भी कुछ कम नहीं था, पर वह त्रास पैदा करता था, अन्याय करता था, इसलिए धर्म और संस्कृति के इतिहास में वह और बाद के कंस, जरासंध, शकुनि, धृतराष्ट्र, दुर्योधन यहाँ तक कि इनके पक्ष में खड़े भीष्म, द्रोणाचार्य, कर्ण सबका वध हुआ। तब आज जो कुछ हो रहा और किया जा रहा वह क्या है?
हमें यह भी जान लेना होगा कि असुर या राक्षस भी आर्यों के ही वंशज थे। देवता और असुर एक ही पिता और उनकी दो पत्नियों- दिति और अदिति- के पुत्र अर्थात सौतेले भाई थे। असल प्रश्न दुनिया में जीने के ढंग को लेकर उनकी अपनी जीवन दृष्टियों का था। यही तो देवासुर संग्राम का कारण बनता गया। देवता महाभोगी, ईष्यालु, कुटिल राजनीति करने में माहिर-जिसके प्रमाण इन्द्र स्वयं-थे। यह भी सोचिए कि इन्द्र से उसकी सत्ता उसके ही छोटे भाई विष्णु ने क्यों छीन ली?
यह सब आर्यवंश के भीतर ही हुआ। आज जो भारत विष्णु का और उनके अवतारों राम-कृष्ण आदि का भक्त है वही इससे पहले इन्द्र का भक्त था। वेदों के तमाम मंत्र और यज्ञों की आहुतियां इन्द्र के प्रति समर्पित हैं। पर आज तो विष्णु ही सब कुछ हैं। इससे यह भी मानकर चलिए कि भारत के लोग यदि जरूरत से ज्यादा सहिष्णु हैं तो मौका आने पर वे जरूरत से ज्यादा कठोर भी हैं। ऋषिकवि वाल्मीकि राम के गुणों का बखान करते हुए यही तो कहते हैं कि राम कुसुम जितने कोमल किन्तु वज्र जितने कठोर भी हैं।
सोचिए, अपनी परंपरा को पहचानिए।