एक और बाल पत्रिका के बंद होने पर वयस्क चिंतन

अजय बोकिल

दो मिनट में चार बार चैनल बदलने वाली नई पीढ़ी के लिए इस खबर के कुछ खास मायने भले न हों, लेकिन पचास के ऊपर की जनरेशन के लिए यह खबर वाकई पीड़ादायी है कि हिंदी की दो प्रमुख पत्रिकाओं ‘कादम्बिनी’ और ‘नंदन’ का प्रकाशन अब इतिहास बन गया है। हिंदी पाठक को ढाई दशक पहले ऐसा ही मानसिक झटका टाइम्स ग्रुप ने अपने धर्मयुग, दिनमान, सारिका, पराग जैसे कई प्रकाशनों को एक गुमनाम-सी प्रकाशन संस्था को बेचकर दिया था। वह देश में आर्थिक उदारवाद का पहला बौद्धिक संक्रमण था।

‘कादम्बिनी’ और ‘नंदन’ पत्रिकाएं बीते 6 दशकों से वयस्क और बाल साहित्य में अपने ढंग से हस्तक्षेप किए हुए थीं। हालांकि ‘कादम्बिनी’ की प्रकृति, साहित्यिकता और वैचारिकता को लेकर मतभेद रहे हैं, लेकिन ‘नंदन’ जैसी बाल पत्रिका को उस श्रेणी में शुमार किया जा सकता है, जिसने कम से कम चार दशकों तक पीढि़यों को गढ़ा। उनके बाल मानस को संवर्द्धित किया। उनमें पढ़ने की रुचि जाग्रत की। कल्पना का संसार जगाया। बचपन को अपने ढंग से संस्कार दिया। जिस पीढ़ी ने अपनी बाल्यावस्था में इस पत्रिका को पढ़ना शुरू किया था, वो आज ‘सीनियर सिटीजन’ के दौर में हैं। लेकिन ‘नंदन’ के साथ जुड़ी यादें भीतर सहेजे हुए हैं।

यूं पत्रिकाएं बंद होने या करने के पीछे अक्सर व्यावसायिक कारण बताए जाते हैं। लेकिन ‘नंदन’ जैसी पत्रिका का बंद होना, स्वतंत्र भारत में फले-फूले बाल पत्रिकाओं के वृक्ष का मुरझा जाना भी है। वैसे अभी भी चकमक, चंपक, देवपुत्र जैसी बाल पत्रिकाएं निकल रही हैं, लेकिन यह कहना मुश्किल है कि बाल मन और बाल जिज्ञासा को तृप्त करने का काम वो वैसा ही, उस बड़े पैमाने पर कर रही हैं, जितना कि एक जमाने में ‘पराग’, नंदन, चंदामामा और ‘लोटपोट’ जैसी पत्रिकाओं ने किया था।

इंटरनेट और ऑन लाइन रीडिंग के दौर में जब समाचार पत्रों का ही भविष्य संकट में है तो पत्रिकाओं के लिए तो बहुत ही कम स्पेस बचा है। या यूं कहें कि पीडीएफ के जमाने में हार्ड कॉपी पढ़ना पॉपकॉर्न खाने की जगह अखबारी कागज की पुडि़या में मूंगफली टूंगने जैसा है। सूचनाओं की बमबारी के बीच विचार को चीन्हकर उस पर चिंतन-मनन का दौर भी आखिरी सांसें गिन रहा है। ऐसा नहीं कि आज के बच्चे पढ़ नहीं रहे हैं, बल्कि सूचनाओं की दृष्टि से वो अपनी पूर्ववर्ती पीढ़ी से कहीं ज्यादा या कहें कि जरूरत से ज्यादा सु-सूचित हैं।

लेकिन पत्रिकाओं का बंद होना साहित्य की एक और महत्वपूर्ण खिड़की का बंद होना भी है। अगर हिंदी (खड़ी बोली) में बाल साहित्य की बात करें तो बाल पत्रिकाओं का इतिहास 138 साल पुराना है। हिंदी में पहली बाल पत्रिका भारतेंदु हरिश्चंद्र ने ‘बाल दर्पण’ के नाम से 1882 में इलाहाबाद से शुरू की थी। फिर उन्होंने ‘बाल बोधिनी’ भी निकाली। उसके बाद देश आजाद होने तक हिंदी में अलग-अलग शहरों से कई बाल पत्रिकाएं निकलीं और बंद भी हुईं।

हिंदी में बाल पत्रिकाओं का स्वर्णयुग देश आजाद होने के बाद शुरू हुआ। माना गया कि स्वतंत्र देश के बच्चों का बाल मन संस्कारित करने, उसे सकारात्मक दिशा देने, विचारवान और जिज्ञासु बनाने के लिए बाल पत्रिकाएं अहम भूमिका निभा सकती हैं। यह बच्चों के मनोरंजन के साथ-साथ उनके ज्ञानवर्द्धन का सार्थक प्रयास भी थीं। इसकी पहल प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू की सरकार ने ‘बाल भारत’ के प्रकाशन से की।

उसी दौर में बच्चों की एक और अहम पत्रिका ‘चंदामामा’ का प्रकाशन भी 1947 शुरू हुआ। यह हिंदी सहित 13 भाषाओं में छपती थी। हालांकि इसमें पौराणिक और अतीतजीवी काल्पनिक कथाएं होती थीं। कुछ नीति कथाएं भी होती थीं। लेकिन कल्पनाशील बाल मन इन कथाओं में खूब रमता था। साठ के दशक में हिंदी में बाल साहित्य की दो प्रतिनिधि पत्रिकाएं शुरू हुईं। 1958 में टाइम्स ग्रुप की ‘पराग’ और 1964 में हिंदुस्तान टाइम्स समूह की ‘नंदन।‘ नंदन का पहला अंक ही प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू को समर्पित था।

इसके कुछ समय बाद ही ‘लोटपोट’ और ‘चंपक’ जैसी बाल पत्रिकाओं का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। लेकिन बालरंजन की असली स्पर्द्धा ‘पराग’ और ‘नंदन’ के बीच ही चला करती थी। बच्चों को इन दो पत्रिकाओं के बाजार में आने का बेसब्री से इंतजार रहता था। हालांकि दोनों की एप्रोच में बुनियादी फर्क था। जहां ‘पराग’ का जोर समसामयिक विषयों पर केन्द्रित सामग्री, प्रगतिशील सोच व कथाओं पर रहता था, वहीं ‘नंदन’ राजा-रानी की कथाएं, तेनालीराम की चतुराई जैसी सामग्री से भरी होती थी।

‘पराग’ की कथाओं में समय के साथ बदलते बचपन की थाह ली जा सकती थी तो ‘नंदन’ में एक अतीतजीवी रम्यता थी। पराग के ‘शिशु गीत’ और कार्टून ‘छोटू लंबू’ काफी चाव से पढ़े जाते थे तो नंदन में गलती ढूंढो पहेली भी काफी लोकप्रिय थी। सत्तर के दशक में इन दो पत्रिकाओं की बाल मन पर इतनी गहरी पकड़ थी कि बच्चे स्कूल में भी आपस में इन पर चर्चा किया करते थे।

इनके अलावा एक बाल कॉमिक्स का भी जबर्दस्त जलवा था वो था-इंद्रजाल कॉमिक्स। इसके फैंटम के कारनामे कई बच्चों के सपने में आते थे। जिनकी हैसियत ये कॉमिक्स खरीदने की नहीं होती थी, वो आपस में अदलाबदली करके इन्हें पढ़ा करते थे। इंद्रजाल कॉमिक्स की लत भी कुछ कुछ वैसी ही थी, जैसी कि आजकल बच्चों में कार्टून चैनल की होती है। उन दिनों पत्रिकाएं और किताबें दैनिक किराये पर भी मिलती थीं। एक रुपया डिपाजिट कराओ और दस पैसे प्रतिदिन पर जो चाहे वो किताब या पत्रिका लेकर जाओ।

मुझ जैसे बाल पढ़ाकू ने बहुत सी किताबें और पत्रिकाएं इसी तरह पढ़ीं। लेकिन इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण था इन बाल पत्रिकाओं का बच्चों के ज्ञान के राजमार्ग पर प्रवेश द्वार की भूमिका निभाना। चाहे यथार्थवादी हो या पुरातन प्रेमी, चाहे काल्पनिक संसार की रम्यता हो या विज्ञान की दुनिया में विचरने की ललक, ये पत्रिकाएं अपने समय की बाल जिज्ञासा को काफी हद तक संतृप्त करती थीं। इन्हें पढ़कर ही न जाने कितने लोग गंभीर साहित्य, पत्रकारिता, कला, विज्ञान, इतिहास या अर्थशास्त्र के महासागर में गोते लगाना सीखे।

आज परोसी जा रही बाल सामग्री से अगर उसकी तुलना करें तो उन बाल पत्रिकाओं में प्रस्तुत की जाने वाली सामग्री में एक पवित्रता और सौम्यता का भाव था, जिम्मेदारी का बोध था। उसमें भावी नागरिक को गढ़ने की चिंता झलकती थी। इस मायने में यह आज की बाल पीढ़ी को दसों दिशाओं से परोसी जाने वाली अनसेंसर्ड सामग्री से बहुत अलग और ज्यादा सार्थक थी। अब बच्चे शायद पढ़ते कम और देखते ज्यादा हैं।

हो सकता है बहुत लोग इससे सहमत न हों, लेकिन अपना मानना है कि पढ़ना मस्तिष्क को झकझोरता है और मन को मजबूत बनाता है, बनिस्बत देखने के। बाल पत्रिकाएं भी कच्ची उम्र के सपनों को साकार करने की बुनियाद तैयार करती थीं। कुछ लोग इसे हिंदी साहित्य का दुस्समय भी बता रहे हैं। कुछ की नजर में यह हिंदी साहित्य को खत्म करने की सुनियोजित साजिश है। जबकि पत्रिका प्रकाशन को धंधा मानने वालों का कहना है ‍कि पत्रिकाएं खरीदने और पढ़ने वाले ही अल्पसंख्यक होते जा रहे हैं।

खुद बच्चों की पढ़ने की आदतों में बेसिक बदलाव हो गया है। वो कागज पर छपी सामग्री से संवाद साधने की जगह स्क्रीन पर प्रदर्शित शब्दों से रूबरू होना ज्यादा सहज महसूस करते हैं। इस मायने में यह 21 वीं सदी में छपे हुए शब्दों के अंतिम सांसे गिनने की भी दुर्भाग्यपूर्ण पावती है। आज लोग सूचनाओं से लेकर हर क्षेत्र में जितनी तेजी से बदलाव चाहते हैं, वैसा प्रिंट माध्यम में शायद संभव नहीं है। या यह भी कि बाल पत्रिकाएं आज के बाल मनोविज्ञान और आकांक्षाओं के साथ खुद को ट्यून नहीं कर पा रही हैं, इसलिए बच्चों की भी उनमें ज्यादा रुचि नहीं रह गई है।

उधर प्रकाशकों की दलील है कि किसी भी पत्रिका की धड़कन उसमें प्रस्तुत सामग्री से ज्यादा उसे मिलने वाले विज्ञापनों की आय में बसती है। पत्रिकाएं काम की बातें भले परोस रही हों, कमा कर नहीं दे रहीं। क्यों‍कि सबसे बड़ा रुपैया। अर्थशास्त्र का एक सिद्धांत है ‘सृजनात्मक विध्वंस।‘ यानी एक नष्ट होता है तो उसकी जगह दूसरा नया ले लेता है। ऐसे में किसी पत्रिका के बंद होने पर बौद्धिक मातम मनाने का यूं कुछ खास मतलब नहीं है।

फिर भी यह घटना हमे अतीत के पुनरावलोकन और उसे फिर से अनुभूत करने का अवसर जरूर देती है। खासकर उस पीढ़ी को, जिसने बाल पत्रिकाओं के जरिए ही जीवन का ककहरा सीखने की कोशिश की हो, जिंदगी की किताब के पन्ने पलटना सीखा हो।

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