राकेश अचल
एक जमाना था जब ग्वालियर-चंबल अंचल में सिर्फ दो सियासी ताकतें होती थी, एक महल और दूसरी जेसी मिल। अब जेसी मिल (जयाजीराव कॉटन मिल) नहीं रही लेकिन ‘महल’ जस का तस सियासी ताकत बना हुआ है। महल से कांग्रेस और भाजपा ने हमेशा ताकत ली और अपनी जमीन बनाई, अब ये दूसरा मौक़ा है जब कांग्रेस महलविहीन ही नहीं है, अपितु खुलकर महल के खिलाफ सड़कों पर उतर आयी है। कांग्रेस 1967 और 1996 में भी महल विहीन थी लेकिन महल के खिलाफ सड़कों पर नहीं उतरी थी।
ग्वालियर की राजनीति में महल की भागीदारी नई नहीं है। महल, हिन्दू महासभा से निकलकर कांग्रेस का, जनसंघ से होते हुए बनी भाजपा में, पूरी तरह विलय हो गया है। इस तरह आप कह सकते हैं कि आज भले ही महल भाजपामय हो गया हो लेकिन उसके डीएनए में कांग्रेस ही है। राजमाता कांग्रेस के जरिये ही राजनीति में आई थीं और उनके बेटे माधवराव सिंधिया तथा पौत्र ज्योतिरादित्य सिंधिया ने भी कांग्रेस से ही राजनीति का ककहरा सीखा।
राजमाता ने कांग्रेस छोड़ी तो जीवनपर्यन्त कांग्रेस में वापस नहीं लौटीं लेकिन उनके पुत्र माधवराव सिंधिया अल्पकाल के लिए कांग्रेस से बाहर रहने के बाद दोबारा कांग्रेस का हिस्सा बन गए और आजीवन कांग्रेस में रहे। अब ज्योतिरादित्य सिंधिया कांग्रेस छोड़कर भाजपा के साथ हैं। देखना ये है कि वे भाजपा के साथ अपना पूरा जीवन काटते हैं या अपने पिता की ही तरह दोबारा कांग्रेस में लौट जायेंगे?
ग्वालियर में, मैं 1971 से महल को राजनीति में अपना वजूद बनाये देख रहा हूँ। देश, प्रदेश में चाहे किसी भी दल की सत्ता रही हो ग्वालियर का महल हमेशा प्रासंगिक रहा है। हर दल ने महल को सिरमाथे पर बैठाया। लेकिन ये पहला मौक़ा है कि महल का कोई प्रतिनिधि अब कांग्रेस के साथ नहीं है। इसीलिए कांग्रेस भी पूरी ताकत से महल के खिलाफ सड़कों पर पहली बार मोर्चा खोलकर खड़ी नजर आई है। पहले लग रहा था कि ज्योतिरादित्य सिंधिया के कांग्रेस से बाहर जाते ही अंचल में कांग्रेस का कोई नाम लेने वाला नहीं रहेगा, लेकिन अब ये धारणा निर्मूल साबित हो गयी है।
दलबदल का नया इतिहास लिखकर पहली बार ग्वालियर पहुंचे सिंधिया के खिलाफ कांग्रेस का जबरदस्त प्रदर्शन देखकर सब हैरान हो गए। जिला पुलिस और प्रशासन को सिंधिया के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे कांग्रेसियों को सम्हालना मुश्किल हो गया। कांग्रेसियों ने गिरफ्तारियां दीं, धरने और प्रदर्शन किये और ये साबित करने का प्रयास किया की कांग्रेस सिंधिया के बिना भी ज़िंदा है। कांग्रेस की यही एकजुटता अगर आगे भी कायम रहती है तो निश्चित ही सिंधिया यानि महल के लिए एक नई चुनौती खड़ी हो जाएगी। महल की नींद में खलल तो पड़ ही चुका है।
ग्वालियर-चंबल अंचल में कांग्रेस के पास सिंधिया के जाने के बाद पूर्व मंत्री डॉ. गोविंद सिंह, केपी सिंह, राकेश चौधरी, लाखन सिंह जैसे अनेक नेता हैं, जो भविष्य में कांग्रेस का नेतृत्व कर सिंधिया के खिलाफ पार्टी को ताकत दे सकते हैं, लेकिन इनमें एक भी महल की टक्कर का नेता नहीं है। ग्वालियर में कांग्रेस का महल विरोध, 1984 में माधवराव सिंधिया के कांग्रेस नेता के रूप में ग्वालियर से चुनाव लड़ने के बाद लगभग थम गया था, किन्तु एक बार फिर परिदृश्य बदल गया है। सिंधिया के सिपाहसालार रहे और ग्वालियर से पांच बार लोकसभा का चुनाव लड़कर हार चुके कांग्रेस के अशोक सिंह, पूर्व मंत्री लाखन सिंह अभी भी कांग्रेस में ही हैं। ये महल के आभामंडल के सामने कब तक टिक पाएंगे ये आगामी महीने होने वाले विधानसभा के उपचुनावों के नतीजों से साफ़ हो जाएगा।
ग्वालियर-चंबल अंचल ही विधानसभा उपचुनावों का असली रणक्षेत्र है क्योंकि इसी अंचल से सर्वाधिक 16 सीटों के लिए चुनाव होना है। ऐसा माना जाता है कि कांग्रेस के कब्जे वाली ये सभी सीटें 2018 में ज्योतिरादित्य सिंधिया की वजह से कांग्रेस को मिली थीं। भाजपा को लगता है कि सिंधिया के कांग्रेस में आने के बाद ये सभी सीटें अब भाजपा के पास आ जायेंगी, क्योंकि सिंधिया अब उनके साथ हैं।
कांग्रेस ने बीते चार दशक से महल यानि सिंधिया के खिलाफ कोई मोर्चा नहीं खोला। 1996 में भी नहीं जबकि माधवराव सिंधिया ने कांग्रेस के बाहर जाकर एक अनाम पार्टी के टिकिट पर चुनाव लड़ा था। उस समय कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और स्वतंत्रता संग्राम सेनानी शशिभूषण वाजपेयी सिंधिया के खिलाफ चुनाव लड़े थे। कांग्रेस को उस समय भी उसके पूरे वोट मिले थे जबकि भाजपा ने तब सिंधिया के समर्थन में अपने प्रत्याशी को मैदान से हटा लिया था। लेकिन अब ये सौजन्य नदारद दिखाई दे रहा है। कांग्रेस पूरी ताकत से सिंधिया के खिलाफ खड़ी दिख रही है।
प्रदेश में सत्ता परिवर्तन की नई इबारत लिखने वाले ज्योतिरादित्य सिंधिया के लिए अब उपचुनाव में इस अंचल से सभी सोलह सीटें जीतना बहुत जरूरी हो गया है, ऐसा किये बिना न महल की आभा बचेगी और न खुद ज्योतिरादित्य सिंधिया की। ज्योतिरादित्य सिंधिया ने कांग्रेस छोड़ने का ये कदम तब उठाया है जब उनके सामने सिंधिया घराने की नयी पीढ़ी यानि अपने पुत्र को अपना उत्तराधिकारी बनाने का काम भी करना है। ज्योतिरादित्य के बेटे महाआर्यमन अभी 24 साल के हैं और राजनीति में पूरी दिलचस्पी लेते हैं। ज्योतिरादित्य सिंधिया जब परिस्थितवश राजनीति में आये थे तब उनकी उम्र 30 वर्ष की थी।
मध्यप्रदेश में ये दशक महल की राजनीति को किस दिशा में ले जाएगा ये कहना अभी कठिन है, लेकिन सबकी दिलचस्पी इसमें अवश्य है। ज्योतिरादित्य सिंधिया भाजपा में चमकते हुए गए हैं, भाजपा उनकी आभा को कब तक अपनी ऊर्जा से आलोकित करेगी ये भी अभी भविष्य के गर्भ में हैं। राजनीति के लिए सिंधिया और सिंधिया के लिए राजनीति पहले भी महत्वपूर्ण थे और आज भी हैं। दोनों का ये रिश्ता कितनी दूर तक जाएगा राजनीति का कोई पंडित ही बता सकता है, मेरे लिए ये सम्भव नहीं है।
मैंने सिंधिया परिवार की तीन पीढ़ियों को राजनीति करते देख लिया है और यदि समय रहा तो चौथी पीढ़ी को भी राजनीति में कदम रखते देखूंगा, लेकिन ये जरूरी भी नहीं है, क्योंकि पता नहीं तब तक मेरी उँगलियाँ लैपटॉप पर नृत्य कर पाएंगी या नहीं?