विष्‍णु पुराण को देखते हुए कुछ सवाल

विजयबहादुर सिंह 

इधर कई दिनों से हिन्दी धारावाहिक विष्णुपुराण देख रहा हूँ। कई मित्रों और परिचितों को इस पर आश्चर्य भी हो सकता है कि यह मुझे क्या हो गया है। पर मैं यह सब भी अपने बचपन से करता आ रहा हूँ सिर्फ इसलिए कि जान सकूँ कि पुरखों का मानस और उनकी बौद्धिकता किस कोटि की थी कि यह देश आज तक उनके प्रभाव के अधीन ही नहीं, वशीभूत भी है तो क्यों और कैसे? पढ़ और सोच यह भी रहा हूँ कि वेदों, उपनिषदों जैसे दिव्य और अलौकिक ज्ञान के बावजूद क्यों उनके द्वारा प्रवर्तित जीवनधारा और धार्मिकता के विरोध में इसी समाज के शासक वर्गों से दो क्षत्रिय राजकुमार उठ खड़े हुए और करुणा और अहिंसा के साथ साथ सत्य और सद्धर्म की बात करने और उसका प्रचार करने लगे?

क्यों वैदिकों के आनंदवाद के विरुद्ध दुखवाद और विवेकवाद की बात करने लग गए? यह भी कि विश्वामित्र और वशिष्ठ का झगड़ा क्या था और क्यों था? विश्वामित्र क्यों दूसरी सृष्टि बनाने को लेकर प्रयत्नशील थे? वैदिक काल में ही ब्राह्मणों और क्षत्रियों के बीच यह झगड़ा और वैमनस्य क्यों पनपने लगा? क्यों महाराजा दशरथ के दो बेटे विश्वामित्र के शिष्य हुए और क्यों भरत और शत्रुघ्न वशिष्ठ के साथ रह गए? क्यों अंतत: विश्वामित्र के शिष्य राम और लक्ष्मण को परवर्ती भारतीय समाज ने अपना नायक और देवता माना?

मैं इस सोच में भी पड़ा हूँ कि यह वैदिक समाज क्यों और किन वैचारिक प्रभावों के चलते बुद्ध और महावीर के अनुगामियों के समाज में बदलता गया? आखिर वैदिकों द्वारा प्रतिपादित, ब्राह्मण ग्रंथों द्वारा परिपुष्‍ट यज्ञवाद क्यों आगे चलकर धर्म नहीं माना गया? क्यों हिंसा के बदले अहिंसा को परम धर्म मानने की मुहिम शुरू की गई?

मेरे मन में यह सवाल भी है कि रामायण और महाभारत क्यों फिर सत्य और धर्म की स्थापना की बात करते हुए यथासंभव युद्ध से बचने और समझौते से समस्याओं को हल किए जाने की अंतिम दम तक कोशिश करते रहने की सलाह और संकेत देते हैं? तब भी वे दोनों ही खानदानों की उत्पत्ति को यज्ञ से  क्यों होना दिखाते हैं, जिसका निषेध बुद्ध और महावीर कर चुके थे?

आखिर इन दोनों जीवन दृष्टियों और दर्शनों को यज्ञ धर्म से परेशानी क्या थी? फिर वैदिकों के इन्द्रदेव को क्यों सत्ताच्युत किया गया और उनके अनुज विष्णु को समस्त उत्तरवर्ती वैदिक यानी पौराणिक समाज ने अपना दैवी शासक मान उन्हें ब्रह्म के अवतारी रूपों में अपना आराध्य बना लिया? राम और कृष्ण के रूप में?

फिलहाल इस बहस में अभी नहीं जाता कि वेदों, ब्राह्मण ग्रंथों और उपनिषदों के रहते हुए भी किन वजहों से पुरखों ने पुराणों को धर्मग्रंथ के रूप में प्रचारित करना शुरू किया और उनमें बुद्ध और महावीर की कई सारी बातों को मान्यता देते हुए वैष्णवता और नास्तिकता को करीब लाने की पहल शुरू की। आज तो जैन और वैष्णव परिवारों में शादी विवाह भी होने लगे हैं। समाज एकमेव सत्य का कट्टर मार्ग छोड़ पारस्परिक सामंजस्य और निकटता के पथ पर चला आया है। अनेकांतवाद की ओर आ गया?

ढाई तीन हजार की इस सांस्कृतिक और ऐतिहासिक विरासत के बावजूद सबकी पूजा पद्धतियां क्यों स्वतंत्र हैं और जीवनधारा फिर भी एक? इन्हीं के बीच कई-कई उपधर्म और विश्वास भी पनपे और चल रहे हैं। आपसी लेन देन भी खूब हुआ है। जिस इस्लाम से हमको विशेष चिढ़ है, वह भी ईश्वर विश्वासी आस्तिकता का ही धर्म है जबकि इसी देश में जन्मे बौद्ध और जैन को वेदविरोधी और नास्तिकों का धर्म कहा गया है। ऐसा भी नहीं कि बौद्धों और ब्राह्मणों तथा जैनियों में कभी सांप्रदायिक हिंसा न हुई हो। खूब हुई है। आज इस्लामियों से हो रही है।

हम चाहें तो इसे गतिशील सामाजिक चिंतन धारा कह सकते हैं। पुराणों के प्रति मेरे आकृष्ट होने का कारण यही है। यह सारे हिन्दू समाज को मालूम है कि वेदों तक अपनी पहुंच न रखने वाला समस्त शूद्र समाज (जिसमें अभिनेता से लेकर, समस्त शिल्पी और कारीगर समाज, सुनार, लुहार आदि आते हैं), उसे पुराण पढ़ना और तदनुकूल आचरण करना मान्य है।

कल जब मैं विष्णु पुराण देख रहा था तो दो बातों ने मेरा ध्यान विशेष तौर पर खींचा। पहली यह कि सच्चा शासक वही है जो राजनीति के धर्म का पालन करता है। वह नहीं जो धर्म की राजनीति करे। याद आया, यही बात काफी पहले स्व. प्रधानमंत्री वाजपेयी ने कही थी कि राजधर्म का पालन करो।

दूसरी जो बात कही गई वह यह कि राजा का संबंध प्रजा के साथ माँ की तरह होना चाहिए। उसे हमेशा उसकी भूख और प्यास की न केवल चिंता बल्कि उसे हल करने का दायित्व निभाना चाहिए, यही उसका परम  धर्म है। वस्तुत: उसका सबसे बड़ा धर्म लोक में न्याय की अथवा धर्म की स्थापना है। गीता में तो यह कहा ही गया है।

मैं यह नहीं मानता कि पुराण वगैरह किसी गहरे प्रयोजन के लिए रचे गए। पर जैसा कि यहाँ के कथित उच्च वर्णों की भूमिका है और रही है, उन्होंने उसे भगवान की भक्ति और अंधविश्वास से जोड़कर पूरी मंशा का ही सर्वनाश कर दिया और अपना मिथ्या उच्चत्व प्रचारित करने में लगे रहे। इस बिना पर कि हमारा धंधा चलता रहे।

इसलिए मित्रो! अपनी परम्परा को जानने और ठीक-ठीक पहचानने के लिए उसके पास आँख ही नहीं दिमाग खोलकर जाइए। विष्णु पुराण में ही कल यह संवाद भी आया कि परंपरा हमीं बनाते हैं और जरूरत महसूस होने पर उसे बदलते भी हमीं हैं। परम्परा कोई ब्रहरेखा नहीं है। यह तो समाज तय करता है कि व्यापक मानव और उदात्त मानवता के लिए क्या श्रेयस्कर है।

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