अरुण कुमार त्रिपाठी
कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी की बहन और उत्तर प्रदेश की प्रभारी प्रियंका गांधी वाड्रा ने उचित ही कहा है कि कांग्रेस का अगला अध्यक्ष गांधी परिवार से बाहर का कोई व्यक्ति बनाया जाना चाहिए। इस मामले में उन्होंने राहुल गांधी की राय का समर्थन किया है। प्रियंका गांधी ने यह बात प्रदीप छिब्बर और हर्ष शाह की एक पुस्तक `इंडिया टुमारो’ में दर्ज एक इंटरव्यू में कही है उनका यह बयान जितना उचित लगता है उस पर अमल कर पाना उतना आसान नहीं है। अगर कांग्रेस अपने नेतृत्व के लिए नेहरू गांधी परिवार से बाहर किसी व्यक्ति को तलाशती है तो पार्टी के और बिखराव का खतरा पैदा होता है और अगर नहीं तलाशती तो उस पर परिवारवाद का आरोप कालिख की तरह और गहरा होता जाता है। यह एक धर्मसंकट है जिससे निकलना कांग्रेस के लिए जितना जरूरी है उतना ही जरूरी है इस देश के विपक्ष और लोकतंत्र के लिए।
इसमें कोई दो राय नहीं कि कांग्रेस अपने 135 वर्षों के इतिहास में सबसे गंभीर संकट से गुजर रही है। इससे पहले भी कांग्रेस में आंतरिक टकराव होते थे, पार्टी पर प्रतिबंध लगता था लेकिन इसी के बीच से वह भारतीय जन और इस देश की एक मात्र उम्मीद दिखती थी। लेकिन तब उसमें विचारों और रणनीतियों का टकराव होता था और वह सतह पर प्रकट होता था। तब नेतृत्व का टकराव होता था तो गरम दल और नरम दल की बहस चलती थी। लेकिन आज स्थानीय स्तर पर कांग्रेस तेजी से बिखर रही है और राष्ट्रीय स्तर पर किसी भी तरह की नैतिक आभा से रहित हो गई है।
गोवा, मध्य प्रदेश और राजस्थान के ताजा घटनाक्रम इसके प्रमाण हैं। इसके बावजूद यह कहने में कोई हर्ज नहीं है कि इस देश में विपक्ष की एक मात्र उम्मीद कांग्रेस ही है। उसके पास एक राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय दृष्टि है और एक राष्ट्रीय साहस भी। अगर इस बात को थोड़ा बढ़ाकर कहा जाए तो यह भी हो सकता है कि लोकतंत्र की रक्षा कांग्रेस पार्टी ही कर सकती है।
इसीलिए गांधी परिवार से बाहर किसी को पार्टी अध्यक्ष बनाने का राहुल गांधी का आग्रह और उसे प्रियंका गांधी का समर्थन जहां पार्टी के भीतर एक नए किस्म की उथल पुथल पैदा कर सकता है वहीं पार्टी के बाहर देश में इस सबसे पुराने राजनीतिक दल के लिए नया आकर्षण भी पैदा कर सकता है। यह सही है कि कांग्रेस पार्टी को जोड़ कर रखने में आज भी नेहरू गांधी परिवार की चुंबकीय भूमिका है और पार्टी के तमाम वरिष्ठ नेता इस बात को स्वीकार करते हैं कि उन्हें केंद्र में रखना ही होगा। लेकिन जब पार्टी की कमान इस परिवार से बाहर जाएगी तो परिवारवाद का वह बड़ा धब्बा मिट सकेगा जो संघ परिवार और भाजपा ने उस पर रखा है।
उससे भी बड़ी बात यह है कि अपने राजनीति कॅरियर के लिए लोग भाजपा में इसलिए खिंचे चले जाते हैं कि अगर आप अल्पसंख्यक नहीं हैं और हिंदू समाज की किसी भी जाति के हैं तो आपके आगे बढ़ने का मार्ग खुला है। अगर कांग्रेस परिवारवाद से बाहर आती है तो वे कांग्रेस के भीतर भी संभावना देखेंगे। अभी कांग्रेस अपने हाई कमान के नजदीकी और कुछ प्रदेशों में कुछ खास जातियों के एकाधिकार का संगठन बनकर रह गई है और इसी कारण इसका क्षय भी हुआ है और उसमें युवा कार्यकर्ताओं की हरियाली नहीं आ पा रही हैं।
यानी भाजपा से असहमत लोगों के लिए कांग्रेस पार्टी एक अवसर बन सकती है। कांग्रेस अपने शीर्ष पर किसी जनाधार वाले दलित या पिछड़े नेता को बिठाकर उस खोए हुए आधार को अपनी ओर खींच सकती है जिसे मंडल और कांशीराम के आंदोलन ने छीन लिया था। लेकिन ध्यान रहे कि ऐसा अल्पसंख्यक वर्ग को नेतृत्व देने से नहीं होगा। क्योंकि कांग्रेस की यह छवि बहुत तेजी से बनाई गई है कि उसमें सारे तो मुस्लिम भरे हुए हैं और इससे बहुसंख्यक समाज उससे दूर गया है।
कांग्रेस के सामने दूसरा संकट धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक विचारधारा पर दृढ़ता से बढ़ने का है। कांग्रेस के भीतर हिंदुत्ववादी लोगों की अच्छी तादाद है। यह उसे स्पष्ट सोच बनाने और कार्यक्रम लेने से रोकती है। दूसरी ओर कांग्रेस से जुड़ा मुस्लिम समाज का नेतृत्व भी अपने समाज की अनुदारता को ही बचाने में लगा रहता है और वह वहां से सेक्यूलर नेतृत्व उभरने नहीं देता। आरिफ मोहम्मद खान और शाहबानो मामले की त्रासदी कांग्रेस पर भारी पड़ी है जिसे वह अयोध्या में रामजन्मभूमि का ताला खोलकर और वहां शिलान्यास करके भर नहीं पाई।
लेकिन कांग्रेस के भीतर वह क्षमता है कि संकट के समय वह कोई ऐसी जमीन तलाशती है जिससे देश के भीतर का उदार चिंतन और समाज उसके साथ हो लेता है। यह काम गांधी परिवार के बाहर से प्रधानमंत्री बने पीवी नरसिंहराव और मनमोहन सिंह ने किया। हालांकि उसके परिणाम भी गंभीर रहे और डॉ. मनमोहन सिंह के दूसरे कार्यकाल ने कांग्रेस को हाशिए पर ला खड़ा किया।
इसलिए कांग्रेस के लिए आज यह जरूरी है कि वह अपनी पार्टी के भीतर लोकतांत्रिक वातावरण निर्मित करे और पार्टी में प्रतिभाशाली युवाओं और नए नेतृत्व के लिए अवसर उपलब्ध कराए। कई लोग इस कोशिश में हैं कि कांग्रेस आजादी के पहले वाली स्थिति में जाए और आंदोलन की राह पकड़े। लेकिन यहां यह चेतावनी भी दी जानी चाहिए कि अब वैसी कांग्रेस नहीं होनी चाहिए जिसके भीतर हिंदू महासभा के भी लोग हों और मुस्लिम लीग के भी। कांग्रेस को ऐसा नेतृत्व चाहिए जो कि बेरोजगारी, मानवाधिकार, जातिगत और सांप्रदायिक अत्याचार और देशभक्ति के मुद्दे पर नया आंदोलन और नया आख्यान खड़ा कर सकें। अगर भाजपा आज सफल है तो उसकी बड़ी वजह है कि नरेंद्र मोदी की छवि उन तमाम मुद्दों के साथ जुड़ती है जिसे संघ परिवार और भारतीय समाज का मध्यवर्ग पसंद करता है।
यहां नेतृत्व का सवाल सिर्फ राहुल गांधी से अच्छी हिंदी बोलने वाले या ज्यादा जुझारू व्यक्ति को कमान देने का नहीं है। सवाल उन प्रतीकों और प्रतिमानों को चुनने का है जो मोदी और भाजपा से टक्कर ले सकें। ऐसे नारों को गढ़ने का है जो नेतृत्व पर फिट बैठ सकें। आकर्षक प्रतीक और चुंबकीय नेतृत्व गढ़ने में कांग्रेस का कोई सानी नहीं रहा है लेकिन विडंबना है कि कांग्रेस की वह रचनाशीलता सूख गई है।
यहां सवाल यह भी है कि कांग्रेस का नेतृत्व वामपंथी हो या दक्षिणपंथी। निश्चित तौर पर आर्थिक रूप से कांग्रेस का दक्षिणपंथ उन सभी को स्वीकार्य नहीं है जो विपक्ष की राजनीति करते हैं। इसके बावजूद कांग्रेस के भीतर उदारीकरण के लोकतांत्रिक विमर्श की संभावना रहती थी। इसे भाजपा और संघ परिवार ने समाप्त कर दिया है। इसलिए यहां शशि थरूर का यह सुझाव उचित ही लगता है कि अगर गांधी परिवार का कोई सदस्य कांग्रेस का अध्यक्ष नहीं बनता है तो पार्टी के भीतर चुनाव होना चाहिए। यहीं पर गांधी परिवार का दायित्व बड़ा हो जाता है। यहां उसका यही फर्ज बनता है कि वह आंतरिक प्रतिस्पर्धा और बाहरी मुकाबले के लिए पार्टी को इतना ही खोले कि वह गतिशील हो जाए और इतना न खोले कि वह टूट जाए।
कांग्रेस के भीतर बुजुर्गों और युवा पीढ़ी का द्वंद्व है लेकिन इस द्वंद्व का समाधान संगठन को कुंठित करने में नहीं बल्कि नए विचारों और नए व्यक्तित्व के लिए रास्ता बनाने में है। उसके लिए कांग्रेस अगर समाजवादियों और कम्युनिस्टों की ओर देखती है तो कोई बुरा नहीं है क्योंकि उनमें लड़ते रहने की ट्रेनिंग है। आज पूरी दुनिया में लोकतंत्र पर बढ़ते संकट को लेकर हलचल है। कांग्रेस अपनी कमजोरी से उस संकट का हिस्सा बन सकती है और अपनी सक्रियता और मजबूत नेतृत्व से समाधान दे सकती है।
तिलक, गांधी, नेहरू, पटेल और इंदिरा गांधी जैसे चमत्कारिक और करिश्माई व्यक्तित्व इतिहास में बार बार नहीं उपस्थित होते। इसलिए उनका इंतजार किए बिना कांग्रेस को आंतरिक गतिशीलता बढ़ाने के साथ विपक्ष की सार्थक भूमिका में उतर जाना चाहिए। क्योंकि शीशों का मसीहा कोई नहीं है।